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मानव जीवन का अंतिम पड़ाव विलगाव के साथ आता

 

बच्चों को पढ़ाने लिखाने और योग्य बनाने में 
एक अभावी व्यक्ति स्वप्रयत्न से सफल हो जाता
मगर वही व्यक्ति अक्सर असफल हो जाता 
बच्चों को समय पर शादी-विवाह संपन्न कराने में! 
 
आख़िर कारण क्या हो सकता? 
मनुष्य के लिए बच्चों की शिक्षा है निजी ज़िम्मेवारी 
मगर विवाह संस्कार में चाहिए पारिवारिक भागीदारी
आज सगे सम्बन्धी समाज संवेदना शून्य होने लगा 
रिश्तेदार तेज़ी से अपनापन खोने लगा, बुढ़ापा रोने लगा! 
 
सहोदर भाई-बहन भी सहयोगी नहीं, होने लगे हैं शिकायती 
आज ईमानदार लोगों की है अलग थलक रहने की नियति
अब समय नहीं किसी के पास बोलने बैठने बतियाने का 
ये समय है मोबाइल लेकर सामाजिक दायित्व भूल जाने का 
मोबाइल की नशा है ऐसी कि रिश्तेदारी हो गई ऐसी की तैसी! 
 
आज किसी को पसंद नहीं है अपनों का घर आना जाना 
आज दिल से चाहता भी नहीं है कोई किसी को घर बुलाना 
कोई अतिथि घर आ भी जाए तो चाय के बाद नहीं गर्मजोशी
सबका दिमाग़ चल रहा तेज़ी से, मगर समाज में है ख़ामोशी! 
 
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का स्लोगन राजनैतिक शगूफ़ा हो गया 
आज एक रिश्तेदार दूसरे रिश्तेदार का भड़का हुआ फूफा हो गया
एक अभावग्रस्त व्यक्ति से समृद्ध रिश्तेदार दूरी बनाए रखता 
ऐसे में किसी पिता ने बेटी को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बना दिया 
तो क्या वो पिता ज़िम्मेवारी से मुक्त, प्रेरणा का दूत हो जाता? 
  
नहीं ज़िम्मेवारी कुछ और बढ़ जाती अकेलापन महसूस होता
स्वजाति में योग्य वैवाहिक जोड़ी की सिमट जाती उपलब्धता 
आख़िर कोई पिता एकसाथ जातिवादी व्यवस्था, दहेज़ प्रथा
और स्वजाति की संवेदनहीनता से कबतक लड़ाई लड़ सकता? 
 
एक पिता अपने बच्चों को पढ़ाते लिखाते काफ़ी व्यस्त रहता 
सगे सम्बन्धी रिश्तेदार से बहुत कम मिल जुल पाता
जो अहंकार नहीं मजबूरी है, अमीर ग़रीब में हमेशा से दूरी है, 
जब भी कोई निर्धन व्यक्ति धनी रिश्तेदार के पास जाता 
तो अमीर की सोच होती शायद वो लेने आ गया उधार में पैसा! 
 
ऐसे सामाजिक माहौल में जैसे-तैसे बच्चों के आत्मनिर्भर होते ही
अभावग्रस्त पिता वरिष्ठ नागरिक हो जाता, पर चैन नहीं पाता
सीढ़ी चढ़ते पैर लचकने लगता, बचपन का मित्र बूढ़ा हो जाता! 
  
बुढ़ापे की बीमारी, दूर की यात्रा नहीं कर पाने की मजबूरी, 
नई पीढ़ी से तालमेल नहीं होने की लाचारी, अपनों से दूरी
इस स्थिति में कोई नहीं साथी, पुरानी पीढ़ी मिटने लग जाती
दुनिया छोड़ चुके होते माँ पिता, बुझ जाती स्नेह की दीया बाती! 
 
भाई बंधुओं में मनमुटाव और बँटवारे का होता है समय यही 
भाई बहन के घर जाता नहीं, साला बहनोई भी हो जाता मतलबी, 
सबकी अलग हो जाती दुनिया कोई देता नहीं किसी को दिलासा भी! 
 
गृहस्थाश्रम के अंतिम दौर में निराशा ही निराशा 
मानव जीवन का अंतिम पड़ाव विलगाव के साथ आता 
जिनके होने से जीवन आसान था वैसे प्रियजन से विछोह हो जाता
जिनके साथ आने से जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ छाई थी 
उनके खोने का अहसास, टूटती साँस, टूटता विश्वास और भरोसा भी! 
 

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