अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से तुम ऐसे हो

मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से तुम ऐसे हो, 
मैं को समझ लो, मैं ही चित्त, मैं ही चिंता, मैं चिंतन, 
मैं चित्त की दशा, मैं द्रष्टा, मैं को ही दृष्टि समझ लो! 
 
मैं को चित्त में धारण करो, चिंता से उबरो चिंतन करो, 
मैं मन हूँ, मैं चित्त हूँ, मैं आत्मा हूँ मगर मैं देह नहीं, 
देह अन्न से बनी, प्रकृति का हिस्सा, मिट्टी हो जाती, 
 
धरती व गगन बीच कुछ अधिक कुछ कम न समझो, 
इस रूप बदलती चीज़ों को मैं से जैसे चाहो दर्शन करो, 
सृष्टि में एक परमपुरुष, एक प्रकृति जिसे बदलते देखो! 
 
मैं मन द्रष्टा और दृष्टि जैसे तुम आईने में दिखाई देते, 
आईना अगर साफ़ है, तो गोरे गोरे, काले तो काले लगते, 
काली चीज़ से आईना काले हो जाते, मन भी ऐसे होते! 
 
जिसे मन ही मन समझे स्वजन रिश्ते नाते सगे संबंधी, 
वे तो ईश्वर का एक वसीयतनामा है, जिसे वापस जाना, 
मन में समझो जिनका जो उसे लौटा दो मोह ना करना! 
 
मैं के मन का ही सब मोल है, मिलता यहाँ सब तौल है, 
मैं मन को हर्ष विषाद से परे समझो, ये दुनिया गोल है, 
सुख-दुःख प्रकृति से आते, मन ज्यों समझे वैसे बोल है! 
 
मैं ही मन, मैं ही मानव, मैं को सुर-असुर-ईश्वर पहचानो, 
मैं मन, नहीं देह, मैं मन, नहीं घृणा-स्नेह, चाहे जैसे मानो, 
नारी वक्ष रिझाता, पुरुष सीना खिजाता, मैं पुरुष मन को! 
 
कोई नहीं है अपना, मैं मन को मिथ्या मनन से उबारो, 
कोई नहीं मैं मेरा ममेरा, मन से अमन हो सके तो धारो, 
स्वमन के मनन मानो, दूसरे मन के मनन अस्वीकारो! 
 
मैं के अंतर्मन में झाँको, पराए मनोविकार त्याग कर लो, 
दैहिक आवरण से किसी को मित्र-शत्रु आँकना गुनाह है, 
आंतरिक मन से विचारो, आयातित विचार परित्याग दो! 
 
कोई भी ईश्वर अवतार पैगंबर, मन से बाहर होते नहीं, 
स्वमन के आरपार, कोई सृष्टि रचना संसार होते नहीं, 
जो कल थे, वो आज नहीं, कल ऐसा होगा नहीं समझो! 
 
मन के मनोभाव को निर्मल करो मन को मैला ना करो, 
सुविचार को ग्रहण करो कुविचार को मन से दूर कर दो, 
मैं ही मन, मैं ही मोह, मन की वजह से ही तुम ऐसे हो! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

ऐतिहासिक

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं