कैकयी तुम कुमाता नहीं हो
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’अध्यात्म की ओर बढ़ो राजन,
मोह का त्याग करो
इन वचनों के साथ मुनिराज विश्वामित्र का
अयोध्या से प्रस्थान हुआ
राजा दशरथ को आज
समय बीतने का ज्ञान हुआ
दशरथ आज दर्पण के सामने हैं –
श्वेत केश दुर्बल काया और झुके कंधों को देखते हैं
अयोध्या भूमि पर अब, नव पुष्प खिलने चाहिएँ
राज मुकुट और सिंहासन को,
अब राम मिलने चाहिए!
राज गुरु वसिष्ठ से मिले राजन,
अपनी अभिलाषा व्यक्त की
राम को राजा रूप में देखूँ,
चरणों में इच्छा रख दी।
सुनकर कर हर्षित हो गुरु ने,
राजा को साधुवाद किया
हे राजन! मंत्री परिषद् का आह्वान करो
इस विचार को राज्य सभा में, तुरन्त रख दो
विलम्ब न हो इस काज में, ऐसा आदेश किया।
राज्य सभा बुलाई गई,
राम राज तिलक का प्रस्ताव हुआ
सारी सभा के जयघोष से
इस शुभ कारज का आरम्भ हुआ
घोषणा हुई अयोध्या में,
सौभाग्य हमारे अब होंगे
आने वाले कुछ ही दिनों में –
राम हमारे राजा होंगें!
नृत्य शृंगार सौंदर्य की वर्षा है,
आज हमारी अयोध्या में,
सुख रामकृपा बनकर बरसा है
कौशल्या सुमित्रा कैकयी –
हर्ष से फूली न समाती हैं
हर कारज को पूरा करने,
अपने नाम बढ़ाती हैं।
लेकिन कोई ऐसा भी था
जो ईर्ष्या से जला जाता था,
किसी तरह से ये कारज रुके
उसके मन में आता था।
कैकयी की ख़ुशी देख . . .
कुटिल मंथरा ने, अपने मुख को और टेढ़ा किया
ये भी भला कोई हर्ष की बात है,
ये कह रानी के कानों में ज़हर भरा
पुत्र तो भरत है –
फिर तुम क्यों मंगल गाती हो
भरत ही राजा हों, दशरथ के सामने,
ये प्रस्ताव क्यों न लाती हो?
महाराज को—
उनके दो वचन क्यों न याद दिलाती हो?
बोली कैकयी
चुप हो दुष्टनी,
अपनी जिह्वा को तू, तुरंत लगाम दे
तेरा मन भी तन सा कुरूप है –
इस बात का न प्रमाण दे।
दूर हो जा मेरी दृष्टि से,
मन करता है, तेरा मैं वध कर दूँ
राम का राज तिलक कहीं,
तेरे रक्त से ही न कर दूँ!
कक्ष से चली गयी मंथरा,
कैकयी अभी तक क्रोध पाश में थी
मन में भी, ये विचार आया कैसे?
इस असमंजस जाल में थी
रानी पर छोड़ा ये,
माया बाण असफल रहा
देवलोक चिंतित हैं,
अब धरती के दुःख का क्या होगा
विष्णु का राम रूप,
इस अवतरण का क्या होगा?
सारे देवता अब माँ शारदे के समक्ष पहुँचे
माँ तुम ही अब कृपा करो,
हम तुम्हारी स्तुति हैं करते
कैसे रावण का अंत हो,
हम इस चिंता से हैं डरते!
सुन व्यथा माँ शारदे ने आदेश दिया
जाओ मिलो और करो विनती,
राम जन्म को सफल करने की
माँगो कृपा माँ कैकयी से,
सारे कष्ट मिटने की।
सारे देवगण तब कैकयी के समक्ष गए
हाथ जोड़ कर विनती की –
इस धरती से पाप मिटे
हे माता क्या तुम सहमत हो,
कुमाता बनने के लिए
तुम वो करोगी . . .
जो अब तक न किसी ने किया
कैकयी ये नाम भी अब,
किसी और का न होगा
इतनी तुम घृणा पाओगी,
पर ये भी सत्य है —
तुम ही राम को राम बनाओगी!
मैं ये करूँगी, ये सोचा भी कैसे तुमने
राम मेरा प्राण है, उसे मैं स्वयं से दूर हटाऊँगी?
सुनो माँ कैकयी हम,
चरणों में विनती करते हैं
कृपया इस धरा का कुछ सोचो–
हम विनाश से डरते हैं।
सुन कर बोली कैकयी
जो मन में नहीं वो, व्यक्त कैसे करूँ?
विनती है माँ शारदे,
मेरी जिह्वा ग्रहण करो!
कोप भवन की लीला हुई,
दशरथ तक बात पहुँच गई
महाराज ने देखा–
कैकयी रौद्र रूप में थी
माँ शारदे उसी क्षण–
कैकयी की जिह्वा पर विराजमान हुई।
कारण बताओ रानी,
तुम इस शोक का
क्या करूँ कि तुम,
फिर से हर्षित हो जाओ।
ज़्यादा कुछ नहीं राजन,
अपने दो वचनों को याद करो।
हाँ माँगों तुम्हें अधिकार है,
मैं हर्षित हो तुम्हें दूँगा।
मेरे पुत्र भरत को –
इस अयोध्या का राज
और राम को वनवास मिले।
नहीं नहीं रानी, ऐसा न तुम पाप करो
कुछ सोचो इस धरा के लिए,
उस ईश्वर से कुछ तो डरो!
दशरथ मूर्छित हुए,
राम को सन्देश मिला
वन जाने को माँ कैकयी का
उनको आदेश मिला
आज राम का सिया लश्मण सहित,
वन को प्रस्थान हुआ
सारी अयोध्या से उसी क्षण,
कैकयी को कुमाता नाम मिला।
माँ के कर्म को कोई न मापे,
माता कुछ भी कर सकती है
एक कैकयी धरती रक्षा के लिए,
कुमाता बन सकती है!
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