अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पिता बिन कहे सब कहे, माँ कभी चुप ना रहे

पिता जो बिन कहे सब कुछ कहे
उसे पिता कहते हैं! 
 
माता जो कभी चुप ना रहे कहे
मुँह गोहे माँ कहते हैं! 
 
पिता जो रोए बिना आवाज़ के
मुस्कुराए मन ही मन
उसे ही पिता कहते हैं! 
 
माता कभी रोती नहीं सामने
सिर्फ़ उदास हो लेती 
उसे ही माँ कहते हैं! 
 
पिता सोए बच्चों को निहार के
आश्वस्त हो लेते हैं! 
माँ बार-बार निहारती बच्चों को
बलैयाँ लेती कुछ ना हो! 
 
पिता हमेशा ख़्वाब देखते भोली-सी
एक पुत्रवधू को लाने का! 
माता ख़्वाब सँजोए होती बेटी का
एक बेटा-सा गुड्डा पाने का! 
 
पिता ने जैसे देखा अपने पिता को
वैसे ही देखते हैं पुत्र को भी! 
माता को जैसा गुड्डा मिला
वैसा ही तलाशती बेटी के लिए भी! 
 
पिता को वैसी चाहिए वधू
जिसमें दिखे अपनी माँ जैसी ममता, 
तब कहीं बेटे के लिए आश्वस्त होता! 
माँ को चाहिए चाँद सी वधू 
माँ को बचपन से बुढ़ापे तक पसंद है
चाँद-चाँदनी सा गुड्डा-गुड़िया! 
 
पिता की हमेशा से ही चाहत रही 
अपनी माँ-सी प्यारी एक पुत्रवधू हो
और अपने पिता-सा जमाई! 
जिसमें आश्वस्ति-विश्वसनीयता हो
ख़ुशहाल ज़िन्दगी जीने की! 
 
पिता सदा माता-पिता के साथ रहते, 
माता-पिता के बाद अगली पीढ़ी में
आजीवन तलाशते अपने माता-पिता! 
 
कोई पिता छोड़ता नहीं माँ पिता का घर, 
जबकि माँ अपने माँ-पिता को त्याग कर
बसा लेती नया घर मगर भूलती नहीं 
गुड्डा-गुड़िया का खेल, चाँद चाहिए की माँग
बनी रहती लाड़ली अपने माँ पिता की! 
 
मेरे पिता मुझे बाबू, बाबू कहकर चले गए
और माँ गुड़िया, पुतली बुदबुदा के गई! 
मैं बाबू का बाबू हूँ, मेरी बहन माँ की गुड़िया, 
देशी रिवाज़ है पिता व पुत्र को बाबू कहना! 
 
जबकि बेटी गुड़िया, पुतली, परी ही होती 
माँ मासूम होती गुड़ियों सी, गुड्डा-गुड्डी खेली
गुड्डा-गुड़िया जनती, उससे घुल-मिल जाती
और उसकी याद में ही आँखें मूँद लेती! 
 
पिता को चाहिए अपने माता-पिता जैसा 
बहू-बेटा, बेटी-जमाता अन्यथा रहते गुमसुम सा! 
 
गोहे=प्यार दे देखे (आँचलिक शब्द है)

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

ऐतिहासिक

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं