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तुम कभी नहीं कहते तुलसी कबीर रैदास का डीएनए एक था

 

तुम हमेशा हिन्दू-मुस्लिम के डीएनए एक होने की बातें करते 
ब्राह्मण हरिजन के एक डीएनए होने की बातें कभी नहीं करते? 
तुम कभी नहीं कहते तुलसी, कबीर, रैदास का डीएनए एक था, 
तुमने आजतक कहाँ कहा द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी का डीएनए 
गुरु नानक वेदी, गुरु गोविंद सिंह सोढ़ी, कर्णदेव सिंह कलचुरी, 
जस्सासिंह अहलुवालिया कलाल, सुरी, शौरि का डीएनए एक था? 
 
एक डीएनए होने से एक होते माता पिता ये विज्ञान की भाषा, 
वसुधैव कुटुम्बकम तो है किसी ऋषि मुनि कवि की अभिलाषा, 
जो हक़ीक़त नहीं था कभी नहीं हुआ अभी पता नहीं कब होगा? 
एक डीएनए होने से क्या एक-सा गुणसूत्र जीन-जेनेटिक होता? 
फिर क्या विश्रवा पुत्र रावण विभीषण का डीएनए एक नहीं था? 
 
चलो कुछ क़दम पीछे चलते हैं, वैदिक काल की सीढ़ी पर चढ़ते हैं, 
भार्गव ब्राह्मण जमदग्नि-रेणुका का पुत्र परशुराम और हैहय क्षत्रिय 
सहस्रार्जुन-वेणुका के पुत्र पौत्र प्रपौत्र के मातृ डीएनए एक ही तो था, 
फिर काहे इतना ग़ुस्सा एक गोहरण के बहाने इक्कीस पीढ़ी हत्या? 
क्या लाखों-लाख गोदान करनेवाला क्षत्रिय राजा एक गाय चुराएगा? 
 
इन हैहय वार्ष्णेय यादव मंडल यदुजा जडेजा के पूर्वज यदु की माता
देवयानी थी, जो भार्गव शुक्राचार्य पुत्री, चंद्रवंशी क्षत्रिय ययाति की रानी, 
परशुराम की परबुआ, तो क्या मंडल-कमंडल का डीएनए एक ना हुआ? 
फिर भी आज हिन्दी क्षेत्र में किसी मंडल का बेटा ब्राह्मण की बेटी से 
विवाह कर ले तो डीएनए एक नहीं, श्राद्ध कर देते जीते जी बेटी का! 
 
क्या फ़ायदा डीएनए एक बताने से, सारे मानव में गुण समान होते, 
तेईस जोड़े क्रोमोजोन्स में बाईस जोड़े गुणसूत्र सब में एक जैसे होते, 
एक जोड़ा एक्स वाई मातृ-पितृ गुण से माता पिता को पहचाने जाते, 
सभी मानवों में अपने पूर्वजों के सारे अच्छे बुरे गुण वंशानुगत आते, 
किसी में अधिक सद्गुण विकसित और अधिक दुर्गुण बौने हो जाते! 
 
जब शिशु का जन्म होता शैशवकाल में रब-सा निश्छल निर्गुण होता, 
सिर्फ़ हँसता रोता प्यार करनेवाले से प्यार करता मारनेवाले से डरता, 
ज्यों-ज्यों वयस्क होता शिक्षा औ’ संस्कार से सद्गुण विकसित करता, 
या दुराग्रही से जाति श्रेष्ठता नस्लभेद का दुर्गुण पाकर दुर्जन हो जाता, 
सोच बदलते सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां वाले जिन्नावादी हो जाता! 
 
तुम एको ब्रह्म दूजा नास्ति का अर्थ ब्रह्म एक दूसरा नहीं कोई कहते, 
एकम् सद् विप्रा बहुधा वदन्ति या ब्रह्म एक विप्र भिन्न-भिन्न बोलते, 
तुम स्वभाषा में एकमत नहीं उन्हें विदेशी भाषा अरबी में समझाई गई, 
लाइलाहाइल्लाल्लाह-एक अल्लाह के सिवा इबादत हेतु दूसरा नहीं कोई, 
जो गंगाजल छोड़ के आबे जमजम पीने गए वे गंगोत्री गाथा क्यों सुनेंगे? 
 
पता नहीं जो तुमको छोड़ गए उनसे डीएनए मिलाकर क्या कर लोगे? 
तुम पाँच हज़ार वर्ष में कई बार बदले कभी एक ना थे, वे एक हो गए, 
तुम ब्रह्मा वैवस्वत मनु को पिता कहते, वे अब्राहम नूह आदम संतति, 
जो समझना नहीं चाहे उसे कौन समझाए कि विवस्वान का अर्थ सूर्य, 
आद का मतलब सूर्य, वैवस्वत मनु नूह आदम सूर्यपुत्र से मनुज-आदमी! 
 
तुम तुलसी को पंडित कहते, रैदास की चमड़ी चीरकर जनेऊ दिखाते, 
नारीहर्ता रावण को महापंडित कहते, पता नहीं इमाम-ए-हिन्द राम को 
क्या कहते? ‘पोथी पढ़कर जगमुआ पंडित भया ना कोय ढाई आखर 
प्रेम के पढ़े सो पंडित होय’ ऐसे ज्ञानी कबीर को कब पंडित कहोगे? 
जो तुम्हारे भाई हैं उनसे कब डीएनए मिलाकर जातिवाद मिटाओगे? 
 
डीएनए मिलाकर क्या करोगे घर वापसी पर किस जाति में रखोगे? 
क्या अपनी जाति उपाधि देकर रोटी बेटी का सम्बन्ध बना पाओगे? 
या सिर्फ़ हिन्दू कहकर हरिजन आदिवासी-सी अलग जाति बनाओगे? 
सब मज़हब में डीएनए क्षण में एक, पर हिन्दू डीएनए में कुंडली भारी, 
‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ नारे में ब्राह्मणवाद जातिप्रथा है लाचारी! 

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