अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आज हर जगह संकट में क्यों जी रहा है आदमी? 

 

क्योंकि सच्चाई स्वीकार नहीं कर पा रहा है आदमी! 
सच्चाई ये है कि धर्म मत पंथ अच्छा होता स्वदेशी 
विदेशी मज़हब कराता है धार्मिक ग़ुलामी विदेश की! 
 
आज मज़हब के नाम ज़हर क्यों पी रहा है आदमी? 
क्योंकि मज़हबी बुराई स्वीकार नहीं रहा है आदमी! 
जिस देश में जिस धर्म मत मज़हब का होता आरंभ 
वहाँ उस धर्म मज़हब के अनुयायी में होता नहीं दंभ! 
 
अबके अरबी शेख़ को देख, वो नहीं हैं उतने उन्मादी 
जितने पाकिस्तानी बांग्लादेशी होते जिहादी फ़सादी! 
जिस देश ने विदेशी मज़हब को अंगीकार कर लिया 
वहाँ देश के अनुकूल विदेशी मज़हब में सुधार किया! 
 
देखो इंडोनेशिया को जो सनातनी से इस्लामी हुआ 
मगर अपनी संस्कृति और वल्दियत से प्यार किया! 
जब दिखावे की फ़ितरत ही मौत का कारण हो रही
तब ऐसे दिखावे नोचकर फेंक दो तब बचेगी ज़िन्दगी! 
 
बारंबार ईश्वर अल्लाह पुकारने से सुधरे नहीं स्थिति 
तब छोड़ो उनसे उम्मीद, करो क़लम दवात की बंदगी
अगर दाढ़ी मूँछ की नाईगिरी से हिन्दू मुसलमां होता 
तो ऐसी करतूत को छोड़ देने से ही जीयेगा आदमी! 
 
अगर बुरका ओढ़ के भारत की सीता सलमा हो जाती 
तो नारी उत्थान हेतु छोड़ दो विदेशी पहचान को भी! 
जबसे धर्मांतरितों की पहचान खतना व बपतिस्मा हुई 
तबसे भारतीयता में एकता की भावना कम होती गई! 
 
आज पुजारी के अलावे हिन्दुओं ने छोड़ दिए उपनयन 
पर सनातनी अनुयायियों का हिन्दुत्व हुआ नहीं है कम! 
हिन्दू से धर्मांतरित मुस्लिम ईसाई छोड़ दें वैसे रिवाज़ 
जो पालना उसे ज़रूरी, जो बने पादरी या पढ़ाए नमाज़! 
 
कोई कब तक मौज करेगा फ़सादियों की फ़ौज सजा के? 
कोई कब तक डराए मज़हब की बुराइयों को ख़ौफ़ बनाके? 
एक दिन हर देश धर्म मज़हब में समाज सुधारक आते
जो तर्क ज्ञान विज्ञान शिक्षण से देश को जन्नत बनाते! 
 
कभी सनातन वैदिक धर्म में आवश्यक था जनेऊ धारण 
ब्राह्मण आठ क्षत्रिय ग्यारह वैश्य का बारह वर्ष में उपनयन! 
बग़ैर उपनयन कोई वर्ण कर सकता नहीं था विद्याध्ययन 
ऐसे में ब्राह्मण से क्षत्रिय वैश्य का विलंब से होता शिक्षारंभ! 
 
गुरु नानक देव ने ये भेदपरक उपनयन संस्कार छोड़ दिया 
गुरु गोविंदसिंह ने पंचककार से मंडितकर सबको जोड़ दिया! 
सनातन धर्म चिरंतन, मगर रीति रिवाज़ में होते परिवर्तन, 
फिर भी हिन्दू जैन बौद्ध सिख अनुयायी में होते अपनापन! 
 
जब चारों वेद की शिक्षा थी उदरोपयोगी सिर्फ़ ब्राह्मणों की
तब वेद रटाई जाती थी ब्राह्मणों को, शूद्रों के लिए मनाही, 
आज धर्मांतरित मुस्लिम बच्चों की क़ुरान रटने की नियति 
जैसे वैदिक शिक्षा निरुपयोगी वैसे मदरसा शिक्षा अनुपयोगी! 
 
वामदेव व लड़ झगड़ क्षत्रिय से ब्राह्मण बने विश्वामित्र की 
स्थिति बिगड़ गई कुत्ते का मांस खाने की नौबत आन पड़ी! 
क्षत्रिय वैश्य शूद्र की उपयोगी वृत्ति चल पड़ी गोपालन कृषि 
अब द्विवेदी त्रिवेदी चतुर्वेदी वेद रटते नहीं बदली रोज़ी-रोटी! 
 
समझ लो अपरिवर्तनीय कट्टर मज़हब से होती नहीं भलाई 
कब समझोगे कि विदेशी अरब ईरान होगा नहीं अपना भाई! 
जिन क्रूर कसाई लुटेरे ने लूटा कूटा तेरे पूर्वज माँ बहन को 
उस बर्बर बलात्कारी को आदर्श मान बैठे, ये समझ ना आई! 
 
जबतक ईश्वर अल्लाह ख़ुदा रब को जुदा-जुदा कहेगा आदमी 
तबतक दंगा-फ़साद में मर जाने से नहीं बच पाएगा आदमी! 
यदि आर्थिक शिक्षा छोड़कर सिर्फ़ पूजा नमाज़ करेगा आदमी 
तब जाहिल बनकर आपस में ही लड़ेगा भूखों मरेगा आदमी! 
 
अगर तुम आदमियत को ज़िन्दा बचाने की सोच रखते हो
तो मिलजुल कर रहो, भिन्न वेशभूषा रहन-सहन छोड़ दो! 
जो मनुज-मनुज में भेदभाव करे वैसी दर्जीगिरी भी क्या? 
मानव बनना है तो ज़रूरत दिखावा रहित मानवता दिखा! 
 
यदि मानवता को बचाने के लिए सोच विचार करना हो 
तो मासूमियत भरे चेहरे पर पाशविकता उगाना छोड़ दो! 
गर धर्म मज़हब को आदमी के लिए लाभकारी बनाना हो
तो शिक्षित व परिवर्तनकामी बनो अंधेरगर्दी को छोड़ दो! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

ऐतिहासिक

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं