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बसन्त आया था

बसंत-ऋतु का जादू भरमाती, 
प्रकृति इतराती, निखारती रूप 
जगत में करती उमंग-बहार का पसेरा। 
चकित हो देखा, अजान मानुस है बेखबर, 
बन मशीनी पुतला, जी रहा है शून्य में, सिफर-सा। 
पूछ बैठी उत्सुकता और तरस से भर–
अरे सुनो! क्या बता पाओगे?
कब देखा था पिछली बार–? 

आमों का बौर, कोयल का कूकते हुए मँडराना, 
उगते और डूबते सूरज की लालिमा से नभ का रंग जाना? 
अरे सुनो! पिछली बार कब महसूस किया था? 
फूलों की ख़ुश्बू चुराकर लाई बयार का स्पर्श। 
ओस-कणों का बड़े नाज़ों से पंखुडियों पर तैरना, 
बिखरे पराग की ताजगी से मन का खिल जाना। 
स्मित-सा देखा प्रकृति ने, फिर पूछा
–जी रहे हो क्या तुम? 

सुन प्रकृति की बात, 
जगत के जीवों में सर्व बुद्धिमान, 
मनुष्यों की भीड़ का सैलाब-मन ही मन मुस्काया, 
कैसी है मूरख, पगली यह, 
किसके पास है समय, इन व्यर्थ बातों का? 
मैं इतना आधुनिक, विकसित, 
चौबीसों घंटे हूँ व्यस्त। 
है कोई मेरे जैसा महान? 
बसन्त ने भी सुना, वह भी मन ही मन मुसकाया, 
सोचा-अभी नहीं है वक़्त पूरा आया, 
क्योंकर इसे जाय समझाया? 
और . . .
और बसन्त चुपचाप चला गया—

उसके जाने के बाद, 
हर साल की तरह 
ग़ौर किया सबने-
कहा–पूछा, एक दूसरे से, 
ओह! बसंत चला गया। 
न जाने कितने बसंत आये और चले गए 
जीवन की संध्या में, जीवन का बसंत 
‘कब आया और कब चला गया,’ 
सोचभर, न बनकर रह जाये। 
यही बताने, हर साल बसंत आता है, 
और . . . चुपचाप चला जाता है! 

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