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दुर्गा प्रतिमा नहीं प्रतीक है नारी का

 

दुर्गा प्रतिमा नहीं प्रतीक है नारी का
चाहे कोई उपासक हो सूर्य या चंद्र का
नारी एक सी होती तमाम धर्म की! 
 
नारी दस भुजा होती दुर्गा जैसी
एक से घर, दूसरे से द्वार, तीसरे से
पहली और चौथे से दूसरी दुनिया
 
बाँकी में हथियार जो थामे होती
वो कम ही होती है उनकी सुरक्षा में
ऐसे भी दुर्गा की उत्पत्ति तब होती
 
जब सारे देवों की दैवीय शक्ति
पुरुष जाति में क्षीण होती पौरुष वृत्ति 
जब प्रबल हो जाती दानवी प्रवृत्ति
 
जब देवता भयभीत कायर होकर
अपना-अपना हथियार देता है नारी को
पुरुष स्व दायित्व सौंपता नारी को
 
तब नारी बेचारी बेचैन हो करके
दस भुजा हो जाती है पीठ में बाँधती
पुरुष वंश की विरासत की गठरी
 
झाँसी रानी लक्ष्मीबाई सी रण ठानती
एक हाथ में घोड़े की चाबुक, दूसरे में तलवार 
गोद में बाँध के संतान सीना तानती
 
घर की लक्ष्मी ऐसे ही दुर्गा बन जाती
जब पिता, भाई पति, पुत्र से असहाय होती
दुर्गा प्रतिमा नहीं एक आन है नारी की

आज नारी को जन्म लेना है नारी
लेखनी बनना है, जन्म देना है नर नारी
नारी को घर भरनी, लक्ष्मी है बननी 
 
ऐसे में दुर्गा सी दस भुजा होना
नियति है, परिस्थिति है, हर नारी की
दुर्गा प्रतिमा नहीं, है  पहचान नारी की!! 
 

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