तुम सीधे हो सच्चे हो मगर उनकी नज़र में अच्छे नहीं हो
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’15 Jul 2024 (अंक: 257, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
तुम सीधे हो सच्चे हो
मगर उनकी नज़र में अच्छे नहीं हो
क्योंकि तुम उनकी बिरादरी के नहीं हो!
वो बातें करते हैं हमेशा
वसुधा भर लोगों के मानवाधिकार की
पर परे होते हैं पड़ोसी के दुख दर्द से!
उन्हें तुम्हारी उपस्थिति भी
तथाकथित उनकी दुनिया में पसंद नहीं!
उनकी धर्मपोथी के अनुसार
तुम उनके चिह्नित जानी दुश्मन हो!
नफ़रत है उन्हें तुम्हारी छोटी सी कुटिया,
मनमाफ़िक आस्था, पूर्वजों के रीति रिवाज़ से!
तुम बेदख़ल किए जाते रहोगे सारे जहाँ से
जबतक तुम उनकी तरह बुराई,
वेशभूषा, हिंसा की भाषा स्वीकार नहीं लेते!
इसके लिए ज़रूरी नहीं
कि उनकी धर्मपोथी की अच्छाइयों को मानो!
बल्कि इसके लिए आवश्यक है
कि उसकी बुराइयों को आत्मसात कर लो
और अच्छाइयों के ख़िलाफ़ मौन साध लो!
इसके लिए ज़रूरी नहीं कि साधु बन जाओ
बल्कि ज़रूरी है दिखने लगो साधु के जैसा
मगर चेहरे से पूरी तरह मासूमियत त्याग दो!
त्याग दो वैसे सभी भाव भंगिमा भावनाओं को
जो विरासत में माँ पिता से मिले हों
जो मानवीय प्यार नाते रिश्तेदारों से मिले हों!
ओढ़ लो वैसी अमानुषिक पाशविकता को
जो तुम्हें कहीं से नहीं मिली हो
ना ही पशु से, ना देवता से, ना ख़ुदा से!
क्योंकि पशुता विरासती नहीं होती
क्योंकि आदमी है पशु से इतर प्राणी
आदमी ख़ुद ख़ुदा व पशुता का नियंता होता!
आदमी के बुरे कार्य में ख़ुदा की होती नहीं मर्ज़ी
हमेशा आदमी ख़ुदा के नाम पर करता ख़ुदगर्जी!
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