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तुम राम हो और रावण भी

 

मैं कहता हूँ
तुम राम हो और रावण भी
कि ग़लतियाँ करने के पहले
डर जाते हो पिता को यादकर
ख़बरदार की तरह सामने देखकर
कि तुम हो राम होने की ओर अग्रसर! 
 
कोई झूठ बोलने के पहले होंठों 
और गाल पर टिक जाती तर्जनी अंगुली
अपनी प्यारी सी भोली माँ की तरह 
और याद आ जाती माँ की हर सीख
कि तुम राम बनने की राह में चल रहे हो! 
 
तुम राम हो 
कि मुख में कौर डालने के पहले 
तुम्हें अनायास याद आने लगते हैं 
अपने छोटे-छोटे भाई बहन बच्चे
और उम्र में छोटे नाते रक्त रिश्तेदार! 
 
अस्तु अपने राम को होने दो 
अपने अंदर और बाहर चारों दिशाओं में! 
 
कि टाँग दो अपने रावण को 
खूँटी पर अनचाही क़मीज़ की तरह! 
 
कि अपने राम को हो लेने दो 
शिशु से युवा, बड़ा और बालिग भी, 
और पिता के बाद घर का मालिक भी! 
 
ताकि तुम त्याग कर सको
अपने छोटे भाई बहनों, स्वजनों के लिए
ज्येष्ठांश में मिली अधिक जगह ज़मीन, 
घर आँगन, कृषि फ़सल, अन्न, धन-धान्य! 
 
कि तुम हो ना जाओ 
कृपण एक दो हाथ भर जगह ज़मीन, 
अन्न धन स्वर्ण-आभूषण के ख़ातिर! 
 
कि अपने राम को होने दो कुछ और बड़ा, 
युवा से प्रौढ़, प्रौढ़ से वृद्ध परिपक्व होने तक! 
 
ताकि तुम निभा सको, 
अपनी संततियों के लिए पितृ धर्म, 
बेटे को अपने कंधे से बड़ा कर सको, 
बेटियों को बचा सको और पढ़ा लिखा सको, 
बेटे-बेटियों को आत्म निर्भर बना सको! 
 
कि यह एक मातृ-पितृ ऋण है तुम पर
कि तुम कुछ हद तक राम बन गए हो! 
 
इसके बाद कुछ मानवीय सामाजिक, 
राष्ट्रीय, सांस्कृतिक ऋण है तुम्हारे ऊपर, 
कि तुम दीन-हीन के दुःख को बाँट सको! 
 
राष्ट्र के प्रति एक ऋण है तब से, 
जब तुम धरती पर दो पग पर खड़े हुए, 
अन्य चतुष्पद प्राणियों से ऊपर उठ कर! 
 
ये अपनी धरती माँ का ऋण है
जिसको तुम चुकता कर सकते हो, 
बार्डर को दुश्मनों से महफ़ूज़ रख कर, 
या संत, सिपाही, साहित्यकार बन कर! 

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