बेटे का सुख
कहानी | विजय विक्रान्तदो बेटियों के बाद जब दिवाकर के यहाँ बेटा पैदा हुआ तो उसकी ख़ुशियों का अन्दाज़ा लगाना बहुत मुश्किल था। ’दो बेटियाँ और एक बेटा, चलो अब अपना परिवार पूरा हुआ’ यह सोच कर दिवाकर और उसकी पत्नि सुनीती बहुत प्रसन्न हुए।
बच्चे के जन्म के सात दिन बाद दिवाकर जन्मकुण्डली बनवाने के लिये पण्डित बैजनाथ से मिलने गये। पण्डित जी ने नक्षत्रों को देख कर प्रदीप नाम सुझाया। फिर बोले, “सेठजी, और सब तो ठीक है, बच्चा बहुत होनहार होगा परन्तु इस बालक का आपको कोई सुख नहीं मिलेगा।”
यह सुनकर दिवाकर विचलित तो बहुत हुआ परन्तु अपने मन के भावों को पण्डित जी पर भी प्रकट नहीं होने दिया। बात ऐसी थी कि इस बालक के जन्म से पहले उसके एक पुत्र और एक पुत्री की बाल्य अवस्था में मृत्यु हो गई थी। अब तो दिवाकर के दिमाग़ में यह बात घर कर गई कि ये बच्चा भी बचेगा नहीं और कुछ दिन हमारे साथ रहकर अपने दोनों भाई बहन के साथ जा मिलेगा। अपने दिल की यह बात उसने किसी से नहीं बताई, सुनीती तक को भी नहीं। बस मन ही मन एक घुटन को लेकर जीना शुरू कर दिया। पत्नी के बार बार पूछने पर भी उसे कुछ नहीं बताया।
समय के साथ साथ प्रदीप बड़ा हुआ। वो पढ़ने में बहुत तेज़ निकला और हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आता रहा। इसी बीच उसको आईआईटी दिल्ली में दाख़िला मिल गया और उसने दिल्ली जाने की तैयारियाँ भी शुरू कर दीं। क्योंकि अब प्रदीप के भविष्य का सवाल था इसलिये पिता ने अनमने मन से उसे दिल्ली जाने की अनुमति देदी। प्रदीप ने अपनी पढ़ाई दिल लगा कर की और फ़र्स्ट पोज़ीशन में पास हुआ। यह सब देख कर दिवाकर बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन उसके मन में प्रदीप को लेकर जो खटका बैठ गया था वो अब और भी बढ़ गया क्योंकि पढ़ाई समाप्त करने के बाद उसको नौकरी के लिये उन से दूर तो जाना ही होगा।
एक दिन इसी बात को लेकर दिवाकर अपनी ही दुनिया में खोया हुआ कुछ सोच रहा था कि अचानक प्रदीप के आने की आहट सुनकर जैसे सोते से जाग पड़ा हो। इधर उधर की बातें करने के बाद प्रदीप ने आगे पढ़ाई करने के लिये जब पिता के आगे यह प्रस्ताव रखा कि वो दो साल के लिये कैनेडा जाना चाहता है तो दिवाकर पर तो जैसे बिजली गिर गई हो। कहाँ तो वो प्रदीप को अपनी आँखों से अलग नहीं करना चाहता था और कहाँ ये कैनेडा जाने की बात आगई। फिर प्रदीप के भविष्य को देखकर अपने मन को समझाया कि–’दो साल की ही तो बात है’ हामी भर दी।
इधर प्रदीप की दोनों बहनें भी अब पढ़ लिख कर विवाह योग्य हो गई थीं। इस से पहले कि प्रदीप कैनेडा जाये, दिवाकर ने दोनों बेटियों की शादी बड़े धूमधाम से कर दी और ’प्रदीप के दो साल वापस आने के बाद अपना घर तो होना चाहिये’ के विचार से अपना घर का मकान बनवाने का निर्णय ले लिया।
कुछ दिन बाद प्रदीप कैनेडा चला गया। यहाँ आकर वो अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया। अब वो हर हफ़्ते माता पिता को फ़ोन करता था और कैनेडा की सब बातें बतलाता रहता था। जैसे जैसे समय बीतता चला गया प्रदीप की पढ़ाई भी पूरी हो गई। यहाँ यूनिवर्सिटी में उसे गोल्ड मैडल मिला। पास करते ही उसने एक नौकरी ले ली। कम्पनी के मालिक उसके काम से बहुत ख़ुश थे और अच्छी तनख़्वाह दे रहे थे। प्रदीप को भी यहाँ काम करना बहुत अच्छा लगता था और थोड़े समय में उसकी तरक़्क़ी भी हो गई थी।
प्रदीप को घर छोड़े हुए ढाई साल से ऊपर हो गये थे। अब जब भी फ़ोन पर बात होती थी तो माँ बाप का बस एक ही सवाल होता था कि“बेटा वापस कब आरहे हो? अब तो तुम्हारा मकान भी तैयार हो गया है।” वापस आने वाली बात को लेकर हर बार प्रदीप कोई न कोई बहाना बना देता था। इसी तरह चार साल बीत गये। दिवाकर और सुनीती को अब इतने बड़े मकान में बहुत अकेलापन महसूस हो रहा था। बेटे का पास ना होना उन्हें बहुत ख़लता था।
टेलीफ़ोन का सिलसिला और माँ बाप के बस एक ही प्रश्न का दौर यूँ ही चलता रहा। एक दिन जब प्रदीप का फ़ोन आया और माँ बाप ने जब वही प्रश्न किया तो प्रदीप ने जवाब दिया, “पिताजी, माताजी, भारत में नौकरी के हालात तो आपको पता ही हैं। लगता है वहाँ के माहौल में मैं टिक नहीं पाऊँगा इसलिये मैंने यहाँ कैनेडा में बसने का पक्का विचार कर लिया है। अब वापस आने का मेरा कोई इरादा नहीं है।”
प्रदीप की बात सुनकर माता पिता कुछ देर सुन्न बैठे रह गये। अचानक दिवाकर के मन में ज्योतिषी की बात गूँज गई—सेठजी, और सब तो ठीक है, बच्चा बहुत होनहार होगा परन्तु इस बालक का आपको कोई सुख नहीं मिलेगा।
इस विशेषांक में
कविता
- तुम्हारा प्यार आशा बर्मन | कविता
- आकांक्षा आशा बर्मन | कविता
- जागृति आशा बर्मन | कविता
- मेरा सर्वस्व आशा बर्मन | कविता
- नित – नव उदित सफ़र डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- इन्द्रधनुषी लहर डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता का दिल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- नया साल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- बसन्त आया था डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- ये पत्ते डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- एक मुट्ठी संस्कृति डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- जीवंत आसमान की धरती का जादू डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- राह डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- मुस्कान डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- अग्नि के सात फेरे तरुण वासुदेवा | कविता
- माँ और स्वप्न तरुण वासुदेवा | कविता
- ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें निर्मल सिद्धू | कविता
- उम्र के तीन पड़ाव निर्मल सिद्धू | कविता
- वह पूनम कासलीवाल | कविता
- तुम कहाँ खो गए . . . प्राण पूनम कासलीवाल | कविता
- हर बार पूनम कासलीवाल | कविता
- आना-जाना पूनम कासलीवाल | कविता
- पिता हो तुम पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- माँ हिन्दी पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कैकयी तुम कुमाता नहीं हो पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कृष्ण संग खेलें फाग पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कटघरा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- आईना प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- मुलाक़ात प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- पेड़ डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- माँ! मैं तुम सी न हो पाई! डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- चिड़िया का होना ज़रूरी है डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- मूड (Mood) डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- गुरुदेव सीमा बागला | कविता
- मेरी बिटिया, मेरी मुनिया संदीप कुमार सिंह | कविता
- अधूरी रह गई संदीप कुमार सिंह | कविता
- चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो? संदीप कुमार सिंह | कविता
- मैं नदी हूँ सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- लेखनी से संवाद सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- हमारे पूर्वज सीमा बागला | कविता
- मेरा बचपन वाला ननिहाल सीमा बागला | कविता
- धारा ३७० सीमा बागला | कविता
- परिक्रमा सुरजीत | कविता
- तू मिलना ज़रूर सुरजीत | कविता
- प्रवास कृष्णा वर्मा | कविता
- वायरस डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लाईक ए डायमण्ड इन द स्काई डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लिफ़ाफ़ा प्राची चतुर्वेदी रंधावा | कविता
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