बचो सत्ताकामी इन्द्रों और धनोष्मित जनों से कि ये देवता हैं
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’15 Aug 2022 (अंक: 211, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
बचो सत्ताकामी इन्द्रों
और धनोष्मित जनों से
कि ये देवता हैं!
देवता सदा-सदा से
जाति-धर्म-ईमान से परे होता
देवता रूप बदलकर
किसी से सर्वस्व दान ले सकता
देवता दानव कहकर
किसी के भी प्राण ले सकता!
देवता नेता होकर
सबको सब्ज़-बाग़ दिखाते रहता
ब्रह्मलोक-गोलोक-कैलाश-
इन्द्रासन इन्द्रप्रस्थ दिलाने का!
तुम्हें भरोसे में लेने के लिए
देवता त्यागकर स्वर्ण मुकुट
पहनने लगा श्वेत वस्त्र उठाने लगा लाठी
देवता कंचन-खादी बारी-बारी से पहनकर
बनता रहा पापी भ्रष्टाचारी!
कि देवता कभी नहीं करते
जनता की हित कामना
कि देवता सदा से समझते
अपना ही हित साधना!
कि देवता हमेशा से मरते
अपनी ही वैध्य-अवैध्य संतति के लिए!
किन्तु ये मत समझो कि देवता की नज़र
दबे-कुचले जन पर नहीं होती
हमेशा दानवीर बली सरीखे मोटे बकरे पर ही होती!
ये मत भूलो कि देवता का दाँत
गृहस्थ दधीचि की हड्डी पर भी गड़ा था
जिनकी एकमात्र जमापूँजी देह थी
वह भी अमानत उनकी ब्याहता की!
ये मत पूछो कि देवता की दरांती
कवच-कुण्डलधारी सूतपुत्र कर्ण की
देह पर क्यों चली थी?
ये मत कहो ग़रीब-ग़ुरबे
कि तुम्हारी हड्डी-देहयष्टि
दधिचि-कर्ण सरीखा बज्रांग नहीं है
कि तुम्हारे आंतरिक अंग
उनके लिए घाटे का सौदा है
कि तुम्हें ब्रहलोक-गोलोक-स्वर्ग-इन्द्रपद
पाने की महत्वाकांक्षा नहीं है
तुम्हारे ऊपर नज़रे इनायत नहीं होगी देवता की!
ये भी जान लो ग़रीब-ग़ुरबे
कि हड्डी-मांस-मज्जा ही काफ़ी नहीं
मानव बनने के लिए
रक्त का अंतिम क़तरा
पसीने की बासी महक भी काफ़ी है
मानव जनने के लिए!
कि तुम्हारे लख़्ते जिगर
सबसे पहले क़तारबद्ध होते
बार्डर पर लड़ने-मरने के लिए!
कि तुम्हारी ही दुहिता
दहेज़ के ख़िलाफ़ पहले गुहार लगाती
कि तुम्हारे अनटुटवे बच्चों के शरीर में
सबसे अधिक कुलबुलाते
देशभक्ति-ईमानदारी के कीड़े
नींद हराम हो जाती देवताओं की!
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