परशुराम व सहस्त्रार्जुन: कथ्य, तथ्य, सत्य और मिथक
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
हे परशुराम! आप वैशाख शुक्ल अक्षय तृतीया को जन्मे थे,
किन्तु आपकी कृति मानवोचित गौरवशाली व अक्षय कहाँ?
क्षय-विनाश के सिवा, आपका कौन सा कर्म है भला अच्छा?
आप घोषित मातृहत्यारा और मातृ कुल के संहारक भी थे,
जाति पूछकर वरदान व अभिशाप देने की प्रथा आपसे चली,
आपकी शिक्षा संहारक, जातिवादी और अर्थवाद से दूषित थी,
जिससे द्रोणाचार्य जैसी बदनाम गुरु परम्परा चल निकली!
द्रोणाचार्य; आपके शिष्य आपसे आगे बढ़कर बिना शिक्षादान दिए,
अवांछित शिष्य एकलव्य से कटा अँगूठा गुरुदक्षिणा में दान लिए!
इतना ही नहीं अपने कपूत अश्वत्थामा को राजपद दिलाने ख़ातिर,
दूजा शिष्य अर्जुन के बलबूते पर मित्र द्रुपद का राज्य हड़प किए!
आपसे तो कहीं अच्छे थे क्रोधी ऋषि दुर्वासा,
जो पेट भर भोजन खाकर, तृप्त हो जाते थे,
वरदान देने के पूर्व वे जाति नहीं विचारते थे,
अत्रिपुत्र दुर्वासा किसी का वंश नहीं उजाड़ते थे,
उनके ही शुभाशीष से पाण्डु का वंश चला था,
उनके वरदान से पृथा को पुत्र कर्ण मिला था!
पृथापुत्र पार्थ कर्ण नहीं था श्वेत-लाल-पीला-काला,
कर्ण था देव का दिव्य शिशु, बिल्कुल भोला-भाला!
किन्तु खोज ली आपने कर्ण की जाति कुवर्णवाली,
और ब्राह्मणी अहं वश कर्ण को शापित कर डाला!
दी जो शिक्षा आपने उन्हें ब्राह्मण जाति समझ कर,
उसे क्षण भर में ही छीन दीन-मलीन हीन कर डाला
जो अजातशत्रु दानी थे उसे आपकी जाति ने दान ले
और शाप दे अपने सहोदर भाई के हाथों कटा डाला!
आपको कुछ परवर्ती शास्त्र विष्णु के अवतार कहते,
राम पूर्व आप ही राम थे, राम से बड़े परशुराम थे,
पर क्यों नहीं आपने रावण को मारा, भेद खोलिए?
राम पूर्व रावण विजेता; जो एक परमवीर अर्जुन थे,
राम पूर्व कृष्ण के पूर्वज, अर्जुनों में श्रेष्ठ सहस्त्रार्जुन;
हैहय-यदुवंशी सहस्त्रबाहु वो, गाकर जिनकी विरुदावली,
आपके पूर्वज व रावण के पितामह ऋषि पुलस्त्य ने,
दुराचारी रावण को उनकी कारा से मुक्ति दिलाई थी!
अगर रावण से जातिगत रज़ामंदी व दुर्भिसंधी नहीं थी,
तो रावणविजेता सहस्रार्जुन को आपने क्यों मारा था?
रामावतार पूर्व रावण को आपने क्यों नहीं संहारा था?
आप भारतीय संस्कृति के प्रथम मातृ हत्यारा ठहरे,
सहस्रार्जुन पितातुल्य मौसा थे, जिनकी हत्या कर के,
मौसी के सुहाग को उजाड़े थे झूठे गोहरण के बहाने,
न भूतो ना भविष्यति, परशुराम आप उदाहरण ऐसे!
अगर सत्य में आप होते कोई अवतारी ईश्वर के,
तो आपके जीते जी श्री विष्णु क्यों लेते अवतार
पुनः राम बनकर, एक सूर्यवंशी क्षत्रिय राजकुमार?
वस्तुतः आप थे क्रूर अताताई रावण से बढ़कर के,
मानव जाति के हत्यारे, मातृघाती और कृतघ्न भी
दिव्यास्त्र दाता स्व आराध्य देव शिवशंकर के प्रति,
जिनके पुत्र गणेश को एकदंत किए परशु प्रहार से!
जब आपके पिताश्री भार्गव जमदग्नि जीवित थे,
फिर किस पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लिए थे
पचासी वर्षीय वृद्ध मौसा सहस्रार्जुन को मार के?
उनकी निर्दोष संततियों को इक्कीस बार संहार के?
गर्भस्थ शिशुओं की माताओं की पहरेदारी कर के?
सहस्रबाहु वध पर आपके जीवित पिता ने कहा,
‘हाय परशुराम! तुमने यह बड़ा पाप कर्म किया,
राम! राम! तुम वीर हो, पर सर्वदेव मय नरदेव
सहस्रार्जुन का व्यर्थ ही, क्योंकर वध कर दिया?
“राम राम महाबाहोभवान पापम कारषीत।
अवधीन्नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा।” (38. भा. पु.)
सचमुच कार्तवीर्य सहस्रार्जुन सर्वदेवमय नरदेव ही थे,
उनके वंशधर विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने कहा था,
‘मेरे ही सुदर्शनचक्र के अवतार कार्तवीर्यार्जुन धरा पर’
'मम चक्रावतारो हि कार्तवीर्यो धरातले’ (ब्रह्मांड पुराण)
अस्तु हे परशुराम! आप विष्णु के अवतार कदापि नहीं
प्रश्न चिह्न है आपके विष्णु के अवतारी कहे जाने पर?
आपने तो विष्णु के अवतार श्रीराम तक को दुत्कारा था,
शिव धनुष राम के द्वारा टूटना तो एकमात्र था बहाना,
उद्देश्य था जातीय वर्चस्व व अहंकार को बनाए रखना!
(2)
हे परशुराम जी! आप होते परमेश्वर के अवतार यदि?
तब लोग सोचते आपकी पूजा-अर्चना-वंदना करने की
मगर हे मातृ हत्यारा! कैसे करें कोई वंदना आपकी?
जो हुए नहीं सगी माँ-मौसी-मौसेरे भाइयों के, वे कैसे
पराई माता-बहन-बेटी, काकी-फूफी-मामी के रिश्तेदार?
आपने लगाया क्षत्रिय नारियों के गर्भ पर पहरेदार?
कंस सा किया गर्भस्थ शिशुओं से घृणित व्यवहार?
आपके विदेशी आक्रांताओं जैसे इक्कीस बार क़हर ढाने से
क्षत्रिय वर्ण ही वैश्य-शूद्र-अंत्यज जातियों में बिखर गए थे
आज जो इतनी सारी जातियाँ बनी इसके आप हैं ज़िम्मेवार
चन्द्रसेन क्षत्रियपुत्र बने चान्द्रसेनी कायस्थ आपसे डर कर,
ऐसे ही ढेर सारी जातियाँ बन गई क्षत्रिय वर्ण से टूट कर!
अहीर, गोप, जाट, जडेजा, खत्री, सोढ़ी, सूद, सुदी, कलचुरी, कलसुरी,
सुरी, सुढ़ी, शौरि, शौण्डिक, कलाल, कलवार, अहलूवालिया, अग्रहरि,
चन्द्र-बुध-पुरुरवा-आयु-नहुष-ययाति-यदु-हैहय क्षत्रिय दावेदार!
हैहयवंशी क्षत्रिय शासक सहस्रार्जुन के युवराज जयध्वज से
तालजंघ, फिर तालजंघ के पाँच पुत्र; भोज, अवन्ती, वीतिहोत्र,
स्वयंजात और शौण्डिकेय से क्षत्रियों के पाँच कुल बँट गए,
सहस्रार्जुन के प्रपौत्र शौण्डिकेय से ही शौण्डिक जाति उद्भूत,
ये शौण्डिक ही कहलाए त्रिपुरी के सत्ताधीश कलचुरी राजपूत!
“हैहयानां कुला: पंच भोजाश्चावन्तयस्तथा।
वीतिहोत्रा: स्वयंजाता: शौण्डिकेयास्तथैव च।” (अ.पु.)
सहस्रार्जुन के सौ पुत्रों में परशुराम ने पंचानबे की हत्या कर दी,
समर क्षेत्र से जीवित बच निकले सिर्फ़ पाँच जिनकी संज्ञा थी
जयध्वज ज्येष्ठ पुत्र जिनकी संतति जयसवाल, दूसरे शूर की
शौरि सूरी राजपूत जाति, तीसरे पुत्र शूरसेन से शूरसेनी, सैणी,
चौथे वृषसेन से वृष्णिवंश वार्ष्णेय, जिसमें कृष्ण व बलराम जी,
पंचम मधुध्वज से माधव संज्ञा, ये सभी सगाहुत वियाहुत जाति!
परशुराम के भय से क्षत्रियों में मचा था ऐसा हाहाकार,
कि कश्यप ऋषि ने परशुराम से सारी पृथ्वी दान लेकर
उनकी शर्त पर सभी क्षत्रियों को क्षत्रियत्व से च्युत कर,
सभी अत्रिगोत्री चन्द्रवंशी शाखाओं को कश्यप गोत्र देकर,
जीने का अधिकार दिया सर्व क्षत्रिय समवर्गी वैश्य बनाकर!
आज अधिकांश हिन्दू जातियाँ कश्यपगोत्री होती इसी से,
कश्यप ने पीड़ित अत्रिगोत्री चंद्रवंशी हैहय, यादव, दमघोषी,
वृष्णि, माधव, क्रोष्टा, यदुजा, कुकरेजा, शर्याति को स्वगोत्र दिए,
कश्यपगोत्री जातियों में सगोत्री शादियाँ होती इस वजह से
सूर्य कश्यप पुत्र थे इसलिए सूर्यवंशी हैं स्वतः कश्यपगोत्री!
“मेकला द्राविड़ा लाटा पौण्ड्रा:कान्वशिरास्तथा।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चचौरा:शबर बर्बरा:। 17।
किराता यवनाश्चैव तास्ता क्षत्रिय जाति:।
वृषलत्वमनु प्राप्ता ब्राह्मणामर्षणात्।” 18। (म.भा.अ.प. 35)
मेकल, द्रविड़, लाट, पौण्ड्र, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद,
दार्व, चौर/चोल, शबर, बर्बर, किरात, यवन सभी क्षत्रिय थे,
ब्राह्मण के अमर्ष से वृषल क्षत्रिय हो गए निम्नतर
ये परशुराम से युद्ध लड़े थे सहस्रार्जुन संग मिलकर!
कोई जाति छोटी-बड़ी नहीं, कृषक, कामगार, कर्मकार,
ताम्रकार, स्वर्णकार, कांस्यकार, केशरी, ठठेरा, कुंभकार,
काश्तकार, सैणी, वनवासी, सभी ऋषि-मुनि के वंशधर!
(3)
कोई मातृहंता! कैसे हो सकते इस जग के तारणहार?
हे परशुराम! कोई माता कुमाता कैसे होगी इस संसार?
माँ जो संतान को दस माह तक कुक्षि में रक्षा करती!
निज देह नोंच के लख़्तेजिगर को कोख से निकालती!
वक्ष चीरकर रक्त दूधिया, अमिय क्षीर बनाकर पिलाती!
हे परशुराम! आप वेद में नहीं हैं, पर स्मृति-पुराण में हैं,
क्या ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ नहीं पढ़े थे?
‘माता कुमाता न भवति’, ये किंवदन्ती क्या नहीं सुने थे?
तो प्रश्न है एक मातृहंता पितृआज्ञापालक कैसे हो सकते?
क्या यही हमारी सभ्यता, यही हमारी पौराणिक संस्कृति?
ऐसे में आपके पिता वैदिक मंत्रद्रष्टा महर्षि या वहशी थे?
आप नादान बालक या होश-हवास युक्त वेदज्ञानी तपी थे?
हे परशुराम! आप मनुस्मृतिकार महर्षि भृगु के प्रपौत्र भार्गव,
क्या आपको मनुस्मृति के उक्त सद्श्लोक पर नहीं है गर्व?
आपकी माता रेणुका सूर्यवंशी इक्ष्वाकु क्षत्रिय राजकन्या थी,
जिसे प्रौढ़ पुरोहित आपके पिताश्री ने कन्यादान में माँगी थी
रेणुराज प्रसेनजित से, जो वाक्दत्ता थी चक्रवर्ती सहस्रार्जुन की!
एक राजकन्या बनकर अरण्या, बनी पाँच ऋषिपुत्रों की
माता; वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु और आपकी भी,
आप कनिष्ठ पर युवा बलिष्ठ, आपके पिता अतिवृद्ध,
माता अवश्य वृद्धा रही होगी, फिर कुमाता कैसे हुई?
हे परशुराम! आपके वृद्ध मंत्रद्रष्टा पिताश्री ने कहा था,
हे पुत्र अपनी पापिनी माता को अभी मार खेद ना कर
और आपने परशु से माता का झटपट सिर छेद किया!
“जहीमाँ मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृता।
तद आदाय परशु रामो मातु:शिरोऽहरत्।”। (म.भा. 16/14)
घटना क्या थी, आपकी माता नदी स्नान करने गई थी,
गंधर्वराज चित्ररथ का अपनी रानी के साथ जलक्रीड़ा देख,
उस राजकन्या के मन में वैसी स्वाभाविक लालसा जगी,
और आपने हत्या कर दी, कैसे अवतारी हो बर्बर सनकी?
किस विधि-विधान से नारी की अंतरात्मा परतंत्र नर की?
(4)
हे परशुराम! यदि आप नायक होते अत्याचार के शिकार,
तब आपके प्रतिद्वंद्वी सहस्रार्जुन को भी होना चाहिए था
राम के प्रतिद्वंद्वी रावण के जैसा क्रूर नारी का अपहर्ता?
कृष्ण प्रतिद्वंद्वी कंस के जैसा बहन कोख के शिशुघाती?
पाण्डव के शत्रु कौरव के जैसे जर-जमीन-जोरु के हकमार?
किन्तु क्या राजा सहस्रार्जुन ऐसे थे या कुछ और थे?
इन तथ्यों पर ब्राह्मणी लेखनी से कर लीजिए विचार!
विष्णु चक्रावतार सहस्रार्जुन का जन्म वृत्त्तांत:
सहस्रार्जुन का जन्म वृत्त्तांत पुराणों में ऐसे है वर्णित
कार्तिक शुक्ल सप्तमी दिन रविवार, श्रावण नक्षत्र घड़ी,
प्रात: शुभ मुहूर्त में, अत्रिगोत्री महाराज कृतवीर्य रानी
शीलघना पद्मिनी की कोख से, अनन्त व्रत पालन से,
कार्तवीर्यार्जुन जन्मे थे, श्री अनंत नारायण की कृपा से!
“कार्तिकस्यसिते पक्ष सप्तभ्यां भानुवासरे
श्रवणर्क्षे निशानाये निशिचे सु सुभेदर्णे।” (स्मृति पु.)
सहस्त्रार्जुन की माता पद्मिनी कोई मामूली नारी नहीं ,
वह सूर्यवंशी राजा सत्यहरिश्चन्द्र की विदुषी कन्या थी!
विष्णु का कथन है यज्ञ दान तप विनय व विद्या में,
कार्तवीर्यार्जुन की बराबरी कोई राजा नहीं कर सकते थे!
“न नूनं कार्तृवीर्यस्य गतिं यास्यान्ति मानव:।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रमेण श्रुतेण च॥(वि.पु.अ.11/16)
वाल्मीकि ने रामायण में कहा है कि अर्जुन विजेता में
श्रेष्ठ माहिष्मती नगरी के प्रभुत्व संपन्न महाराजा थे!
‘अर्जुनो जयताम श्रेष्ठां माहिष्मत्यापति प्रभो’
उस महाबली राजा अर्जुन ने दशानन रावण को,
सहस्त्र भुजाओं में लपेटकर वैसे बंदीगृह में डाला,
जैसे भगवान नारायण ने बली को बाँध दिए थे!
“सतु बाहुसहस्त्रेण बलाद् ग्रह्य दशाननम्।
बबन्ध बलवान् राजा बलिं नारायणो यथा।” (उ.का. 32/64)
उक्त कथन से प्रमाणित होता है कि सहस्रार्जुन ही
नारायण के अवतार थे, जो पचासी वर्ष शासन कर
महाकालेश्वर के शिव लिंग में ब्रह्मलीन हो गए थे!
वैशम्पायन मुनि कहते हैं हरिवंश महा पुराण में,
धर्मपूर्वक प्रजारक्षण करनेवाले राजा कार्तवीर्य के
प्रभाव वश किसी की सम्पत्ति नष्ट नहीं होती थी!
जो व्यक्ति सहस्त्रार्जुन के वृत्त्तांत को कहते-सुनते,
उनका धन नष्ट नहीं होता मिल जाती खोई चीज़ें!
“अनष्टद्रव्यता यस्य वभूवामित्रकर्शन।
प्रभाषेण नरेन्द्रस्य प्रजा धर्मेण रक्षत:। (अ.33/36)
न तस्य वित्तनाशोऽस्ति नष्टं प्रतिलभेश्च स:।
कार्तृवीर्यस्य यो जन्मकीर्तियेहिद नित्यश:। (अ.33/56)
मत्स्य पुराण का ये कथन है, जो मनुष्य सहस्त्रार्जुन का
प्रात:स्मरण करते, उनका धन नष्ट ना होते, खोए मिलते,
उनकी आत्मा, जो भगवान कार्तवीर्यार्जुन का वृत्त्तांत कहते,
यथार्थ रूप में पवित्र और प्रशंसित होकर, रहती स्वर्ग में!
“यस्तस्य कीर्ति येन्नाम कल्य मुस्याय मानव:।
न तस्य वित्तनाश:स्यनाष्टं च लभते पुनः॥
कार्तवीर्यस्य यो जन्म:कथायेदित श्रीमत: यथावत।
स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोक महहीयते।” (म पु 33/52)
हे परशुराम! वेदव्यास का महाभारत में ये कथन-
शक्ति संपन्न राजा कार्तवीर्य अर्जुन सहस्रबाहु ने
अपने शौर्य से सागर पर्यंत मही पर किए शासन!
‘कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजाबाहु सहसवान्
येन सागर पर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही’
अर्जुन महातेजस्वी सामर्थ्यवान होकर भी संयमी,
ब्रह्मज्ञानी, शरणागत वत्सल, दानवीर, शूरवीर थे!
‘अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्यक:
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत।’ (शां.प. 49/44)
योगवाशिष्ठ में कहा गया ‘जिस प्रकार कार्तवीर्य
गृह में प्रतिष्ठित होने से सब दुष्ट भयभीत होते,
विष्णु क्षीरोद में स्थित होने से भू में जीव जीते,
योगी के समान सिद्धियाँ स्थित होती है स्वर्ग में
इन्द्रासन की इच्छा से यज्ञ किए जाते हैं, वैसे ही
हज़ारों में एक सहस्त्रार्जुन ईश्वर के समान होते’!
“कार्तवीर्य गृहे तिष्ठान सर्वेषां भयदोऽअभवत्।
विष्णु क्षीरोदधो तिष्ठान जायते पुरुषोंभुवि॥
पार्श्वय यान्ति योगिन्यो तिष्ठन्त्यो योगनीगणे।
शुकः स्वर्गासने तिष्ठान याति यज्ञार्थभुविकाम्॥
सहस्त्रेमेकं भवति तथा चास्मिज्जनार्दन:।”
श्रीमद्देवीभागवत का कथन है हैहय वंश में
उद्भूत सहस्रबाहु बलवान, धर्म प्रवृत्त्त, हरि के
अवतार दत्तात्रेय के शिष्य, शाक्त, योगेश्वर थे,
महादानी यजमान थे वो भार्गव ब्राह्मणों के!
“कार्तृवीर्येति नामाद्रभूद्धैहय:पृथ्वीपति:।
सहस्त्रबाहुर्बलवानर्जुनो धर्मतत्पर:
दत्तात्रेयस्य शिष्योऽभूदवतारो हरेखि।
सिद्ध:सर्वार्थद:शाक्तो भृगणां याज्य एव से:।” (6/56/8-9)
ये योगी अर्जुन खड्गधारी, चक्रधर, धनुर्धर,
सप्त द्वीपों में भ्रमण कर चोर तस्करों पर
रख के नज़र, पचासी वर्ष शासक रहे भू पर!
“स हि सप्तसु द्वीपेषु खड्गी चक्री शरासनी
रथी द्वीपान्युचरन् योगी पश्यति तस्करान्।
पन्चाशीतिसहस्त्राणि वर्षाणां स नराधिप:।
ससर्वरत्न सम्पूर्णश्चक्रवर्ती वभूत ह।” (म.पु.43/25-26)
महाप्रज्ञ राजा कार्तवीर्यार्जुन प्रात:स्मरणीय थे
सद्भावी, धर्मयुक्त प्रजापालक पुण्य चरित्र के!
सद्भावेन महाप्रज्ञ:प्रजाधर्मेण पालयन्!
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बहू सहस्त्रवान। (म.पु.)
श्रेष्ठ धर्मज्ञानी अर्जुन ने सप्त द्वीपों में फैली
धरा को बाहुबल से जीतकर दान कर दी थी!
“ददौ स पृथ्वी सर्वां सप्त द्वीपाम् सपर्वताम्।
स्वबाहौस्त्रबलेनोजौ जित्वा परमधर्मवित्।” (म.भा.शा.प. 49/37)
सहस्रार्जुन जीवन काल में ही साधु-संत संन्यासी द्वारा
द्वादश नाम स्रोत पाठ से भगवान सा पूजित होने लगे-
“कार्तवीर्य: खलद्वेषी कृतवीर्यसुतो बली।
सहस्रबाहु शत्रुघ्नो रक्तवासा धनुर्धर:॥
रक्तगंधो रक्तमाल्यो राजा स्मरर्तुरभीष्ट:।
द्वादश एलान नामानि कार्तृवीर्यस्य यः पठेत॥
सम्पदस्तस्य जायन्ते जना तस्यवशं गता:।
आन्यत्वाशु दूरस्थं क्षेमलाभयुतं प्रियम्॥
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रभृत्।
तस्य स्मरणमात्रेण हृतं नष्टं च लभ्यते॥
कार्तवीर्य महाबाहो सर्वदुष्ट निबर्हणः।
सर्व रक्ष सदा तिष्ठ दुष्टान्नाशाय पाहिमाम्॥
ॐश्री डामर तंत्रे उमामहेश्वर संवादे कार्तवीर्यस्तोत्रम्॥
अर्थ; कार्तवीर्य के बारह नामों का पाठ करता जो कोई व्यक्ति
प्रतिदिन उसे प्राप्त होती सम्पत्ति और लोग होते उनके वशवर्ती
ये बारह नाम-कार्तवीर्य, खलद्वेषी, कृतवीर्य पुत्र, बलवान, सहस्रबाहु,
शत्रुघ्न, रक्तवस्त्रधारी, धनुर्धर, रक्तगंधप्रिय, लालमालाधारी, राजा थे
स्मरण करनेवाले के वे अभीष्ट थे जिनके नाम स्मरण मात्र से
दूरस्थ वस्तु या व्यक्ति आ जाते और उन्हें क्षेम, लाभ, प्रिय होता!
कार्तवीर्य अर्जुन नामक राजा हज़ार भुजाधारी जिनके स्मरण से
चोरी गई या खोई वस्तु या अपहृत हो गई वस्तु प्राप्त हो जाती!
हे कार्तवीर्य महाबाहो सभी दुष्टों के नाशक मेरी सभी वस्तुओं की
रक्षा करो मेरे पार्श्व में रहो, दुष्टों का नाश करो, मेरी रक्षा करो!
माहेश्वर तीर्थ मंदिर है राजराजेश्वर श्रीकार्तवीर्य सहस्रार्जुन की
जन्मभूमि, कर्मभूमि, समाधि भूमि, हिन्दुओं की आस्था भूमि
मध्य प्रदेश इंदौर में स्थित सहस्रार्जुन का जीवित अग्नि तीर्थ,
जहाँ ग्यारह अखण्ड दीप ज्योति रावण को पराजित करने की
स्मृति में आदिकाल से सहस्रार्जुन द्वारा प्रदीप्त जहाँ वे विलीन
शिवलिंग में मुखौटा रूप में सहस्रार्जुन समाधिस्थ और पूजित!
सहस्रार्जुन विष्णु के समान शंख चक्र गदा ध्वज धारी थे
कर में शिव सा त्रिशूल वर्म ओंकार देव ईश्वर अवतारी थे
“शंख चक्र त्रिशूल वर्म ध्वज कर में गदा विशाला।
ओइम तुम भारत संस्कृति विस्तारक सहस्रबाहु बलधारा॥“
जो मनुष्य प्रातः उठ श्री कार्तवीर्य अर्जुन का कीर्ति स्मरण करता
उनके धन वैभव का क्षय नहीं होता, हस्तगत हो जाता नष्ट वित्त
जो उनका जन्म वृत्त गाता वो आत्मा शुद्ध हो स्वर्ग में प्रशंसित!
“यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थान मानवः।
न तस्य वित्तनाशः स्यन्नाष्टं च लभते पुनः॥
कार्तृवीर्यस्य यो जन्म कथायेदित धीमतः।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते॥(मत्स्य पु 43/51-52)
सहस्रार्जुन के उदात्त चरित्र की ये बानगी है थोड़ी,
वाल्मीकि रामायण, सभी पुराण और इतिहास में,
सर्वगुणी राजा अर्जुन की भरी पड़ी है विरुदावली
सहस्रार्जुन भी राम कृष्ण के पूर्वज विष्णुकलांश थे
जिनका परवर्ती पुराणकारों ने चरित्र हनन कर दिए!
(5)
हे परशुराम! अब आप सुनें अपना भी गुणगान,
आपके भृगुगोत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने
‘लोमहर्षिणी’ उपन्यास में आपकी जन्मकथा कही,
“बालक परशुराम का जन्म जिस दिन हुआ,
वह दिन भयानक था, भयानक वर्षा, बादल
गर्जन, विद्युत का रव, बालक जब रोता था,
तब ऐसा लगता जैसे वृषभ (बैल) रँभाता हो,
बड़ा होके वह जो चाहता बल से छीन लेता!
सिर बड़ा था उसका, चायमान प्रथम गुरु बना!”
ऐसा ही दुर्योधन के जन्म लेने पर हुआ था,
जब दुर्योधन गर्दभ के जैसा रेंकने लगा था!
उसके जन्म पर ब्राह्मणों ने भविष्यवाणी की,
यह बालक कुलघाती होगा, सचमुच दुर्योधन था
पितृकुलघाती, आप भी मातृहंता-मातृकुलघाती,
आपका आचरण है विदेशी आक्रांताओं के जैसा!
‘भगवान परशुराम’ उपन्यास में मुंशी जी ने
सहस्त्रार्जुन और आपकी शत्रुता का कारण,
राजा सुदास भगिनी लोमहर्षिणि को बताया,
जिसे सुदास चाहते थे सहस्रार्जुन से ब्याहना,
पर आप और आपके पिताश्री की चाहत थी,
हो विवाह आपसे जो उम्र में छह वर्ष थी बड़ी!
वैदिक दासराज्ञ और सुदास युद्ध में अर्जुन
सुदास के पक्षधर थे, दिलाए उन्हें विजयश्री!
पता नहीं उस युद्ध में आप कहाँ थे किन्तु
बिना विवाह लोमहर्षिणी को बनाए संगिनी!
फिर पता नहीं आपके विवाह और वंशवृद्धि?
क्योंकि आपसे ना वंश चला, ना ही गोत्र कोई!
ना आप मंत्रद्रष्टा, ना ही वेद ऋचाएँ रचना की
फिर भी आप हैं अजर अमर जीवित व पूजित!
व्यक्ति पूजा जाति धर्म नहीं, व्यक्तित्व की होती,
मगर आप जाति वंश नाम से पूजे जाते आज भी!
भ्रमित है भारतीय मूल के ब्राह्मण आपके नाम से,
कश्यप-सूर्य-मनु और अत्रि-चंद्र-बुध-पुरुरवा पूर्वज के भी!
परशुराम के प्रति उस युग की प्रजा में जो घृणा थी
कन्हैयालाल मुंशी ने ‘भगवान परशुराम’ में यूँ उकेरी
शर्यात राजा मधुपुत्र ज्यामघ ने परशुराम से बात की-
राम! जमदग्नि के पुत्र! हमारे स्वजन को तूने मारा
हमारे गोत्र को पीड़ित किया, तू ऋषिपुत्र नहीं यमराज,
तू देव नहीं राक्षस है, तू धर्म नहीं सिखाता, अधर्म का
प्रवर्तन कर रहा, तुमने मारे मेरे पिता, पराए घर बैठ गई
मेरी माता बहनें, मेरे गोत्र का नामोनिशान दिए मिटा–
अस्तु भार्गव नहीं प्रतिनिधि समग्र ब्राह्मण जन के,
परशुराम की जाति वंश गोत्र भृगु ऋषि से निसृत,
परशुराम वर्णवादी घृणा-द्वेष ब्राह्मणवाद पोषक थे,
अत्रिगोत्री हैहयवंशी सहस्रार्जुन; कश्यप संतति रक्षक थे,
कन्हैयालाल मुंशी ने कहा दास, द्रविड़, नाग जाति के,
सहस्रार्जुन हितैषी होने के कारण, परशुराम शत्रु बने थे!
युग सच्चाई यह थी, कि भार्गव ब्राह्मणों में
धन प्राप्ति व धनार्जन की लालसा अति थी!
श्रेष्ठ धर्मज्ञानी सहस्त्रार्जुन ने सप्तद्वीप को,
बाहुबल से जीतकर ब्राह्मण को दानकर दी!
किन्तु लोलुपता वश सम्पत्ति भूमि में गाड़ दी,
कृषिकार्य, जनहित में राजस्व कर अदायगी में,
तत्कालीन भार्गवों में नहीं कोई अभिरुचि थी!
मगर भार्गवों की इच्छा थी राजा वन को जला के,
साफ़ कर कृषि योग्य बना ब्राह्मणों को दान दे दे!
उनकी चाहत थी, गोधन भृगु आश्रम में ही रहे,
दासों के साथ राजा समता भाव नहीं दिखावे!
चाहत बड़ी थी, मगर वे हृदय के बड़े खोटे थे,
भार्गवों का जाति अहं के आगे सभी छोटे थे!
एक प्रसंग है अग्निदेव ने ब्राह्मण बनकर,
चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रार्जुन से याचना की,
वन जलाकर कृषि योग्य भूमि प्राप्ति हेतु!
ब्राह्मण वेशधारी अग्नि देवता की चपेट में
दूसरे ब्राह्मण के आश्रम को लपेटे में ले ली,
भार्गव ने निर्दोष राजा को ब्राह्मण के हाथों
मृत्यु होने की झूठी भविष्यवाणी करा डाली!
विनयं क्षत्रिया: कृत्वोऽप्ययाचंत धनं बहू:।
न ददुस्तेऽतिलोभार्ता नास्ति नास्तिहीति वादिन:।
(भा.पु.6/1614)
श्रीमद्भागवत का यह कथन स्वयं प्रमाण है
कि सहस्त्रार्जुन नहीं कोई शासक अत्याचारी
और परशुराम नहीं थे नायक कोई सदाचारी!
वे दुर्भाव से उपजाए गए सुनियोजित विचार थे
किसी सच्चरित्र महा मानव के चरित्र हनन के,
केवल सहस्रार्जुन ही नहीं राम, कृष्ण, बुद्ध भी
शिकार हुए समय-समय में ऐसे कूटलेखन के!
अस्तु परशुराम नहीं हैं कोई अवतार ईश्वर के,
वे प्रक्षिप्त विचार हैं, कलुषित मानव मन के!
परशुराम नहीं पवित्र पयस्विनी गंगा जल की,
वे पौराणिक सदाचार में मिलाए गए छल थे!
झूठी जाति अहं घृणा द्वेष छल कपट प्रपंच
त्याग सदविचार फैलाए जो, श्रेष्ठ ब्राह्मण वे!
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