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बस प्रेम की अभिलाषा है

बहुत ख़ूबसूरत दिन है, बारिश होकर निपटी है। धरती गीली-गीली दिख रही है, मानों जैसे नहाकर आई हो। मैं कभी खिड़की से बाहर पेड़ों और पक्षियों को देखती हूँ, तो कभी अपने ही ख़्यालों के समुंदर में गोते लगाने लग जाती हूँ। बैठे-बैठे ख़्याल आया कि क्यूँ ना कुछ ख़्यालों को शब्दों में ढाल कर काग़ज़ पे उतारूँ और फिर शुरू कर दिया मैंने यही सिलसिला। 

इसको लिखने में मुझे कोई शब्दावली की पुस्तक नहीं देखनी पढ़ रही है, ना ही कोई उपन्यास पढ़ना पढ़ रहा है, बस मेरे मन में जो विचार आ रहे हैं उनको मैं शब्दों में ढाल रही हूँ। 

लिख रही हूँ और विचार कर रही हूँ एक बहुत अनमोल तत्त्व की, जो इस धरा पर हर जगह है पर शायद काल के साथ, मशीनों और अत्याधुनिक तकनीकों में खो गया है:“प्यार” जी! जिसे हम और कई नाम से भी जानते हैं—प्रेम, स्नेह या 'लव' इत्यादि ये सब उसी प्यार के अनेक नाम है। पर जैसे की अँग्रेज़ी की एक महान लेखक विलिय म शेक्सपीयर ने कहा है“नाम में क्या रखा है!” 

प्यार तो प्यार है, उदाहरणार्थ, भाई-बहिन का प्यार, जिसमें नोंक-झोंक है, पिता-पुत्री का प्यार जिस में एक पिता सदा अपनी पुत्री को राजकुमारी की तरह रखने के प्रयास में तत्पर रहता है, और पुत्री अपने पिता को अपने जीवन का नायक मानती है, माँ-बेटी का प्यार भरा वो रिश्ता जो समय के साथ-साथ एक अटूट मित्रता का अनुभव करवाता है, पति-पत्नी का प्रेम भरा वह रिश्ता, जहाँ हज़ारों विविधता होने के बाद भी वही आदरभाव एक दूसरे के प्रति सजीव रहता है। 

और भी कई रूप है इस“प्रेम“ के, इनके सारे रूपों का अनुभव तो नहीं है मुझे, पर हाँ, दावे से कह सकती हूँ कि इसके बहुत से रूप से सन्मुख हूँ और इनकी क़द्र भी करती हूँ। 

पाठशाला में हिंदी की कक्षा में जब हमारी शिक्षिका हमें कविता पाठ करवाती थीं, तब एक रोज़ प्रेम के विषय पर कविता आई। याद नहीं किस कविश्री ने लिखी थी, पर उस कविता का सार ज़रूर याद है जो कि कुछ इस प्रकार था“प्रेम कण कण में बसा है, मुझमें तुझमें सबमें बसा है।” 
यह प्रेम ही तो है जो हर जगह साथ निभाता है, हाँ! यही प्रेम है जो मीरा को भक्तिभाव में हर क्षण लिप्त रखता था, प्रेम ही तो है जो सेवा भाव बढ़ाता है, प्रेम ने मुझे आपसे एवं हम सबको एक बंधन में जोड़े रखा है, और आवश्यक नहीं है कि उस रिश्ते का नाम हो क्योंकि जिस रिश्ते में प्रेम भाव हो, आदर-सत्कार हो वह नाम का आसरा नहीं माँगता। 

‘प्रेम’-बड़ा अद्भुत, निराला व अद्वितीय है ये और सत्य ही तो है की हर ओर फैला है इसका उजाला, तभी तो जिधर भी जाओ अपने प्रकाश में ये समेट ही लेता है। 

रिश्तों में इसका महत्त्व ही अलग है। जिस प्रकार चाँद को देखकर चकोर प्रसन्न हो उठता है, उसमें जीवन की नयी आशा जाग जाती है, जैसे रसभरी फूल की कली देख, भँवरा हर्षित हो उठता है, उसको निर्मल रस का आनंद लेने की इच्छा जागृत होती है, उसी तरह यह प्रेम रिश्तों में जीवन बनाए रखता है। पर जैसे कि हर नायक का शत्रु होता है, हर सीधे का एक उल्टा भी होता है, उसी प्रकार तकनीक इस प्रेम नायक की शत्रु बन बैठी है। 

स्मरण कर रही हूँ आज से ज़्यादा नहीं बस ८-९ साल पूर्व की बातें, जब मन ना लगता था तो यही मित्र-प्रेम सभी को खुले मैदान में, नीले गगन के नीचे साथ लाकर छोड़ता था। यहीं भाई-बहिनों का प्यार, नानी-दादी के आँगन में कहानियाँ सुनते, आम खाते एवं सितोलिया खेलते पनपता था। पर शायद इस प्रेम ने भी रंग बदल डाला है। शायद ये मनुष्य के मन को भाँप गया है, तभी तो सतरंगी, चुलबुला प्रेम; मशीनों-मोबाइल में धूमिल हो गया है। मनुष्य ने लगता है इस ढाई अक्षर को बहुत भली-भाँति पढ़ लिया है, और अति ज्ञानी बन बैठा है। तभी तो इसको अपनी 'अविष्कारक' प्रकृति के दायरे में संकुचित कर दिया है। 

मैं तो बस इस आशा के साथ अपने विचारों को शब्दों में बदल रही हूँ कि हो सकता है जल्द ही मनुष्य रूपी प्रेम हमारी सभ्यता में वापिस रंग बिखेरे, सारे रिश्ते-नाते बिना किसी राग-द्वेष के सिर्फ़ प्रेम बांटें, सिर्फ़ प्रेम। और हम सब उस प्यार के रंग में रंगे हुए हों इसी प्रेम की आशा में घुले हुए मुझे ख़ुसरो की ये अनूठी पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

“खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार 
 जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।” 

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