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ॐअधिहिभगव: हे भगवन! मुझे आत्मज्ञान दें

हे भगवन! मुझे आत्मज्ञान दें!
मैं मंत्रवेत्ता; चतुर्वेद/पंचमवेद/वेदों का वेद
कल्पसूत्र-निरुक्त-शास्त्र-गणित-विज्ञान का ज्ञाता!
किन्तु दुर्बलचित्/कर्मवित्/मंत्रवित्
शोकाकुल रहता हूँ
अस्तु; आत्मवेत्ता नहीं हूँ!
हे भगवन!
मैं शब्दज्ञानी/अभिधानी/नाम का ज्ञानी
सिर्फ़ नाम गिना सकता हूँ
अस्तु; आत्मवेत्ता नहीं हूँ!
हे भगवन!
मुझे आत्मज्ञान की नौका से
शोक सागर पार करा दें!
  
‘नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेद—
ऋग्वेद, यजुर्वेदादि नाम ही है
ब्रह्मबुद्धि में प्रतिमा सी—यह ब्रह्म है
अस्तु नाम की उपासना करो!
  
यदि नाम की उपासना करता हूँ!
सिर्फ़ नाम तक ही जा पाता हूँ
अस्तु नाम से बढ़कर क्या है?
   
‘वाग्वाव नाम्नो भूयसी—
वाक् नाम से बढ़कर है
वाक् नाम को अर्थ देता
वाक् नहीं तो अर्थ–अनर्थ का
धर्म–अधर्म का/कर्म–अकर्म का
कुछ भान नहीं होता!
अस्तु; ‘वाणी ही ब्रह्म है
वाणी की उपासना करो!’
  
यदि वाणी की उपासना करता हूँ
सिर्फ़ वाणी तक ही पहुँच पाता हूँ
फिर वाणी से बढ़कर क्या है?
  
‘मनोवाव वाचो भूयो—
मन वाणी से बढ़कर है
जैसे दो बेर या दो बहेड़े
मुट्ठी में आ जाते
वैसे नाम और वाक् मन में समा जाते
नाम का जाप/मंत्र का पाठ
मन की इच्छा पर निर्भर है
मन ही लोक/मन ही आत्मा
मन ही ब्रह्म ईश्वर है
अस्तु; ‘मन की उपासना करो!’
  
यदि मन की उपासना करता हूँ
मन की गति तक ही उड़ान भरता हूँ
अस्तु; मन से बढ़कर क्या है?
  
‘संकल्पोवाव मनसो भूयान्यदा—
संकल्प मन से बढ़कर है
जब तक मन संकल्पित नहीं होता
विविक्षा सुप्त, वाणी गुप्त होती
मनस्यन मात्र विविक्षा बुद्धि
संकल्प उसे शक्ति देता वाणी को प्रेरित करके
नाम-काम करने की
मन संकल्पमय/संकल्प में स्थित होता
ज्यों द्युलोक–पृथ्वी/वायु–आकाश/जल–तेज के
संकल्प से वृष्टि होती
अस्तु; संकल्प ही ब्रह्म है
संकल्प की उपासना करो!’
  
यदि संकल्प की उपासना करता हूँ
संकल्प का ही क़ैदी रहता हूँ
अस्तु; संकल्प से बेहतर क्या है?
 
‘चितं वाव संकल्पाद्भूयो—
चित्त संकल्प से महत्तर है
अचेतन मन संकल्प नहीं करता
वाणी अव्यक्त हो तो नाम/काम नहीं होता
कब? कैसे? किसे ग्रहण करें या त्यागें?
समय पर चित् ही चेताता
अस्तु संकल्प-मन-वाणी आदि
चित्त से संचालित/चित्तमय/चित्त में स्थित होता
अस्तु चित्त ही आत्मा
सत्-चित्-आनन्द ब्रह्म है
चित्त की उपासना करो!’
  
यदि चित्त की उपासना करता हूँ
अल्प वित्त भी चितवान होकर
चित्त की गति पा लेता है
अस्तु; चित् से बढ़कर क्या है?
 
‘ध्यानं वाव चित्ताद्भूयो—
ध्यान चित्त से उच्चतर है
पृथ्वी–द्युलोक/पर्वत–जल
सभी ध्यान के ही फल
मनुज ध्यान जब धरता है
वह देव में ढल जाता
एकाग्रता रहित चित्त विचलित
असंकल्पित-क्षुद्र-कलही-उपवादी
मनुज नहीं हो पाता
‘मनुर्भव:मनुष्य बनो’ की वेदोक्ति
व्यर्थ हो जाता
अस्तु; ‘ध्यान ही ब्रह्म है!
ध्यान की उपासना करो!’
 
यदि ध्यान की उपासना करता हूँ
निश्चल देव बन जाता हूँ
अस्तु ध्यान से बढ़कर क्या है?
 
‘विज्ञानं वाव ध्यानाद्भूयो—
विज्ञान ध्यान से श्रेष्ठतर है
विज्ञान ही वेद-भेद/सत्य-असत्य बताता
ध्यान का ध्येय विशेष ज्ञान पाना होता
विज्ञान का काम मनुज को पशु से
ऊपर उठाना होता
अस्तु; ‘विज्ञान ही ब्रह्म है!
विज्ञान की उपासना करो!’
 
यदि विज्ञान की उपासना करता हूँ
विज्ञान आत्मा का रहस्य
सृष्टि की गुत्थी नहीं समझा पाता
अस्तु विज्ञान से बढ़कर क्या है?
 
‘बलं वाव विज्ञानाद्भूयोऽपि—
बल विज्ञान से बढ़कर है
बल से पृथ्वी–अंतरिक्ष–द्युलोक अवस्थित हैं
सौ विज्ञानी पर एक बली भारी पड़ता
बली हीं ऊपर उठता/गमन करता/परिचर्या करता
श्रवण-मनन-बोधन-कर्ता-विज्ञाता होता
अस्तु; ‘बल ही ब्रह्म है!
बल की उपासना करो!’
 
यदि बल की उपासना करता हूँ
बल की गति से बल की गति तक जाता हूँ
बल के विलीन होते ही
बली बिलबिला जाता है
अस्तु; बल से बढ़कर क्या है?
 
‘अन्नं वाव बलाद्भूयस्त—
अन्न बल से बढ़कर है
बिना अन्न का जीवन
अद्रष्टा-अश्रोता-अमन्ता अबोद्धा-
अकर्ता-अविज्ञाता होता है!
अन्न से तन/तन में जीवन
जीवन गमन करता है
अन्नवान ही बलवान होता
अस्तु; अन्न ब्रह्म है
अन्न की अराधना करो!’
 
यदि अन्न की उपासना करता हूँ
फिर भी जाने क्यों डरता हूँ
अस्तु; अन्न से बढ़कर क्या है?
 
‘आपो वावान्नाद्भूयस्यस्त—
जल अन्न से बढ़कर है
नार नहीं तो नर नहीं
यह पृथ्वी, यह अम्बर
यह द्युलोक-पर्वत-पशु-
चर-अचर जलधर है
जल बिना सभी सूना
मोती-मानुष-चूना
अस्तु; ‘जल ही ब्रह्म है
जल की ही करो उपासना!’
 
यदि जल की उपासना करता हूँ
जल से परे जल जाता हूँ
अस्तु; जल से बढ़कर क्या है?
 
‘तेजो वावाद्भूयोभूयस्त—
तेज जल से उच्चतर है
तेज-उमस-ताप/बाप है जल का
बिजली की चमक से मेघ जल बरसाता
तेज वायु को करके निश्चल
आकाश को करके संतप्त
देता है धरा को जल
अस्तु; ‘ तेज ही ब्रह्म है
तेज की उपासना करो!’
 
यदि तेज की उपासना करता हूँ
तेज में समा जाता हूँ
अस्तु; तेज से बढ़कर क्या है?
 
‘आकाशो वाव तेज सो—
आकाश तेज से बढ़कर है
आकाश में स्थित सूर्य-चन्द्र
विद्युत-नक्षत्र-हुताशन
आकाश में ध्वनि/आकाश में अनुश्रवण
आकाश में जीव रमण करता
फिर आकाश की ओर गमन करता है
संभोग-समाधि/शोक-व्याधि
सभी आकाश में, ठोस नहीं
छिद्र-अवकाश में ही होता!
अस्तु; ‘आकाश ही ब्रह्म है!
आकाश की उपासना करो!’
 
यदि आकाश की उपासना करता हूँ
आकाशचारी हो जाता हूँ
आकाश से बढ़कर क्या है?
 
‘स्मरो वावाकाशाद्भूयस्त—
स्मरण आकाश से बढ़कर है
बिना स्मरण श्रवण-मनन-ज्ञापन
दिवा स्वप्न है
स्मरण धर्म है अंत:करण का
स्मृति ही भोगवृत्ति
श्रवण-मनन-विज्ञापन की प्रतीति
स्मरण में ही आकाश की स्थिति
अस्तु; ‘स्मरण ही ब्रह्म है!
स्मरण की उपासना करो!’
 
यदि स्मरण की उपासना करता हूँ
कुछ भी विस्मृत नहीं कर पाता हूँ!
दु:स्मरण मुझे रुलाता है
अस्तु; स्मरण से बढ़कर क्या है?

 
‘आशा वाव स्मराद्भूयस्याशेद्धो—’
आशा स्मरण से श्रेष्ठतर है
आशा-तृष्णा-काम संचरण से
अंत:करण में विषय स्मरण होता
आशा की रज्जु में बंधकर स्मरण
आकाश से नाम पर्यंन्त जीव को घुमाता
अस्तु; ‘आशा ही ब्रह्म है
आशा की उपासना करो!’
 
यदि आशा की उपासना करता हूँ
तभी आशाएं फलती है
अन्यथा आशा भी तो छलती है!
अस्तु; आशा से बढ़कर क्या है?
 
‘प्राणो वा आशायाभूयान्यथा—
प्राण आशा से बढ़कर है
ज्यों रथ चक्र की नाभि में ढेर आरे
त्यों प्राण में समर्पित होते जगत सारे
प्राण; प्राण से गमन करता
प्राण; प्राण के लिए प्राण को देता
प्राण; पिता, प्राण ही माता
प्राण; बहन, प्राण ही भ्राता
प्राण; गुरु/ब्रह्म/ईश्वर/परमेश्वर है
प्राण; पिता/प्राण; माता/प्राण; बहन/प्राण; भ्राता
प्राण; भार्या/प्राण; आचार्य-स्वजन-परिजन-
जीव-जन्तु-पादप-प्राणी-पर्यावरण है
अस्तु हे प्राणी!
प्राण से बढ़कर कुछ नहीं
प्राण की अराधना करो!
 
(छान्दोग्योपनिषद, अ.7 खंड 1से15 तक स्वरचित काव्य)

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