देहरी
लघुकथा | प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'आज नेहा के ऑफ़िस का वार्षिक उत्सव था। उसने अपने आप को एक बार फिर से आईने में निहारा-गुलाबी बनारसी साड़ी और उसपर सोने मोती का हार व झुमके-वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी! एक संतुष्टि भरी साँस लेकर, बड़े आत्मविश्वास के साथ उसने पर्स उठाया और तेज़ क़दमों से कमरे के बाहर निकली।
देहरी पर पहुँच कर न जाने क्यों उसके क़दम ठिठक गए, 'एक बार औरत के पाँव देहरी के पार गए, तो . . . ’ वो हड़बड़ा कर तेज़ क़दमों से चलकर गाड़ी में बैठ गई, पर सात साल पहले का मंज़र भी उसके साथ हो लिया।
बी.ए. का नतीजा हाथ मेंं लेकर वो मुस्कुराती, गुनगुनाती घर मेंं दाख़िल हुए थी। पिताजी ने गले लगाकर चाव से कहा, “अब होगा मेरी बिट्टो का एमबीए में दाख़िला और फिर किसी बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर . . ., ”और माँ ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, “ना जी, हम तो अच्छा सा लड़का देखकर इसके हाथ पीले करके गंगा नहाने जाएँगे, और वैसे भी, एक बार औरत के पाँव देहरी के पार गए, तो . . .”
कैसी अटलता थी उनके शब्दों में, एक भविष्यवाणी सी, मानो प्रलय का पूर्वाभास, मानो औरत के देहरी पार करने मात्र से ही, या तो सारे संसार का अनिष्ट हो जाएगा, या फिर ख़ुद उसका!
बस इसी मध्यमवर्गीय मानसिकता के चलते, माँ ने झटपट एक रिश्ता ढूँढ़ निकाला। फिर वही हुआ जो, जल्दबाज़ी में किए बेमेंल विवाह में अक़्सर होता है—फ़रमाइशों और तानों के सिलसिले उन्नत होते गए, और उसकी ख़्वाहिशें और निज जीवन स्वाहा होता चला गया। अंत में नौबत यहाँ तक आ गई कि उसकी जान पर बन आई, और विच्छेद की पीड़ा और कलंक लिए वह अपने मायके लौट आई।
माँ ने बहुतेरा सिर पीटा, पर इस बार पिताजी अटल थे। नेहा ने एमबीए की डिग्री हासिल की, और देखते ही देखते, वह एक अच्छी कम्पनी में ऊँचे ओहदे पर नियुक्त हो गई। इसी क़ामयाबी के रहते, उन्होंने आलीशान बँगला भी ले लिया और एक चमचमाती गाड़ी भी, वो भी ड्राइवर के साथ!
अब माँ, बड़ी शान से गाड़ी में बैठकर, रोज़ ही कहीं न जातीं है, कभी ख़रीदारी करने, कभी अपनी सहेली के घर, तो कभी मंदिर-उसी देहरी को पार करके जिसे . . .
काश! माँ तब इतना न घबराई होती, तो शायद आज कहानी . . .!
इस विशेषांक में
कविता
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