प्रवासी कथाकार शृंखला – शैलजा सक्सेना : समीक्षा
पुस्तक समीक्षा | प्रो. अमिता तिवारीसमीक्षित पुस्तक: प्रवासी कथाकार शृंखला – शैलजा सक्सेना (कहानी संकलन)
लेखक: डॉ. शैलजा सक्सेना
प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन प्रा. लि.
पृष्ठ संख्या: 176
ISBN-10 : 9390500206
ISBN-13 : 978-9390500208
मूल्य: ₹299.00 (हार्डकवर) / ₹198.00 (पेपरबैक)
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डॉ. शैलजा सक्सेना का प्रवासी साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान है। अपनी साहित्यिक रचनाओं और साहित्यिक गतिविधियों से इन्होंने प्रवासी साहित्य को समृद्ध किया है। शैलजा सक्सेना का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनका लेखन भी बहुआयामी है। उन्होंने कविता, कहानी, लेख, संस्मरण सभी विधाओं में लिखा है। लेबनान की एक रात उनका पहला कहानी संग्रह है। इससे पहले इनका कविता संग्रह क्या तुमको भी ऐसा लगा प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में तेरह कहानियाँ-आग, उसका जाना, एक था स्मिथ, दाल और पास्टा, दो बिस्तर अस्पताल में, निर्णय, नीला की डायरी, पहचान की एक शाम, लेबनान की वो रात, वह तैयार है, शार्त्र, अंदर मदर-हैं।
शैलजा जी के लेखन की विशेषता यह है कि इन्होंने भारतीय परिवेश और विदेशी परिवेश को अपनी कहानियों और कविताओं में अभिव्यक्त किया है। इनका अनुभव अत्यंत गहरा है। एक ओर भारतीय परिवेश संस्कृति और जीवन की गतिविधियों का सूक्ष्म वर्णन है तो दूसरी ओर कैनेडा अमेरिका और इंग्लैंड की संस्कृति और समाज वहॉ की जीवन चर्या, मानसिकता और जीवन शैली को भी अपनी कहानियों में व्यक्त किया है।
इस संग्रह की अनेक कहानियाँ विदेश की नई संस्कृति और उनकी जीवन प्रक्रिया को दर्शाती हैं तो कहीं महानगरीय ज़िंदगी की कसमसाहट और विसंगति का चित्रण करती हैं। यह सच है कि मानव जीवन की सोच मानसिकता, सुख दुख, संघर्ष सब में कहीं न कहीं घोर समानता है। मनुष्य किसी भी परिवेश या समाज में रहे अंततः वह मनुष्य होता है और मानवीय प्रवृत्तियाँ उसमें स्वाभाविक रूप से समान होती है। शैलजा सक्सेना की अनेक कहानियों में यह सच दिखाई देता है। इन कहानियों में भारतीय समाज के साथ ही वहाँ के लोगों की जीवन चर्या, जीवन मूल्य और संस्कृति का सूक्ष्म वर्णन दिखाई देता है। मानवीय जीवन की समस्याएँ, संघर्ष और चाहत हर देश के प्राणी की तक़रीबन एक सी होती है। जैसे माता-पिता का बच्चों के प्रति स्नेह, स्त्री की प्यार की आकांक्षा और प्यार के प्रति निष्ठा, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की चाह प्रत्येक समाज में समान होती हैं।
भारतीय समाज में यह धारणा है कि विदेशों में पारिवारिक परिवेश नहीं है। पर लेखिका ने अपनी अनेक कहानियों में यह दिखाया है कि वहाँ भी पारिवारिक परिवेश है। उस परिवेश में भी लाड़ प्यार और बहनापा है। उन्हें भी अपने बच्चों की चिंता होती है। उन्होंने अपनी कहानी “दाल और पास्टा“ में यह दिखाया है कि परिवार के प्रति प्रेम और समर्पण उस समाज और परिवेश में भी है। कहानी की पात्रा कैथरिन में परिवार के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव कूट कूट कर भरा है। कैथरिन विदेशी महिला है जिसने भारतीय पुरुष समर से शादी की है पर अपने सरल स्वभाव के कारण ही वह बहुत जल्दी सबको अपना बना लेती है और परिवार वालों को यह नहींं लगता कि वह विदेशी बहू है। कैथरिन भले ही विदेशी स्त्री है जिसने भारतीय पुरुष समर से शादी की पर स्त्री जन्य मृदुलता प्रेम और सबको अपना बनाकर रखने का गुण उसमें है। वह पूरे परिवार के प्रति प्रेम और सौहार्द का भाव रखती है। सबको एकसूत्र में बाँधकर रखना चाहती है। कैथरिन नियम बनाती है कि “हम सब को बराबर मिलते रहना चाहिए और हर बार कुछ अलग और नया भी करना चाहिए। पिछले सप्ताह लेज़र टैरिगिग और ग्लोइन नाइट गोल्फ में कितना मज़ा आया था सबको। मैं मना भी कर रही थी कि कहॉ बच्चों के खेल में जायेगे हम पर वो कहॉ मानी सबको साथ लेकर गई।”
इनकी कहनियों के अधिकांश पात्र हमारे घर परिवार के पात्र दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है जैसे लेखिका ने बड़े क़रीब से इन पात्रों को देखा, सुना और बुना है। राकेश का चरित्र भारतीय पति का वास्तविक चेहरा है जिसे पत्नी की उपलब्धियाँ तो अच्छी लगती है पर उसके शौक़ नहींं। साहित्य और संगीत में यदि राकेश की रुचि नहींं है तो विनीता का शौक़ भी उसे समय की बर्बादी लगत है। क्योंकि इन कलाओं में उसकी रुचि नहींं है।
इस कहानी संग्रह में अनेक ऐसी कहानियॉ हैं जो समकालीन समाज में नारी की बदलती अस्मिता की अभिव्यक्ति करती है जैसे “आग“कहानी में नीमा और रूमा अपने स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए अपने पतियों से तलाक़ लेना चाहती हैं। यही नहीं बहुत समझाने के बाद जब वे नहींं समझती तो उनके पति भी उनसे अलग होने का निर्णय लेते हैं। रूमा का उग्र और अड़ियल रूप देखकर प्रशांत का मन आहत होता है और वह कहता है, “कितना भी निबाह ले आदमी पर ये काले सिर वालियाँ आकर घर अलग कर देती है।”
अपने अपने अहं के कारण दोनों पति पत्नी एक दूसरे से अलग होना चाहते हैं। आजकल के समाज की यह सबसे बड़ी बिडम्बना है कि आजकल के दंपति यह नहींं सोचते कि उनके इस अहं का दुष्परिणाम परिवार को भुगतना पड़ता हैं, बच्चों को भुगतना पड़ता हैं जिससे घर तो बिखरता ही है बच्चों का व्यक्तित्व भी खंडित होता है।
“आग“ कहानी की दोनों बहुएँ चाहती हैं कि उनके पति उनसे माफ़ी माँगे और दोनों बेटे कहते हैं कि जब उन्होंने कुछ अनुचित किया ही नहींं तो वे माफ़ी क्यों माँगे। दादा पर दादा की सामंती सोच की सज़ा ये स्त्रियाँ हमें क्यों देना चाहती हैं। दयावती ने बहुओं को समझाने की बहुत कोशिश कि छोटी सी बात का बतंगड़ नहींं बनाना चाहिए पर बहुएँ कहती हैं कि “औरत ही सदियों से सताई गई है। इस बार पतियों के अंट-संट बोलने के लिए माफ़ी माँगनी पड़ेगी।”
दूसरी ओर “पहचान एक शाम की“ जैसी कहानियाँ भी है जो उस स्त्री का भी चित्रण करती है जो अपने ही घेरे को नहींं तोड़ पाती। घर परिवार, मूल्य संस्कार बच्चे, और उनके प्रति उसका कर्तव्य बोध उसे इस तरह जकड़ कर रखता है कि उसके आगे उसके शौक़ उसकी चाहत उसका मन कोई महत्त्व नहींं रखता। जैसे“पहचान एक शाम की“ विनीता संगीत का कार्यक्रम देखते हुए भी बच्चों के बारे में ही सोचती है, “बच्चों ने खेलना रोक दिया होगा, शायद वे लोग खाना भी खा चुके होंगे। कही राकेश को तंग न कर रहे हो।”
“पहचान एक शाम की“ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो दिल्ली से अपनी नौकरी छोड़कर आई है और परिवार की देखभाल में अपना वास्तविक व्यक्तित्व भूल जाती। जो विनीता दिल्ली अपने कुछ होने के सपने देखती थी वह विदेश में आकर सब की इच्छा पूरी करने वाली मशीन बनकर रह जाती है ल। वह पूरे परिवार के लिए कार्य करती है पर उसकी इच्छाओ का कोई ध्यान रहता। उसका मन उड़ना चाहता है पर वह परिवार के घेरे को तोड़कर उड़ नहीं पाती। कई बार उसे लगता है कि कैनेडा में आकर उसकी ज़िंदगी कोल्हू के बैल की तरह हो गई है। वह सोचती है कि “क्या उम्र यू ही बर्तन धोते खाना बनाते निकल जायेगी। इस विदेश में नए सिरे से पढ़ाई करने और कविता, कहानी की दुनिया छोड़ कम्प्यूटर पर आँकडें लिखने मिटाने को मन अभी भी नहीं राज़ी।” संगीत का कार्यक्रम देखने के बाद उसे यह अहसास होता है कि वह अपने लिए भी जी सकती है। अपने आप को समेटने और अपनी इच्छाओं को मारने के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानती है वह कहती हैं, “घर के कामों और उत्स के ऐसे छोटे लम्हों के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता क्या। ऐसे कुछ घंटो को हफ़्तों और महीनों की थकावट भरी ज़िंदगी में निकाल पाना असंभव तो नहीं फिर क्यों वह ख़ुद को भूल बैठी अपनी पसंद को धकेलते धकेलते इतने पीछे ले गयी कि घर की सीलन और अँधेरे भरी किस अलमारी में उसे बंद करा यह भी यह भी भूल चुकी थी इसमें ग़लती किसी की नहीं पर भूल तो उसी की अपनी ही है।”
“एक था जान स्मिथ“ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जो अपनी ज़िंदगी अपने अनुसार जीता है। उसमें भारतीय संस्कृति और धर्म में विशेष आस्था है। उसकी अभिलाषा है कि उसकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाए। वह अपनी इच्छा अपने मित्र को पत्र लिख कर बताता है। उसे पुनर्जन्म की थ्योरी अच्छी लगती है। अपने मित्र को पत्र लिख कर वह अपने मन की बात कहता है—अब रही ऐश की बात उसे वेकलओटोरियो में बहाने में कोई मुश्किल नहीं होगी न। पिछले कुछ समय से गीता, रामायण उलट पलट रहा हूँ तुमसे मिलने और दिवाली। मनाने के बाद मैं तुम्हारी संस्कृति और धर्म के विषय में थोड़ा बहुत पढ़ता रहा हूँ। कहूँ कि जल में तिरोहित होने के लिए मन में चाह लगी तो ग़लत न होगा। सो तुम्हारा एक एक काम और बढ़ा दिया। मुझे तुम लोगों के पुनर्जन्म की थ्योरी अच्छी लगती है उस हिसाब से मुझे शायद दोबारा आने का मौक़ा मिले शायद जीवन के अंतहीन प्रकाश में फिर प्रकाशित होने का मौक़ा मिले।”
स्मिथ अलग तरह से जीवन जीना चाहता है। उसके जीवन का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है। वह अपने जीवन से संतुष्ट हैं। जैसे आम आदमी पद प्रतिष्ठा पैसे के लिए जीता है वह वैसे नहीं जीना चाहता। वह आत्म खोज करना चाहता है। वह अपनी दुनिया में मस्त रहता है। अपने मित्र को लिखे पत्र में वह कहता है कि“ मैं अपने भीतर की विस्तृत दुनि में व्यस्त रहा। किताबें और उनमें भरे एक से बढ़कर एक ज्ञानकुंड उनमें डूबकर उन्हें जान लेने की छटपटाहट इतनी अधिक थी कि उन्हें और उनसे उपजते चिंतन के नए आयाम इतने अधिक थे कि मैं हमेशा बेहद व्यस्त रहा और एक विचित्र आनंद में जीता रहा। मुझे ख़ुशी है कि मैंने जीवन के प्रकाश अणुओं के बीच अपनी उम्र बिता दूँ। हर नया सवेरा हर नयी रात हर मौसम पूरा-पूरा जिया।
शैलजा जी की कहानियों के पात्र हमारे घर परिवार और समाज के पात्र दिखाई देते हैं। वे समाज की पीड़ा झेलते हुए संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं। इनकी कहानियाँ उच्च मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति करती है। इनके पात्र सामाजिक ताने बाने में उलझी ज़िंदगी जीते हुए भी मानवीयता की प्रवृत्ति नहीं छोड़ते। उनमें आत्मीयता सौहार्द की भावनाएँ बनी रहती है। प्रेम एक मानवीय भाव है “लेबनान की एक रात“ की नायिका में यह प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी है। लेबनान की वो रात एक ऐसी कहानी है जिसमें 1945 के समय हुए युद्ध और उसकी विभीषिका का चित्रण है। पूरे शहर में अफ़रा-तफ़री मची थी। लेबनान के यहूदी अपनी ही ज़मीन पर अपना देश बनाने की ख़्वाहिश लिए चुपचाप शहर से निकल रहे थे। अलुष्का नाम की लड़की बदहवास स्थिति में रात के समय जान अब्राहम के घर आती हैं। युद्ध में अलुष्का के पिता और चाचा की उसकी आँखों के सामने ही हत्या कर दी जाती हैं। उसकी माँ उसे चुपचाप अकेले भगा देती हैं। छुपते-छुपाते वह किसी तरह सिन्हा के घर पहुँचती है क्योंकि सिन्हा ने उससे कहा था कि जब कोई ज़रूरत पड़े तो मेरे घर जानना। घर का पता उसने एक काग़ज़ पर लिखकर उसे दिया था। इस कहानी में प्रेम का अद्भुत चित्रण है। जूली पहले तो अलुष्का की बात पर विश्वास नहीं करती पर बाद में उसकी बातों से और अपने बेटे के प्रति उसके मन में प्यार देखकर इतनी आश्वस्त हो जाती है कि उसे अपने बेटे की मंगेतर मान लेती है। और उसे सिखाती है कि कोई तुमसे पूछेंगे कहना“ तुम्हारा नाम अलुष्का साका है। बेरूत से आई हो बचकर-और तुम्हारी सगाई बेरूत में हुई जब सिमहा 1942 में तुम्हें वहॉ मिला था। तुम्हारा पहली नज़र का प्यार था। और तुम लोगों ने उसी हफ़्ते सगाई कर ली थी वो तेज़ी से रसोई की ओर चली गई। लौटी तो उसके हाथ में आदमियों के पहनने वाली एक अँगूठी थी इस अँगूठी को उसने यास्मीन के हाथ में पहना दी।
शैलजा जी की कथा कहने नया ढंग है उन्होंने कथा कहने की नई परिपाटी को अपना कर एक नई रचना पद्धति की निर्मित की है। इन कहानियों में कही सपाट बयानी है तो कहीं आत्मकथात्मक शैली है और कहीं फ़्लैश बैक शैली का प्रयोग है। कुछ कहानियाँ में पत्र लेखन और डायरी लेखनी शैली का प्रयोग है। लेखिका एक साथ कई दौर की कहानियाँ कहती हैं। इन कहानियों में अतीत की झलक भी है और वर्तमान की विसंगति भी। कहानियों का कथानक, पात्रों समायोजन सब अत्यंत प्रभावशाली है। इन कहानियों में एक ओर व्यक्ति के मन के संघर्ष और समाज की बेचैनी दिखाई देती हैं तो दूसरी ओर समाज में हो रहे गुणात्मक परिवर्तन का भी वर्णन है।
प्रोफ़ेसर अमिता तिवारी
जीसस एंड मेरी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली
इस विशेषांक में
कविता
- तुम्हारा प्यार आशा बर्मन | कविता
- आकांक्षा आशा बर्मन | कविता
- जागृति आशा बर्मन | कविता
- मेरा सर्वस्व आशा बर्मन | कविता
- नित – नव उदित सफ़र डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- इन्द्रधनुषी लहर डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता का दिल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- नया साल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- बसन्त आया था डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- ये पत्ते डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- एक मुट्ठी संस्कृति डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- जीवंत आसमान की धरती का जादू डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- राह डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- मुस्कान डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- अग्नि के सात फेरे तरुण वासुदेवा | कविता
- माँ और स्वप्न तरुण वासुदेवा | कविता
- ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें निर्मल सिद्धू | कविता
- उम्र के तीन पड़ाव निर्मल सिद्धू | कविता
- वह पूनम कासलीवाल | कविता
- तुम कहाँ खो गए . . . प्राण पूनम कासलीवाल | कविता
- हर बार पूनम कासलीवाल | कविता
- आना-जाना पूनम कासलीवाल | कविता
- पिता हो तुम पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- माँ हिन्दी पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कैकयी तुम कुमाता नहीं हो पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कृष्ण संग खेलें फाग पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कटघरा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- आईना प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- मुलाक़ात प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- पेड़ डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- माँ! मैं तुम सी न हो पाई! डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- चिड़िया का होना ज़रूरी है डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- मूड (Mood) डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- गुरुदेव सीमा बागला | कविता
- मेरी बिटिया, मेरी मुनिया संदीप कुमार सिंह | कविता
- अधूरी रह गई संदीप कुमार सिंह | कविता
- चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो? संदीप कुमार सिंह | कविता
- मैं नदी हूँ सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- लेखनी से संवाद सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- हमारे पूर्वज सीमा बागला | कविता
- मेरा बचपन वाला ननिहाल सीमा बागला | कविता
- धारा ३७० सीमा बागला | कविता
- परिक्रमा सुरजीत | कविता
- तू मिलना ज़रूर सुरजीत | कविता
- प्रवास कृष्णा वर्मा | कविता
- वायरस डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लाईक ए डायमण्ड इन द स्काई डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लिफ़ाफ़ा प्राची चतुर्वेदी रंधावा | कविता
- चार्ली हेब्दो को सलाम करते हुए धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- रोबॉट धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- मेरे टेलीस्कोप में धरती नहीं है धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- निज भाग्य विधाता परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव | कविता
- आ गया बसंत है परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव | कविता
- कुछ कहा मधु भार्गव | कविता
- मेरी माया मधु भार्गव | कविता
- मधु स्मृति स्नेह सिंघवी | कविता
- अश्रु स्नेह सिंघवी | कविता
- निमंत्रण स्नेह सिंघवी | कविता
- मैं हवा हूँ इन्दिरा वर्मा | कविता
- मेरी पहचान इन्दिरा वर्मा | कविता
- चिट्ठियाँ इन्दिरा वर्मा | कविता
- वह कोने वाला मकान इन्दिरा वर्मा | कविता
- एक दिया जलाया इन्दिरा वर्मा | कविता
- आशीर्वाद इन्दिरा वर्मा | कविता
- बंधन कृष्णा वर्मा | कविता
- सोंधी स्मृतियाँ कृष्णा वर्मा | कविता
- स्त्री कृष्णा वर्मा | कविता
- रेत कृष्णा वर्मा | कविता
- ज़िन्दगी का साथ दीप्ति अचला कुमार | कविता
- छोटे–बड़े सुख दीप्ति अचला कुमार | कविता
- सिमटने के दिन दीप्ति अचला कुमार | कविता
- दुविधा दीप्ति अचला कुमार | कविता
- दिशाभ्रम आशा बर्मन | कविता
- मैं और मेरी कविता आशा बर्मन | कविता
- अपेक्षायें आशा बर्मन | कविता
- प्रश्न आशा बर्मन | कविता
- सन्नाटे अम्बिका शर्मा | कविता
- रोज़ सुबह अम्बिका शर्मा | कविता
- इत्मीनान अम्बिका शर्मा | कविता
- मन की आँखें आशा बर्मन | कविता
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- भक्ति, वैराग्य तथा आध्यात्मिक भावों की निश्छल अभिव्यक्ति: ’निर्वेद आशा बर्मन | पुस्तक समीक्षा
- प्रवासी कथाकार शृंखला – शैलजा सक्सेना : समीक्षा प्रो. अमिता तिवारी | पुस्तक समीक्षा
- सम्भावनाओं की धरती: कैनेडा गद्य संकलन डॉ. अरुणा अजितसरिया | पुस्तक समीक्षा
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