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अक्षयवट : इलाहाबाद के भीतर एक और इलाहाबाद की तलाश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशित वर्ष    : 2003
पृष्ठ : 500 
मूल्य: 280/रु.
मुखपृष्ठ : सजिल्द

अगर यह पूछा जो कि किसी शहर को कितने कोणों से देखा जा सकता है तो शायद लोग यही कहें कि उसके इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी सड़क, पार्क, बिल्डिंगें, मनोरंजन स्थल, पार्किंग सुविधाओं वगैरह यानी उसके आर्किटेक्ट और प्लानिंग, बिजली पानी स्वास्थ्य, संचार आदि सुविधाओं की मात्रात्मक और गुणात्मक स्थिति के आधार पर देखा-सुना जा सकता है। हाँ, उस शहर को समझने के लिए वहाँ की सामाजिक राजनैतिक एवं आर्थिक बुनावट को समझना कहीं अधिक आवश्यक होगा। वहाँ के इतिहास, संस्कृति और परंपराओं को समझना भी ज़रूरी है तभी हम उसका कुछ ठीक-ठाक मूल्यांकन कर सकेंगे। वैसे तो शहर का प्रत्येक नागरिक अपने ही ढंग से उसे समझता-बूझता है और उसके बारे में अपनी राय बनाता एवं प्रकट करता है। परंतु कुछ सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत बातें होती हैं जिन्हें अधिकांश जन स्वीकारते हैं और दूसरों के सामने उन्हें बताते भी हैं। अब जैसे इलाहबाद शहर को ही लें तो ग़ैर-इलाहबादियों के लिए यह मुख्यत: और मूलत: एक धार्मिक नगर है जिसमें गंगा, जमुना और सरस्वती नामक तीन नदियों का पावन संगम है। यह तीर्थराज प्रयाग के नाम से जाना जाता है। इलाहबाद के अमरूद भी प्रसिद्ध हैं, विश्वविद्यालय भी। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की जन्मस्थली भी है इलाहबाद और बाबुओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों का शहर भी है। साहित्य का तो एक बड़ा महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है इलाहबाद। इलाहबाद के विविध रूप हैं और नाना रंग, जिन्हें जानना-समझना उतना सरल भी नहीं है। चलिए, इस शहर के एक ख़ास रूप और उसके तरह-तरह के रंगों से नासिरा शर्मा के उपन्यास ’अक्षयवट’ के माध्यम से परिचित हुआ जाए।

अक्षयवट की कहानी शहर की उत्सवप्रियता, रीति-रिवाज और तहज़ीब के विवरणों से शुरू होती है। हर मौसम के तमाम तीज त्योहार, उन्हें मनाने के इलाहबादी तौर-तरीके, मौज-मस्ती और लोगों का गहरा इन्वाल्वमेंट व उस पर उनकी गंभीर प्रतिक्रियाएँ, बहुत अधिक डिटेल्स के साथ यहाँ मौजूद हैं। इसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब के लोकतत्त्व, क़स्बाई ’हीरो-शिप’ और लोगों के विश्वास व आस्थाओं का वर्णन विस्तार से किया गया है, जो यहाँ सहज भी लगता है और स्वाभाविक भी। पर मुश्किल यह है कि किसी बाहरी व्यक्ति को वह उतने आनंद, उत्सुकता, अपनत्व और कौतुक का अहसास नहीं करा पाता जितना कि उस परिवेश में सहज पले बढ़े और जिए व्यक्ति को हो सकता है। ध्यातव्य है कि रेणु के उपन्यासों में लोक जीवन, लोक संस्कृति और उससे सृजित आनंद तथा अनुभूत सौंदर्य का रस, उनके वर्णन का प्रभाव द्विगुणित कर देता है। वहाँ सांस्कृतिक समृद्धि अपने चरम पर अभिव्यक्त एवं आभासित होती है। यहाँ सारे वार-त्योहार हैं जैसे दशहरा, रामलीला, दुर्गा उत्सव, ईद और मोहर्रम पर शहर का शहरीपन और प्रशासन उन पर प्रत्यक्षत: एवं परोक्षत: सदैव हावी है। शायद शहरों व क़स्बों की सांस्कृतिक दरिद्रता को लोगों के सामने प्रस्तुत करना भी एक अभीष्ट रहा हो नासिरा जी का। बहरहाल इन सबका विस्तृत लेखा-जोखा स्वाभाविक होते हुए भी उतना प्रभावी नहीं बन सका है कि पढ़ते वक़्त मन पर स्थाई रूप से अंकित हो सके। ग़ौरतलब है कि कमलेश्वर का उपन्यास ’एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ में रामलीला की तैयारी और रामलीला का परिदृष्य इस कदर जीवंत हो उठता है कि कम से कम कुछ दिनों तक मन को गुदगुदाता रहता है। लेकिन यहाँ उपन्यास का मुख्य उद्देश्य भी यह नहीं है कि आप तीज-त्योहारों और उनके आनंद रस में सराबोर होकर रह जाएँ। यह महज़ एक प्रस्तावना भर है जो इसकी असली कहानी के खादपानी के लिए उपयोग की गई है। ’अक्षयवट’ का बीज इस खादपानी से अपने भावी जीवन की ऊर्जा प्राप्त करता है।

असल में इलाहबाद के अकबरपुर मुहल्ले में रहने वाले जहीर की कहानी इस उपन्यास की मूल कथा है। जैसा कि हिंदुस्तान के हर क़स्बाई नागरिक का पूर्वज गाँव से होता है वैसे ही अकबरपुर मुहल्ले के जहीर के परदादा सगीर अहमद पास के ही किसी गाँव में रहकर डाक्टरी करते थे। अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ बात करने की एवज में उन्हें जान से हाथ धोना पड़ा। तब उनकी बेवा फिरदौस बेगम इलाहबाद आ गईं और वहाँ डाक्टर सगीर अहमद द्वारा खरीदी हुई ज़मीन पर मकान बना कर रहने लगीं। सगीर अहमद के बेटे मजीद अहमद वतन की मोहब्बत में सूली पर चढ़ा दिए गए। उनकी बीबी मेहरुन्निसा ने भी बड़ी हिम्मत से इस हादसे को सह लिया और बेटे शमीम अहमद को अलीगढ़ में तालीम दिलाई। शमीम अहमद तहसीलदार बने, उनका फ़िरोज़जहां से निक़ाह हुआ, पर मर्दों की मौत का सिलसिला इस खानदान में चलता ही रहा। शमीम अहमद को भी लोगों ने ज़्यादा दिन तक ज़िंदा नहीं रहने दिया। उनके बेटे नसीम का जल्दी ही ब्याह हो गया और अलीगढ़ से सिपतुन ब्याह कर इलाहबाद आ गई। कुछ ही दिनों के बाद हिंदी और गोहत्या को लेकर सांप्रदायिक दंगे में नसीम भी ख़ुदा को प्यारे हो गए। इस खानदान के इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाए? यह बहुत अजीब क़िस्सा नहीं है, कभी-कभी ऐसा दुर्योग होता है किसी वंश में। तो इसी वंश का चराग है जहीर, नसीम और सिपतुन का बेटा और दादी फ़िरोज़जहां का पोता। दरअसल इस उपन्यास में सर्वाधिक मजेदार और जीवंत चरित्र हैं फ़िरोज़जहां और सिपतुन। यूँ फ़िरोज़जहां ने ज़माने के साथ जीना, उठना बैठना और चलना फिरना सीखा था। यह अलग बात है कि उनके संघर्ष की गाथा के साथ उनके हुनर की क़द्र नहीं हो पा रही थी। यद्यपि एक स्कूल में इंगलिश और हिस्ट्री पढ़ाने के बाद भी वह आगे चलने वाले संघर्ष को कम नहीं कर सकीं पर फिर भी समझदारी के साथ ज़माने के दाँव पेंच तो वे समझ ही सकती थीं और जहीर के भविष्य के लिए एक ख़ाका तैयार कर सकती थीं। वहीं सिपतुन का परिवेश और उसका हुनर सिपतुन को एक ऐसा मध्यमवर्गीय चरित्र बख्शते हैं जो अपनी मिहनत और अपनी मान्यताओं को जीवनपर्यंत चमकाता रहता है। सिपतुन की ख़ामोशी, सपाट जीवनशैली, सोच और संघर्ष एक सरल, सहज भारतीय जीवन और मिजाज के स्वाभाविक सहचर दिखते हैं। जहीर की माँ सिपतुन और फ़िरोज़जहां की बहू सिपतुन में एक अजीब ही उदास, सांसारिक नि:स्पृहता भरी लय है जो उसके चरित्र को प्रेमचंदयुगीन नारी चरित्रों के समकक्ष खड़ा कर देती है। यह सिर्फ काल के हिसाब से नहीं बल्कि व्यवहार और संस्कारों के स्तर से भी आभासित होता है। सिपतुन की यही निस्पृहता और सरलरेखीय सकर्मकता पाठकों के मन पर एक गहरी छाप छोड़ती है।

अक्षयवट एक ऐसे खानदान की कहानी है जिसके पुरुषों ने लगातार चार पीढ़ियों तक अल्पायु में ही अपना जीवन मानवीय आदर्शों के लिए बलिदान कर दिया। उस खानदान में महिलाओं का वैधव्य, वर्तमान तथा भविष्य के लिए उनका संघर्ष, त्याग और एक कभी न ख़त्म होने वाली उम्मीद, जहाँ उनके चरित्रों को सतत आशंका के साथ, एक अटूट दृढ़ता प्रदान करती है वहीं उनमें संघर्ष पूर्ण गरिमा भी स्पष्ट लक्षित होती है। नासिरा शर्मा, इन चरित्रों की औपन्यासिक प्रस्तुति में बहुत सफल रहीं हैं ऐसा कहा जा सकता है। जहीर इस उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है। उसका असली किरदार जो उसके जीवन को अनन्तर एक सर्वथा नया आयाम देता है, ऐसी तोहमत से शुरू होता है जिसके लिए स्वयं वह नहीं, बल्कि तात्कालिक परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार होती हैं। बी.ए. सेकंड ईयर के आख़िरी पर्चे के दिन पीछे वाले परीक्षार्थी द्वारा गिरा दिए गए पुर्जे के कारण, नक़ल का इल्ज़ाम उस पर मढ़ दिया जाता है। यहाँ इस घटना के वर्णन में थोड़ी नाटकीयता है। एक प्रोफेसर उस पर ज़बरदस्ती नक़ल का इल्ज़ाम लगाता है, दूसरे दो प्रोफेसर बावजूद अपनी असहमति के उस इल्ज़ाम को मान जाते हैं और उस प्रोफेसर के ग़लत निर्णय का विरोध नहीं करते। वे यह भलीभाँति समझ रहे थे कि जहीर पर झूठा इल्ज़ाम लगाया गया है क्योंकि वह एजूकेशन के पेपर की परीक्षा दे रहा था जबकि उसकी टेबल के पास पाया गया पुर्जा अर्थशास्त्र का था, जो उसके पीछे वाले परीक्षार्थी का विषय था। यूँ ऐसा हो तो सकता है पर उतनी सहजता के साथ नहीं जैसा कि उपन्यास में दिखाया गया है। यह इलाहबाद विश्वविद्यालय के चेतना संपन्न प्रोफेसरों के गिरते हुए स्तर का गरिमाहीन चित्रण है। इससे पहले विश्वविद्यालय में शिक्षा की दुर्गति, शिक्षा सत्र का समय से शुरू न होना, विद्यार्थियों का एक पूरा वर्ष बरबाद होना, विश्वविद्यालय प्रशासन की अयोग्यता, राजनीति और गुण्डागर्दी के सामने उनका घुटने टेकना, छात्रों एवं अभिभावकों की चिन्ताएँ व वैचारिक राजनीतिक सक्रियता आदि विषयों पर बात की गई है जो ठीक भी है, तब इस मामले को यूँ ही कैसे छोड़ दिया गया? क्या उपन्यास की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए? यह कुछ अविश्वसनीय सा लगता है। बहरहाल इस हादसे के बाद जहीर की ज़िंदगी में एक ज़बरदस्त बदलाव आता है। जहीर दो वर्षों के लिए परीक्षा में बैठने से रोक दिया जाता ै निराशा, असफलता और उद्देश्यहीनता जहीर को अंतर्मुखी और चिड़चिड़ा बना देती है। उसका अकेलापन उसे बर्फ बेचने वाले एक सीधे-साधे लड़के मुरली के क़रीब ले आता है। मुरली गरीब देहाती लड़का है, इलाहबाद में वह अपने मामा के साथ रहता है और शहर में फेरी लगाता है और मौसम के हिसाब से सामान बेचकर अपनी गुजर बसर करता है। एक बार वह जहीर की साइकिल को रिपेयर करवाता है जब परेशान जहीर टेम्पो से टकरा गया होता है। फिर बहुत दिनों बाद यही मुरली जहीर को अपनी पढ़ाई में आए व्यवधान के कारण उपजी हताशा से मुक्ति दिलाता है, उसे एक बिसातखाने की दुकान दिलवाकर। एक सरल देहाती लड़के के रूप में मुरली का चरित्र बहुत स्वाभाविक और प्रभावशाली बन पड़ा है। 

यद्यपि सिपतुन और फ़िरोज़जहां के संबंध उनकी रुचियों और स्वभाव के हिसाब से एकदम ’एक सौ अस्सी’ डिग्री पर अवस्थित थे, पर वे दोनों एक दूसरे के लिए ही बनीं थीं, यह यहाँ बख़ूबी परिलक्षित होता है। वे एक दूसरे की पूरक थीं। सिपतुन जहाँ ख़ामोश रहकर अपना दायित्व बिल्कुल मशीनी अंदाज़ में निभाती थी, दीन दुनिया के प्रति उसमें ममता तो थी पर उसके झमेलों में पड़ना उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था, वहीं फ़िरोज़जहां दीन दुनिया से बाख़बर भी रहती थीं, उसमें घुलना मिलना भी ज़रूरी समझती थीं और उस पर सोच समझ कर अपनी राय भी बनाती थीं। उनके पास बुद्धि, अनुभव और तर्क की अनूठी संपदा थी। इसलिए जहीर माँ की बनिस्बत दादी से अधिक जुड़ा हुआ था। सिपतुन को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। फ़िरोज़जहां के इंतकाल पर जहीर का यह कहना कि ’अम्माँ अब मैं किससे लडूँगा, मुझे कौन संभालेगा’ बहुत महत्वपूर्ण है। दादी और पोते का बहुत गहरा भावनात्मक संबंध यहाँ दिखाई देता है। जहीर के लिए दादी एक गुरु, अभिभावक और मार्गदर्शक भी थीं। दादी की मौत जहीर के लिए एक बड़ा सदमा थी जो उसमें एक गहरा खालीपन ही पैदा नहीं करती बल्कि उसे और अधिक गंभीर तथा सिद्धांतों के प्रति जागरूक बना देती है। प्राय: ऐसे परिवारों में जहाँ पुरुष सदस्य न हों वहाँ एक गहरा असुरक्षा-बोध व्याप्त होता है, वहीं उनका आपसी भावनात्मक लगाव भी कहीं अधिक सशक्त होता है। इस मनोविज्ञान को यहाँ काफी सफलता के साथ प्रयुक्त किया गया है। सामान्यत: हिंदी के सामाजिक उपन्यासों और कथासाहित्य में संबंधों को दो अतियों पर दिखाया जाता है, भावनात्मक उद्रेक को नियंत्रित करने वाली बात वहाँ नहीं होती। पिछले दो-तीन दशकों में तो उपन्यास हो या कहानी उसमें देह और देह का भूगोल, धूर्तता, चालाकियाँ, परस्पर अविश्वास जैसी यादव व टेलीसीरियल मार्का पतित प्रव्रत्तियाँ ही डॉमिनेट करती पाई जाती हैं। यहाँ संतुलन है यह बात संतोष देती है। 

जहीर की टोली में मुरली के अलावा बाकी चार और बेरोजगार पर भावुक और संवेदनशील नौजवान जुड़ते हैं सलमान, जगन्नाथ, रमेश और बसंत। जगन्नाथ उर्फ जुगनू एक पी.सी.ओ. चलाता है। यहीं अक्सर दोस्तों की बैठक जमती है या कहें अड्‌डा लगता है। इलाहबाद के अपराध जगत और पतित राजनैतिक अवस्था का यहाँ पोस्टमार्टम भी होता है, उससे मुठभेड़ की योजना भी बनती है। यहाँ इस उपन्यास की कहानी एक फ़िल्मी मोड़ लेती नज़र आती है। खलनायक श्यामलाल त्रिपाठी जो पुलिस इंस्पेक्टर है, उसके आपराधिक कारनामे, जहीर की मंडली से उसकी अदावत, पुलिस, राजनीतिज्ञ, व्यवसायियों तथा वकीलों का कॉकस अब पूरे इलाहबाद पर भारी पड़ने लगता है। श्यामलाल त्रिपाठी इंस्पेक्टर कम माफ़िया सरगना अधिक है। वह अपने प्रतिकूल अधिकारियों का तबादला करा देता है। किसी भी व्यक्ति को जब चाहे, जहाँ चाहे साज़िश रचकर क़त्ल करा सकता है। रिश्वतखोर, भ्रष्ट, व्यभिचारी तो वह है ही, बहुत अच्छा योजनाकार भी है। वह किसी भी अपराध में नहीं फँसता। मकान खाली करवाना, हड़पना और बेचना उसके एक इशारे पर पल भर में संपन्न हो जाता है। वह आतंक का पर्याय है। यहाँ श्यामलाल त्रिपाठी निरंकुश और शक्तिसंपन्न अपराधी पुलिस वाले के रूप में चित्रित किया गया है। इस चरित्र चित्रण में नासिरा जी ने थोड़ी अति कर दी है। यह सही है कि ऐसे पुलिस वाले होते हैं पर इलाहबाद जैसे बड़े शहर में बहुत दिनों तक सिर्फ आतंक और ज़ुल्म के सहारे वे टिक नहीं सकते। बड़े शहरों में उन्हें देखने वाले, उन पर नज़र रखने वाले और उनका विरोध करने वाले भी बहुत होते हैं। किसी क़स्बे या गाँव में तो यह संभव है पर इलाहबाद में नहीं। क्योंकि इलाहबाद इतना सहिष्णु और इतना कायर शहर भी नहीं हो सकता।

शहर में गुंडों को इस्तेमाल करने के त्रिपाठी के तरीके, हत्याएँ, बलात्कार और मकानों को कब्जियाने में उसकी शह मिलना। इन बातों का विरोध करने की वजह से जहीर का जीवन खतरों से भर जाता है। जहीर और उसकी मित्र-मंडली क बेजह आपराधिक षडयंत्रों में फँसाने की त्रिपाठी की चालें भी चलती रहती हैं। ऐसी स्थिति में सिपतुन और जहीर के संबंध तनावपूर्ण और भय से भरे दिखाई देते हैं। जहीर द्वारा माँ की अनचाही उपेक्षा और माँ का बेटे की सुरक्षा के लिए निरंतर आशंकित रहना, यह चित्रण बहुत स्वाभाविक और यथार्थ के क़रीब है। शहर में एक एस.पी. सतीश मोजुमदार की पोस्टिंग होती है, जहीर से मिलने की उसकी इच्छा यहाँ एक सुपरिचित संयोग की तरह प्रस्तुत की गई है। यह वही सतीश है जिसकी नक़ल की पर्ची के कारण जहीर का जीवन असुरक्षित, अराजक और कष्टपूर्ण राह पर चल पड़ा था। वही सतीश अब जहीर के लिए कुछ करना चाहता था ताकि अपनी अपराध भावना को कम कर सके। वह इंस्पेक्टर श्यामलाल त्रिपाठी को ठीक करना चाहता है, त्रिपाठी बेहद काइंयाँ और धूर्त है। सीधे-सीधे यह मुमकिन नहीं था इसलिए कूटनीतिक ढंग से उसे यह सब करना पड़ रहा था। जहीर से बदला लेने के लिए श्यामलाल उस पर गुंडों से क़ातिलाना हमला कराता है। जब उस हमले से जहीर और उसके साथी बच जाते हैं तो वह मोहन्ती नामक व्यवसायी के ट्रकों से, जहीर के दोस्त मुरली, जो फेरी लगाता शहर में घूमता था, उसकी हत्या करा देता है। और यह हादसा महज एक दुर्घटना बनकर रह जाता है। यद्यपि यह दुर्घटना ’नो एन्ट्री ज़ोन’ में होती है। सुबह साढ़े सात बजे तीन-चार ट्रक वहाँ कैसे पहुँच जाते हैं? दुर्घटना पर संदेह करने के लिए यही काफ़ी था, पर यह दुर्घटना किसी बड़े एवं प्रभावशाली आदमी के साथ तो हुई नहीं थी, बस एक अदना, गरीब रेहड़ी वाले लड़के की मौत ही तो थी। आख़िर कोई ट्रक वाला जानबूझकर उसको क्यों मारना चाहेगा? त्रिपाठी ने बहुत सोच समझकर यह काम कराया था। सतीश मोजुमदार भी सीधे-सीधे त्रिपाठी को इस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं मान सकता था इसलिए वह भी त्रिपाठी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। जहीर के दिल को त्रिपाठी ने भयानक चोट पहुँचाई थी, इससे त्रिपाठी संतुष्ट था। सतीश मोजुमदार को त्रिपाठी का इलाज करने के लिए उसे कुछ और अपराध करने के अवसर देने की ज़रूरत पड़ रही थी। सो उसे कटघर की हंगामा बेगम और उसकी दो जवान लड़कियों पर निगरानी करने लगा दिया गया।  इंस्पेक्टर त्रिपाठी का रुतबा इस कदर ऊँचा दिखा दिया गया है कि एक एस.पी. भी उससे पंगा नहीं ले सकता। यहाँ एक और गंभीर समस्या की तरफ उपन्यास को मोड़ दिया गया है जो अभिजात देह व्यापार या जिस्मफरोशी की ओर इंगित करता है। यद्यपि यहाँ भी यह सामाजिक समस्या न होकर त्रिपाठी की समस्या मात्र बनकर रह गई है नासिरा जी ने इस उपन्यास में शहर के वे सभी रोग दिखाए हैं जो किसी भी शहर में प्रभावशाली लोगों की छत्रछाया में पलते बढ़ते हैं। गुण्डागर्दी, लूट, जिस्मफरोशी, शराब बनाने के अवैध अड्‌डे और सांप्रदायिक दुर्भावना पैदा कर राजनीतिक तथा आर्थिक फायदा उठाना कुछ ऐसे कुकर्म हैं जिनके चलते पुलिस, प्रशासन, राजनीति, व्यापार और अपराध जगत सभी अपनी अपनी जेबें भरते रहते हैं और सामान्य नागरिकों को तरह तरह की आपदाओं और कष्टों में जीने को छोड़ देते हैं। परंतु इस उपन्यास में इस वास्तविकता को उतना महत्व नहीं दिया गया है जितना कि व्यक्तिगत अहम और पागलपन के शिकार एक आपराधिक मन:स्थिति के  इंस्पेक्टर त्रिपाठी की घिनौनी कारगुज़ारियों को। यदि हम इस फ़िल्मी मनोविज्ञान को पकड़ें कि कोई किरदार अपने लिए जितनी घृणा, दया या प्रशंसा अर्जित कर सकता है उसी परिमाण में उसका किरदार सफल माना जाता है, तो इस तर्क के आधार पर यहाँ भी त्रिपाठी के किरदार को बहुत सफल माना जा सकता है। पर सवाल यह है कि क्या मात्र एक त्रिपाठी के समाप्त हो जाने भर से ऊपर वर्णित सभी बुराइयाँ भी खत्म हो सकती हैं? कभी नहीं! क्योंकि समाज में एकमात्र बुरा पात्र त्रिपाठी भर नहीं है, इस पूरे तंत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ऐसे सैकड़ों, हजारों किरदार हैं जो बुरा़यों के फलने फूलने में अपना योग करते रहते हैं। इन चरित्रों को बदलने के लिए उनमें सामाजिक दायित्व का ऐसा महत्वपूर्ण भाव पैदा करना आवश्यक होता है जिससे कि वे लोग समाज के विकास में, साधन संपन्नता में अपनी समुचित भागीदारी सुनिचित कर सकें। यहाँ यह बहुत अच्छी तरह रेखांकित नहीं हो पाया है, इस उपन्यास की यह एक बड़ी सीमा है। आगे त्रिपाठी धीरे धीरे मोजुमदार के जाल में फँसता है। हंगामा बेगम की बेटियों के चक्कर में, बीच बाज़ार में, आई. जी. की गाड़ी के सामने वह बेगम की छोटी लड़की के मुँह लगे गुंडे जग्गू झींगुर की अपनी सर्विस रिवाल्वर से हत्या कर देता है। यद्यपि इसे वह एनकाउंटर बताता है पर यह बात किसी के गले नहीं उतरती सो वह सस्पेंड  कर दिया जाता है। कुछ दिन वह गुमनामी में काटता है फिर एक दिन हंगामा बेगम, उनकी दोनों बेटियाँ और नौकर की भी हत्या कर देता है पर वह न तो पकड़ा जाता है न उस पर किसी को भी शक़ ही होता है। यह आश्चर्यजनक है और थोड़ा अविश्वसनीय भी।

जहीर और उसकी मंडली में अब तेज़ी से अपने पैरों पर खड़े होने का भाव पैदा होता है। जहीर की दुकान थी, जुगनू का पी.सी.ओ. और रमेश, सतश मोजुमदार की कृपा से पुलिस में  इंस्पेक्टर हो जाता है। सलमान दवा की दुकान पर काम करने लगता है और बसंत कैटरिंग में। जहीर के घर में कुलसुम की माँ तथा उसके पति रहने लगते हैं, उसकी बिसातख़ाने की दुकान में भी उनकी सहायता मिलती है। अब जहीर ऐसी परिस्थिति में फिर से पढ़ने का मन बनाता है। वह दो वर्षों में बी.ए. पास कर लेता है फिर एम.ए. करके वह एक स्कूल में पढ़ाने भी लगता है। यह एक नया जहीर है जो रचनात्मक योगदान को अब व्यवहारिक सक्रियता से अधिक महत्व देता है। वह आगे एम. फिल. और पीएच.डी. भी करता है। सतीश मोजुमदार का ट्रांसफर, आपातकाल और फिर संविद सरकार, उधर श्यामलाल त्रिपाठी अपने को पिस्तौल मार जमुना में छलाँग लगा देता है। इस तरह इस कहानी में खलनायक को प्राकृतिक न्याय के जरिए मर जाने दिया जाता है। आततायी के अंत की यह एक अपेक्षित पारंपरिक परिणति है औसत पाठक की तसल्ली के लिए, पर इसके बाद इलाहबाद और वहाँ का सामाजिक जीवन कितना परिवर्तित होता है यह दिखाना कहानी में आवश्यक नहीं था और उपन्यासकार का अभीष्ट भी नहीं रहा लगता। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे अतिवादी चरित्र कहानी को महज रोचक बनाने के लिए ही गढ़े जाते हैं या उनका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी कहीं कोई सामाजिक प्रयोजन सिद्ध करता है?  इलाहबाद के बारे में भी दो-एक बातें यहाँ पूछी जा सकती हैं। एमर्जेंसी और संविद सरकार के बाद आठवें दशक में भारतीय जनजीवन और इलाहाबाद में भारी परिवर्तन हुए सामाजिक चेतना, औद्योगिक विकास, विचार सक्रियता तथा सामाजिक उद्दण्ड़ता के क्षेत्र में भी। पंजाब का सुलगना, इंदिरा गांधी की हत्या, रथ यात्राएँ, जानकी जीवन यात्रा, सोवियत संघ का विघटन, नरसिंम्हाराव का उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उसके बाद बाबरी मस्जिद ध्वंस और आगे भ्रष्टाचार की वैतरणी का अबाध प्रवाह। क्या इलाहबाद पर इन सब घटनाओं का असर नहीं पड़ा? इलाहबाद में नयापन सिर्फ़ आजकल के टीवी सीरियलों के कुछ डॉयलाग देकर या सेलफोन का उपयोग बताकर ही नहीं दिखाया जा सकता। इलाहबाद एक बौद्धिक नगर है, वहाँ कुछ और भी है जो इस उपन्यास की पकड़ से बाहर रह गया है। शायद यह समेटना यहाँ अभीष्ट नहीं था। छोटी-छोटी घटनाओं का बहुत विस्तार से वर्णन उपन्यास की पठनीयता में बाधा उत्पन्न करता है। उपन्यास अनावश्‍यक रूप में बढ़ाया गया लगता है, थोड़ा काम्पेक्ट और संक्षिप्त होता तो अधिक प्रभावी बनता। अलबत्ता आवश्यकतानुसार बोली इलाहाबादी रखी गई है जो अच्छी लगती है। जहीर के जीवन में एक छोटा सा प्रेम प्रसंग भी आता है, अपने ही सहकर्मी की आर्किटेक्ट बहन से। पर जहीर तो अक्षयवट है, उसे इलाहबाद में ही रहना है। वह बहुत ही छोटे और अनाथ बच्चों के लिए अपने ही घर में एक स्कूल खोलता है जिन्हें वह ज़िम्मेदार नागरिकों के रूप में भविष्य को सौंप सके, इस स्कूल का नाम रखता है ’मुस्कान’। मित्रों और माँ के सहयोग से उसका यह स्कूल चलने लगता है। एक दिन एक आण्या पुलिस  इंस्पेक्टर गाली बकने वाले चार पाँच वर्ष के बच्चे को जहीर के सामने ले आता है। वह बताता है कि यह त्रिपाठी का अवैध लड़का है। जहीर को गहरा झटका लगता है। उसकी आँखों के सामने श्यामलाल का चेहरा घूम जाता है पर वह लड़के को गोद में उठा लेता है। लड़का गालियाँ बकता है, सिपतुन अल्लाह से ख़ैर माँगती है, जहीर कहता है iचिंता मत करो अम्माँ, आगे सब ख़ैर ही ख़ैर है। ज़ाहिर है अंत में कहानी पूरी तरह फ़िल्मी बना दी गई है, इस उपन्यास की यह भी एक सीमा है। सामाजिक सक्रियता, सृजनात्मकता और आदर्शवाद यहाँ गड्‌ड मड्‌ड हो गए हैं। समाज सुधार, व्यक्तिगत दयाभाव और अनाथालय जैसे धार्मिक सोच तथा एन जी ओ जैसे समाधान पर आकर उपन्यास की सुई अटक जाती है। वैचारिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों की वास्तविक ज़रूरत और तत्संबिधत चेतना से लैस समाज के नव निर्माण की दिशा यहाँ पारंपरिक सुधारवादी सोच में गुम होती दिखाई देती है। यद्यपि आज का यथार्थ कहीं इससे भी अधिक भ्रामक जटिल और पेचीदा है इसलिए आज समाजसुधार, सामाजिक सक्रियता के पुराने नुस्ख़े बेमानी हो गए हैं। मैत्रेयी पुष्पा, अलका सरावगी, पुन्नी सिह, भगवान दास मोरवाल या इससे पहले मार्कण्डेय, अमरकान्त, काशीनाथ सिंह, मन्नू भण्डारी आदि ने समाज के संघर्षधर्मी यथार्थ को अपने उपन्यासों में बहुत पैनेपन और प्रभावोत्पादकता के साथ उभारा है। आज सही दिशा में समाज को ले जाने के लिए ने सूत्रों और उपायों की ज़रूरत है। उन्हें खोजने के प्रति एक गंभीर सृजनात्मक एवं व्यवहारिक रुझान तथा कर्म की आवयकता है। कुल मिलाकर यह उपन्यास एक ऐसा औसत सामाजिक उपन्यास है जो नैतिक एवं आदर्श सामाजिक संरचना के निर्माण की अपेक्षा की ओर इंगित करता है शायद यही इसका अभीष्ट भी है।

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