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विशाखा

अभी भी हाथ से कुछ नहीं फिसला! ज्यों का त्यों सब धरा है तेरी हथेली पे। 

"ज़िद से नहीं बिटिया विवेक से काम ले, ज़िद से तो पछतावे ही हाथ आते हैं। समझ क्यों नहीं रही ऐसा निर्णय लेने का मतलब है जान-बूझकर ख़ुद को अँधेरों में ढकेलना। अपना नहीं तो इसका ही सोच ले। होते-सोते क्यों इसे पिता के प्यार से वंचित करना चाहती है। कहीं तेरी अक़्ल कोमा में तो नहीं चली गई? बोलती क्यों नहीं? ना बोलने की क़सम खाई है क्या? मेरा फ़र्ज़ था समझाना, समझ में आई हो तो ठीक वरना जो जी में आए कर!" 

ना हूँ, ना हाँ, बस बुत बनी बैठी मैं सुनती रही थी माँ की बातें। कितना रोई थी माँ उस दिन। भाभी ने भी कितना समझाया था—जल्दबाज़ी ना करो विशाखा, समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। कुछ समय तो दो रिश्ते को पकने का। एक बार तीर कमान से निकल गया तो वापस नहीं आएगा। क्यों अपने हरे-भरे जीवन को स्वयं ही पतझड़ बनाने में लगी हो। सच में एक बार भी ना सोचा था इन बातों को मैंने। एक ही बात पर सूई अटकी थी मेरी, मैं अब रितेश के साथ नहीं रह सकती। लेकिन क्यूँ, क्या ग़लती थी उसकी? यही कि वह मेरी इच्छानुसार समय नहीं दे सकता था या यह कि वह अपने पिता एवं भाई के साथ मिलकर व्यापार को ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था। यूँ तो कितना चाहता था मुझे, मेरी छोटी-से छोटी इच्छा का भी ध्यान रखता था। कितना प्यार मिलता था अनन्या को उसके पिता, दादा-दादी और चाचा-चाची से। सब कैसे प्यार से मिल-जुल कर रहते थे। फिर मैं क्यों रितेश और अनन्या के साथ अलग रहना चाहती थी। केवल इसलिए कि अपनी मन मर्ज़ी से जी सकूँ? माँ और भाभी की बातों पर ज़रा सा भी ग़ौर किया होता तो शायद आज यह सब ना होता। अनन्या को लेकर कुछ दिन माँ के पास रहने क्या आई इतना बड़ा फ़ैसला कर बैठी। यही नहीं तलाक़ के काग़ज़ तक भेज दिए। कितना वज्रपात किया मैंने रितेश और उसके परिवार पर जिनका कोई दोष भी नहीं था। रितेश ने तो तलाक़ के काग़ज़ों पर हस्ताक्षर भी नहीं कर के भेजे थे। मुझे कितना समझाने की कोशिश की थी उसने फ़ोन पर। विशाखा एक बार आ जाओ बैठ कर बात तो कर लो, देखना सब ठीक हो जाएगा। मगर मेरी तो ऐसी सूई अटकी कि मैं कुछ मानने को तैयार ही न हुई। आख़िर मेरी ज़िद के आगे उसे झुकना पड़ा। कुछ ही समय में हमारा रिश्ता बेनाम हो गया। 

मैं अपनी माँ के साथ भाई-भाभी के घर रहने लगी। भविष्य को मज़बूत करने के लिए एम.बी.ए. कर लिया और जल्दी ही मुझे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई। भाई के दोनों बेटों के साथ खाती खेलती अनन्या बड़ी होने लगी। यूँ ही समय गुज़रता गया। और देखते-देखते उसकी स्कूल जाने की उम्र हो गई। भाई के बेटे भी बड़ी कक्षाओं में आ गए थे। अब उन्हें भी पढ़ने के लिए कमरा चाहिए था। घर इतना बड़ा नहीं था कि सबको अपना-अपना अलग कमरा मिल सकता। भाई-भाभी ने तो मुझे कभी इस बात का कोई इशारा तक नहीं दिया था। मुझे ख़ुद से ही महसूस हुआ कि अब मुझे अपना अलग घर ले लेना चाहिए। कुछ ही समय में मैंने अलग घर ले लिया। यूँ तो माँ मुझसे बहुत नाराज़ थी मगर अनन्या की देख-भाल के लिए उसे मेरे साथ ही रहना पड़ा। समय के साथ-साथ बहुत कुछ सामान्य होता जा रहा था। इसी बीच मेरा सबसे बड़ा भाई जो भारत में रहता है उसकी बेटी की शादी तय हो गई। माँ को तो जाना ही था। मेरा जाना मेरी छुट्टी पर निर्भर करता था। बड़ी भाभी यही चाहती थी कि माँ जल्दी आ जाए क्योंकि घर में पहली शादी थी लेन-देन और सारे रस्मों-रिवाज़ तो माँ ही बताएगी। इसलिए माँ अनन्या को लेकर भारत चली गई। 

मैं एकदम अकेली हो गई। यूँ भी आस-पड़ोस तो सब अपने में ही व्यस्त रहते हैं। वैसे भी घर के एक बाजू चीनी परिवार रहता था। उनके बच्चे अमरीका में रहते थे और दम्पति को अँग्रेज़ी आती नहीं तो बातचीत का सवाल ही नहीं उठता था। दूसरी बाजू परिवार जैसा तो कुछ दिखता नहीं था हाँ एक अकेला व्यक्ति जो दिखने में जवान, आकर्षक, लम्बा-ऊँचा क़द और भारतीय मूल का सा दिखता था। यूँ तो बातचीत कभी नहीं हुई थी लेकिन कभी-कभी आते-जाते सामना हो जाए तो मशीनी मुस्कान से काम चल जाता था। एक दिन मैं जॉब से वापस आई तो वह बाहर बग़ीचे में पौधों की गुड़ाई कर रहा था मुझे देख कर मुस्काया, उठ कर अपना परिचय दिया, "मेरा नाम कबीर है।" मैंने भी कहा, "मैं विशाखा।" फिर पौधों के विषय में बात करने लगा कि पिछले कई दिन से समय ही नहीं मिला सो मुरझाने से लगे हैं। बातों-बातों में मैंने भी बताया कि कुछ दिन के लिए मुझे भारत जाना है और यही चिन्ता है कि पौधों की देख-भाल कौन करेगा माँ ने बड़े प्यार से लगाए हैं। सुनते ही बोला, "आप निश्चिंत हो कर जाएँ पानी मैं दे दूँगा। पड़ोसियों को एक दूसरे के इतना काम तो आना ही चाहिए।" उसकी बात सुनकर मैंने उसका धन्यवाद किया और पता नहीं क्यों मन ही मन उसका नाम अपनी गुड बुक में लिख लिया। 

अगले सप्ताह ही मैं शादी में शामिल होने भारत चली गई। कुछ दिन बाद मैं माँ और अनन्या के साथ आस्ट्रेलिया वापस आ गई। माँ ने कहा इतने दिन पड़ोसी ने मदद की है और हम शादी करके आए हैं कुछ भेंट दे कर उसका धन्यवाद तो कर आएँ। दो-तीन दिन बाद हम तीनों उसे धन्यवाद देने चले गए। भेंट स्वीकारने के लिए कबीर पहले तो हिचकिचाया मगर माँ के ज़ोर देने पर रख ली। अनन्या को गोद में उठाकर उससे बड़े प्यार से बातें करता रहा फिर उसे चॉकलेट भी दी। अनन्या के मुख की मुस्कान से मुझे लगा कि उसे कबीर से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई है। बच्चों के साथ बोलने का उसका अभ्यास देख कर मुझे लगा कि शायद वह शादी-शुदा है, फिर सोचा हो सकता है कुँवारा हो और यह उसका स्वाभाविक गुण हो। ख़ैर! हम वापस आ गए। अब कभी-कभी वह अनन्या से मिलने घर आने लगा। माँ भी उससे बातचीत करने लगी थी। अनजाने ही धीरे-धीरे मैं उसकी ओर आकर्षित होती जा रही थी। लेकिन यह कभी ना भाँप पाई कि उसके मन में भी कुछ चल रहा है या नहीं। उसके हाव-भाव से तो मैं कभी कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकी। 

एक दिन बैठे-बैठे मेरे मन में विचार आया कि कब तक यूँ ही अकेली रह सकूँगी। यदि किसी को तलाशना ही पड़ा तो यही क्या बुरा है। अच्छा भला स्वभाव है। अनन्या को भी कितना चाहता है। देखने में भी आकर्षक है और सबसे बड़ी बात अकेला रहता है जैसा कि मुझे पसंद है। उसकी अभी तक की बातों से तो इतना ही जान पाई थी कि उसका नाम कबीर है। दो साल हुए हैं उसे आस्ट्रेलिया आए और उसके पास अभी बहुत अच्छी नौकरी नहीं है। क्या हुआ जो उसके पास अच्छी नौकरी नहीं है, मेरे पास तो है ना। धीरे-धीरे उसे भी मिल ही जाएगी तब तक मिल-बाँट कर काम चल जाएगा। मैं मन ही मन ख़्याली पुलाव पकाती रही। समय गुज़रता गया जितना ख़ुद को उसके बारे में सोचने से रोकती उतना ही अधिक सोचती। अक़्सर वह हमसे मिलने आने लगा। उसकी बातें और भी प्रभावित करने लगीं। बिना कुछ अधिक जाने ही मैंने उसे मन ही मन अपना मान लिया और उससे शादी का फ़ैसला भी कर लिया। एक दिन पोस्टमैन शायद ग़लती से कबीर का पत्र हमारे लैटरबॉक्स में डाल गया। पत्र पर लिखा पता पढ़कर समझते देर न लगी कि कबीर पाकिस्तान से है और मुसलमान है। 

नाम को लेके तो मैंने कभी कुछ सोचा ही नहीं और न ही इस बारे में कभी जानने की कोशिश ही की। मैंने अनन्या के हाथ लिफ़ाफ़ा तो कबीर को भिजवा दिया। लेकिन कुछ देर के लिए दिल को धक्का ज़रूर लगा। मगर थोड़ी देर बाद मैं ख़ुद ही अपने मन को समझाने लगी। मुसलमान है तो क्या हुआ, इंसान अच्छा होना चाहिए। ज़ात-पात से क्या लेना, यह तो सब हमारी अपनी बनाई बातें हैं। इतना सब जानने के बाद भी मैं उसे मिलने से कभी ख़ुद को रोक न पाई। प्रेम का ताप बढ़ता गया और धीरे-धीरे प्रेम परवान चढ़ने लगा। माँ को इस बात की ज़रा भी भनक ना लगने पाई। मुझे केवल एक ही चिन्ता खा रही थी कि माँ को कैसे कहूँ, क्योंकि वह तो इस रिश्ते के लिए कभी राज़ी नहीं होगी। बहुत समय तक मैं इसी उधेड़-बुन में उलझी रही। एक दिन मन को कड़ा करके मैंने माँ को अपना फ़ैसला सुना दिया। 

माँ अचम्भित सी मेरा मुँह ताकती रह गई। यह क्या कह रही है? होश में तो है तू? क्या हो गया है तेरी मति को? अभी पहली बेवकूफ़ी से उभरी नहीं है और फिर उसी आग में दोबारा झुलसना चाहती है। विजातीय विवाह वह भी अपने धर्म के बाहर। कुछ तो सोच-विचार। क्या जीवन देगी तू अपनी बेटी को? उसके पिता का साया तो पहले ही छीन लिया तूने और यदि उसकी कमी पूरी करनी ही चाही तो वह भी इस तरह। क्या मुँह रह जाएगा हमारा समाज में? क्यों मुझे जीते जी मार देना चाहती है? माँ दुख से आतुर बिलखती रही मगर मैं टस से मस नहीं हुई। इस बार भी मेरे सामने माँ को ही हार माननी पड़ी। कुछ ही समय में मैंने कबीर से विवाह कर लिया। यूँ तो अनन्या को कबीर दोस्त के रूप में बहुत अच्छा लगता था मगर पिता के रूप में वह भी स्वीकार ना पाई। क्यूँकि वह अक़्सर माँ से अपने पिता के विषय में बातें जो करती रहती थी। अब इतनी भी नासमझ नहीं थी बड़ी हो गई थी अनन्या। वह भी अब कबीर के साथ पहले जैसी ना रही। माँ भी भाई के घर वापस चली गई थी। यूँ तो कबीर के साथ मैं ख़ुश थी लेकिन मुझे अनन्या की चिंता खाए जा रही थी। मुझे लगा धीरे-धीरे कबीर के साथ अनन्या का लगाव हो जाएगा, मगर ऐसा हुआ नहीं। यह परेशानी मुझे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी। जबकि मेरी छोटी बहन भी मेरे फ़ैसले को लेकर भी मुझसे बेहद नाराज़ थी लेकिन मुझे यूँ परेशान देखकर उसने अनन्या को अपनी बेटी बनाकर रखने का फ़ैसला कर लिया तब कहीं जाकर मुझे थोड़ा सुकून मिला। 

समय पंख लगा कर उड़ता रहा देखते-देखते मैं तीन और बेटियों की माँ बन गई। अब बच्चों की देख-भाल कौन करे, माँ भाई तो पहले से ही नाराज़ थे। यह सब देखते हुए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी। घर का ख़र्च तो बढ़ ही गया था अब करें तो क्या। तंगी देखते हुए कबीर ने मुझे सलाह दी कि हम कोई अपना काम ही क्यों नहीं कर लेते। क्यों ना गैस-स्टेशन ही ले लें अच्छी-ख़ासी कमाई भी हो जाएगी और बच्चों को अच्छा जीवन भी दे सकेंगे। मुझे भी उसका यह सुझाव अच्छा लगा। मैंने बैंक से कुछ लोन लिया तथा अपनी सरी जमा-पूँजी निकाल कर एक गैस-स्टेशन का सौदा कर लिया। मेहनत तो बहुत करनी पड़ी मगर अच्छी कमाई होने लगी। तीनों बेटियों को स्कूल भेज कर मैं भी काम में कबीर का हाथ बँटाने लगी। कुल मिला कर जीवन अच्छा चल रहा था। एक रात कबीर घर नहीं लौटा मैं इंतज़ार करती-करती सो गई। सुबह उठी तो उसे ना पाकर मैं परेशान हो गई फिर सोचा शायद आज किसी काम से जल्दी जाना होगा। फ़ोन किया तो उसका फ़ोन बंद था। मैं कुछ भी समझ ना पाई। पूरा दिन भी बीता रात भी बीत गई कबीर ने भी कोई फ़ोन नहीं किया। मुझे बहुत घबराहट होने लगी, मैंने उसके सभी मिलने वालों को भी फ़ोन करके पूछ लिया मगर कोई सुराग़ न मिला। दूसरे दिन शाम को उसका फ़ोन आया, "माफ़ करना विशाखा, माँ की हालत बहुत नाज़ुक हो गई थी घर से फ़ोन आते ही मैंने टिकिट ख़रीदी हवाई जहाज़ छूटने में समय बहुत कम था घबराहट में तुम्हें फ़ोन नहीं कर पाया। तुम गैस-स्टेशन की फ़िकर मत करना मैं किसी दोस्त को कुछ दिन के लिए सौंप आया हूँ।" यह सुन कर मैं आग बबूला हो गई। ग़ुस्से में बहुत बुरा-भला भी कहा मगर कबीर ने किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फ़ोन रख दिया और चुपचाप उसके लौटने का इंतज़ार करती रही। हफ़्तों पर हफ़्ते बीत गए उसकी कोई ख़बर नहीं थी। 

एक दिन मेरी बहुत क़रीबी सहेली मीता मुझसे मिलने चली आई। आते ही बोली, "अरे तुम ने गैस-स्टेशन क्यों बेच दिया, अच्छा भला तो चल रहा था। मैं उसकी बात सुन हैरान सी उसका मुँह ताकती रह गई, "यह क्या कह रही है तू, गैस-स्टेशन बेच दिया। नहीं! वह तो कबीर को अचानक पाकिस्तान जाना पड़ गया उसकी माँ जो बीमार थी। इसलिए वह अपने दोस्त को कुछ दिन के लिए काम सौंप कर गया है। यह कैसे हो सकता है।"

"मैं तो उसी तरफ़ से आ रही हूँ। गाड़ी में गैस कम थी मैंने सोचा गैस भी भरवा लूँगी और तुझ से भी मिल लूँगी। जैसे ही अंदर गई वहाँ तो कोई और बैठा था। तुम लोगों के बारे में पूछा तो पता चला कि तुम लोगों ने यह बिज़नेस उसे बेच दिया है।"

मीता की बात सुन कर तो जैसे मेरे होश ही उड़ गए, ज़ुबान मानो तालू से ही चिपक कर रह गई हो। धीरे-धीरे मुझे सब समझ में आने लगा। कबीर का नौकरी छोड़ कर गैस स्टेशन ख़रीदने का सुझाव। बिज़नेस के बहाने मेरी सारी जमा पूँजी निकलवाना। बिना बताए माँ की बीमारी का बहाना बना कर पाकिस्तान जाना। पहले तो यह सब सोच कर वह वहीं जड़ सी हो कर बैठ गई। मीता ने समझाया यह समय रोने का नहीं है विशाखा, जा जाकर पूछ-ताछ कर और कबीर पर धोखा-धड़ी का केस डाल और ख़ुद भी उसकी ख़बर निकाल। यह सब सुनकर मुझ में एक नया साहस आ गया। मैं दुख को झाड़ कर खड़ी हो गई। अपने बहते आँसू पोंछे और शायद बाक़ी के आँसू बदले की भावना में परिवर्तित हो गए। सबसे पहले वक़ील से मिलकर कबीर पर धोखा-धड़ी का केस डाला। लौट कर जल्दी से अपनी डायरी निकाली उसके पन्ने उलटने-पलटने शुरू किए और कबीर का पाकिस्तान का पता ढूँढ़ा। दो हवाई टिकिट बुक करवाईं, दोनों बड़ी बेटियों को मीता के घर छोड़ कर सीधा पाकिस्तान पहुँच गई। 

मेरा वहाँ जाना कोई जोखिम से कम नहीं था। इसलिए मैंने स्वयं को पूरे मुस्लिम लिबास में लपेट लिया था। पूछते-पुछाते किसी तरह मैं कबीर के मुहल्ले में पहुँच गई। मैं मन ही मन शुक्र मना रही थी कि कभी मैंने उसके पासपोर्ट से उसका पता देख कर लिख के रख लिया था वरना आज मैं आस्ट्रेलिया में ही बिलख रही होती। सबसे पहले मैंने कबीर की पड़ोसिन से उसकी पूछ-ताछ की। तो पता चला कि वह एक महीने पहले अपनी बहन की शादी करने आया था। अब उसे दुबई में नौकरी मिल गई है सो कुछ दिन पहले वह वहाँ चला गया है। हमें तो उसके बेटे से यही पता चला है। मैं चिल्लाई, "उसका बेटा . . ."

"हाँ, उसका एक बेटा और दो बेटियाँ भी हैं।"

उस पल तो मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैरों के नीचे से किसी ने ज़मीन खिसका दी हो। किसी से कुछ कहे बिना झल्लाई सी मैं वहाँ से चल दी और सीधा कबीर के घर पहुँच कर दरवाज़ा खटकाया। एक लड़के ने दरवाज़ा खोला। छूटते ही मैं बोली, "तुम्हारी दादी से मिलना है।"

बच्चे ने दादी को आवाज़ लगाई, "अम्मा आपसे कोई मिलने आया है।"

जैसे ही कबीर की माँ बाहर आई मैंने कबीर के विषय में पूछा। उसकी माँ से भी वही सब पता चला जो पड़ोसिन से पता चला था। उसने मुझ से पूछा कि तुम्हें उससे कोई काम है क्या?

"हाँ!!! आप बस इतना बता दें कि कब तक वापस आने का कह गया है?"

"यही कोई दो महीने तक।"

तुरंत मैंने अपनी बेटी का हाथ उस औरत के हाथ में दे कर कहा, "यह आपकी सबसे छोटी पोती है। कबीर की बेटी। दो और भी हैं इससे बड़ी। मेरा नाम विशाखा है। मैं कबीर की पत्नी हूँ, आस्ट्रेलिया में रहती हूँ। सात साल पहले कबीर ने मुझसे शादी की थी। वह बिना बताए पाकिस्तान भाग आया है। उसने कभी अपनी पहली पत्नी और बच्चों के बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया। उसकी बेटी को आपके घर छोड़े जा रही हूँ, उसे बता देना। और यदि वह आस्ट्रेलिया वापस ना आया तो उन दोनों को भी यहीं छोड़ जाऊँगी," कह कर मैं अपनी रोती-चिल्लाती बच्ची का हाथ अपने हाथ से छुड़ा कर दरवाज़े से बाहर आ गई। मैंने एक बार भी मुड़ कर अपनी फूल-सी बच्ची को ना देखा। मैं स्वयं को किसी भी तरह कमज़ोर नहीं करना चाहती थी और अपने दर्द को भीतर ही पी गई। बदले की आग में सुलगती मैं वापस आस्ट्रेलिया आ गई। 

इंतज़ार करते-करते थक गई थी मैं लेकिन कबीर की कोई ख़बर नहीं। इस बीच क्या कुछ नहीं सहा मैंने। लोगों की नज़रों का कैसे मैंने सामना किया बस मैं ही जानती हूँ। हर पल बच्चों के भविष्य की चिंता में घुलती रही। ना नौकरी ही रही ना जमा-पूँजी ही, करूँ तो क्या, कुछ समझ नहीं पा रही थी। माँ और भाई से तो पहले से उम्मीद नहीं थी। बस अपनी कुछ सहेलियों से सलाह लेती भटकती रही। आख़िर एक स्टोर में आधे दिन की नौकरी मिल गई। जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे चलनी शुरू हो गई। करती भी क्या पूरे दिन की नौकरी करती तो बच्चों को डे-केयर में भेजना पड़ता वहाँ भी तो ख़ासा पैसा देना पड़ता है। वैसे भी एक बार नौकरी चली जाए तो आसान कहाँ होती है मिलनी। दिन-रात स्वयं को कोसती रोती रहती कि क्यों अपने दिल के टुकड़े को छोड़ आई कबीर के घर। जब भी खाने बैठती कौर निगल ना पाती, अपनी नन्ही सी बेटी को याद करके बहुत सुबकती, हाय कौन खिलाता होगा उसे, कैसे सोती होगी मेरे बिना। उसकी उम्र के बच्चों को पार्क में खेलते देखकर मेरा कलेजा मुँह को आता था। पश्चाताप के आँसू जब-तब बह जाते थे। आख़िर छह महीने बाद एक फ़ोन आया वह भी कबीर के मित्र का जो आस्ट्रेलिया में ही रहता था। उससे पता चला कि आजकल कबीर यहीं आया हुआ है और पिछले कुछ दिनों से किसी स्टोर में काम कर रहा है। यह सुन कर मेरे तन-बदन में आग लग गई। मैंने तुरन्त पुलिस को ख़बर कर दी। पुलिस ने उसे ढूँढ़ निकाला और कोर्ट में पेश किया। सज़ा के तौर पर उसे बच्चों और पत्नी का मासिक भत्ता देने का आदेश दिया गया और आस्ट्रेलिया छोड़ कर कभी किसी दूसरे देश ना जा सकने का हुकुम सुनाया। मरता क्या ना करता। काम धंधा कुछ था नहीं पत्नी और बच्चों को कहाँ से पैसा देता। परिस्थितियों को देखते हुए उसने फिर से हमारे साथ रहना मंज़ूर कर लिया। उसे मजबूरन आना ही पड़ा। 

मैं तो पहले ही ग़ुस्से से बौखलाई बैठी थी। आते ही उस पर बरस पड़ी। इतना बड़ा धोखा। इतना विश्वासघात। मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगी। तुमने क्या सोचा था औरत इतनी कमज़ोर है। जैसे चाहो शोषण कर लोगे। शायद तुम औरत का दूसरा रूप नहीं जानते। अपनी ज़िद पर आ जाए तो सर्वनाश कर सकती है तुम जैसे मर्दों का। मैं ग़ुस्से में सूखे पत्ते की तरह फड़फड़ा रही थी। कबीर गिड़गिड़ाने के सिवाए कर भी क्या सकता था। तुमने कैसे सोच लिया कि मेरा पैसा हड़प कर बच्चों को यूँ छोड़ कर भाग जाओगे और मैं तुम्हें जाने दूँगी। कुछ दिन बाद कबीर की माँ ख़ुद मेरी बेटी को छोड़ने आई और बहुत शर्मिंदा भी थी। इतना ही नहीं कबीर से उसकी पहली पत्नी को तलाक़ भी दिलवाया। 

कबीर पर हमेशा के लिए अपना भरोसा खोकर अपने बच्चों के लिए मैं उनके पिता को लौटा लाई। 

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