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मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से तुम ऐसे हो

मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से तुम ऐसे हो, 
मैं को समझ लो, मैं ही चित्त, मैं ही चिंता, मैं चिंतन, 
मैं चित्त की दशा, मैं द्रष्टा, मैं को ही दृष्टि समझ लो! 
 
मैं को चित्त में धारण करो, चिंता से उबरो चिंतन करो, 
मैं मन हूँ, मैं चित्त हूँ, मैं आत्मा हूँ मगर मैं देह नहीं, 
देह अन्न से बनी, प्रकृति का हिस्सा, मिट्टी हो जाती, 
 
धरती व गगन बीच कुछ अधिक कुछ कम न समझो, 
इस रूप बदलती चीज़ों को मैं से जैसे चाहो दर्शन करो, 
सृष्टि में एक परमपुरुष, एक प्रकृति जिसे बदलते देखो! 
 
मैं मन द्रष्टा और दृष्टि जैसे तुम आईने में दिखाई देते, 
आईना अगर साफ़ है, तो गोरे गोरे, काले तो काले लगते, 
काली चीज़ से आईना काले हो जाते, मन भी ऐसे होते! 
 
जिसे मन ही मन समझे स्वजन रिश्ते नाते सगे संबंधी, 
वे तो ईश्वर का एक वसीयतनामा है, जिसे वापस जाना, 
मन में समझो जिनका जो उसे लौटा दो मोह ना करना! 
 
मैं के मन का ही सब मोल है, मिलता यहाँ सब तौल है, 
मैं मन को हर्ष विषाद से परे समझो, ये दुनिया गोल है, 
सुख-दुःख प्रकृति से आते, मन ज्यों समझे वैसे बोल है! 
 
मैं ही मन, मैं ही मानव, मैं को सुर-असुर-ईश्वर पहचानो, 
मैं मन, नहीं देह, मैं मन, नहीं घृणा-स्नेह, चाहे जैसे मानो, 
नारी वक्ष रिझाता, पुरुष सीना खिजाता, मैं पुरुष मन को! 
 
कोई नहीं है अपना, मैं मन को मिथ्या मनन से उबारो, 
कोई नहीं मैं मेरा ममेरा, मन से अमन हो सके तो धारो, 
स्वमन के मनन मानो, दूसरे मन के मनन अस्वीकारो! 
 
मैं के अंतर्मन में झाँको, पराए मनोविकार त्याग कर लो, 
दैहिक आवरण से किसी को मित्र-शत्रु आँकना गुनाह है, 
आंतरिक मन से विचारो, आयातित विचार परित्याग दो! 
 
कोई भी ईश्वर अवतार पैगंबर, मन से बाहर होते नहीं, 
स्वमन के आरपार, कोई सृष्टि रचना संसार होते नहीं, 
जो कल थे, वो आज नहीं, कल ऐसा होगा नहीं समझो! 
 
मन के मनोभाव को निर्मल करो मन को मैला ना करो, 
सुविचार को ग्रहण करो कुविचार को मन से दूर कर दो, 
मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से ही तुम ऐसे हो! 

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