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नारियों के लिए रूढ़ि परम्पराएँ पुरुष से अलग क्यों होतीं? 


–-विनय कुमार विनायक 

नारियों के लिए रूढ़ि परम्पराएँ पुरुष से अलग क्यों होती? 
नारियाँ क्यों नहीं शव को कंधा देती, श्मशान नहीं जाती, 
अपने प्रियजनों की मृत्यु होने पर क्यों नहीं सिर मुँड़ाती? 
क्या नारी करुणा विहीन, परंपरा विरोधी, नास्तिक होती? 
 
नहीं! नारी हृदय में दया ममता करुणा क्षमा शाश्वत होती, 
नारी से उद्भूत सारी मनुज भावनाएँ पुरुष में जाग्रत होतीं, 
नारी की कोख से जन्म लेके, नारी की छाती का दूध पीके, 
कोई पुरुष कहता नारी नरक का द्वार, कोई ख़ुदा की खेती! 
  
अस्तु तमाम नारियाँ डरी हुई पुरुष के छल छंद पाखंड से, 
उन दिनों से, जब नारियों का सिर मुंडित किया जाता था, 
जब युवा वृद्ध विधवा नारियाँ श्मशान ले जाई जाती थीं, 
ढोल बाजे के साथ पति चिता पर ज़िन्दा जलाई जाती थीं! 
 
तब से डरी सहमी हुई शंकाकुल नारियाँ श्मशान नहीं जातीं, 
शव को कंधा नहीं देती, सिर नहीं मुँड़ाती, यूँ नाश हुई अति, 
फिर भी सारे धर्म मज़हब में पुरुष की अति, नारी की दुर्गति, 
पुरुष की चलाई रीति तलाक़ हलाला में नारी ही तो पिसती! 
 
पुरुष दुर्व्यवहार करता नारी से, नारी सह लेती, इंसान जनती, 
कुँवारी कोख से जन्मा कोई कर्ण तो कोई महान ईसा मसीह, 
मगर नारियों पर उँगली उठती चाहे वो मरियम हो या कुंती, 
देव ऋषि पुरुष के दुष्कर्म से अहल्या जैसी नारी शाप झेलती! 
 
आरंभ से ही नारियाँ स्व-इच्छा के विरुद्ध अपहृत होती रहीं 
अंबा अंबिका अंबालिका की तरह, मगर ख़िलाफ़त किसने की
किसी स्त्री पुरुष ने नहीं, अकेले अंबा ने ही पुनर्जन्म ले करके 
स्त्री-पुरुष नहीं किन्नर होकर, अपहरण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी! 
 
सृष्टि के प्रारंभ से ही नारी अपनी लड़ाई ख़ुद अकेले लड़ते रही, 
नारी को नारी से मदद नहीं मिलती, सास बहू का क़िस्सा यही, 
द्रौपदी के चीर हरण पर सास गांधारी की, पट्टी नहीं खुली थी, 
मर्दित केश खुला दिखाए बिना मर्द को, नारी अपमान याद नहीं, 
सच में बिना नारी की करुण पुकार के, आते नहीं भगवान भी! 
 
किसी सीता ने, किसी राधा ने अपनी रामकहानी नहीं लिखी थी, 
मगर सारे वाल्मीकि तुलसी पेरियार, जयदेव विद्यापति सुर ने 
मन माफिक पूर्वाग्रही लांक्षित, मांसल अभिव्यक्ति उकेर दी थी, 
‘सुर सुर तुलसी शशि उड़ुगण केशवदास’ कोई कहे, सब कहे नहीं! 
 
किसी के राम ने अर्धांगिनी सीता की अग्निपरीक्षा ली या नहीं ली, 
किसी के राम ने विप्र धेनु सुर संत हित में, शूद्र हत्या की या नहीं, 
राम ने शबरी के आतिथ्य में जूठे बेर खाए, किसी को दिखी आशिक़ी, 
जाकि रही भावना जैसी कवि लेखक दार्शनिकों ने लिख डाली वैसी! 
 
‘ढोल गवाँर सूद्र पसू नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ में किसी को 
तारने का अर्थ झलकता, कोई ताड़ लेना कहता, कोई प्रताड़ित करना, 
अगर ढोल गँवार शूद्र पशु नारी को ज़रूरत तर जाना, मुक्ति पाना, 
फिर विज्ञ ब्राह्मण को क्यों नहीं तरना, जन्म मृत्यु से मुक्त होना? 
                                                             (सुन्दरकाण्ड 58/3) 
 
अगर ढोल गँवार शूद्र पशु नारी को ताड़ लेना ज़रूरी समय पूर्व ही
ढोल बजेगा कि नहीं, गँवार समझेगा कि नहीं, पशु मारेगा कि नहीं, 
नारी कहीं कुमार्ग पर तो नहीं, तो क्या ब्राह्मण ताड़ने योग्य नहीं? 
ब्राह्मण धर्म में देव ऋषि मानव दानव कुकर्म किए विप्र वेश में ही! 
 
अहल्या बलात्कृत हुई, शापित हुई, जगत जननी सीता अपहरित हुई 
विप्र वेशधारी देव ऋषि रावण से, तो विप्र ताड़न अधिकारी क्यों नहीं? 
ययाति पुत्री माधवी को दान में पाकर विप्र गालव ने चार बार बेची, 
राजबाला रेणुका के हत्यारे पुत्र परशुराम, पति जमदग्नि भी विप्र ही, 
सूतपुत्र कर्ण वनवासी एकलव्य को छलनेवाले की मनोवृति कैसे सही? 
 
तुलसी कहते नारी अधम से अधम, नारी शास्त्र व राजा के वश नहीं, 
‘राखिअ नारि जदपि उर माहि, जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं’ और 
परछाईं पकड़ी जा सकती, नारी गति पकड़ न आए, नारी होती कपटी, 
‘विधिहु न नारि हृदय गति जानि, सकल कपट अघ अवगुण खानि’ 
मानस की नारी दलित आदिवासी रानी देवी क्यों न हो अधम होती! 
                                                                (अरण्यकाण्ड36/5) 
 
सीताहरण के बाद अरण्यकाण्ड में राम से ये कहे भीलनी शबरी, 
‘केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी, अधम जाति मैं जड़मति भारी, 
अधम ते अधम अधम अति नारी, तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी’
शबरी की तरह शिव भार्या महा देवी भवानी बालकाण्ड में कहती, 
‘अब मोहि आपनी किंकर जानी, जदपि सहज जड़ नारि अज्ञानी’! 
                                                           (अरण्यकाण्ड 34/1-2) 
 
‘सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ, सब विधि अगहु अगाध दुराऊ, 
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई, जानि न जाई नारि गति भाई’ 
सिर्फ़ कुब्जा नारी मंथरा नहीं बल्कि समस्त विकलांगों के प्रति 
तुलसी ने व्यापक घृणा फैलाई ‘काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली 
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसुकानि’ व्यंग्य चुभती! 
                                                  (अयोध्याकाण्ड 46/4, 14) 
 
तुलसी के राम ने नारद से कहा, सुनो वेद पुराण श्रुति संत कथन; 
‘काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह कै धारि तिन महँ अति दारुण 
दुखद माया रूपी नारी’ ‘अवगुण मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि 
ताते कीन्ह निवारण मुनि मैं ये जिय जानि’ ‘दीपसिखा सम जुबति
तन, (पुरुष) मन जनि होसि पतंग’ ये अरण्यकाण्ड का है नारी प्रसंग! 
                                                       (अरण्यकाण्ड 43, 44, 46 (ख) 
 
तुलसी कहते ‘भ्राता पिता पुत्र उरगारी, पुरुष मनोहर निरखत नारी 
होई विकल सक मनहि न रोकी, जिमि रबिमणि द्रव रबिहिं बिलोकी’ 
भाई पिता पुत्र क्यों न हो मनोहर पुरुष देख विकल हो जाती नारी, 
नारी गरिमा के विरुद्ध इससे अधिक घृणित कल्पना कहाँ दिखती? 
                                                                (अरण्यकाण्ड 14/3) 
 
अगर फिर कहीं तो मानस में ही, ‘कलिकाल बिहाल किए मनुजा, 
नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा, नहिं तोष विचार न सीतलता, सभी 
जाति कुजाति भए मगता’ तो क्या सतयुग में कुंभज अगस्त ऋषि 
ने स्ववंश लोप भय से स्वनिर्मित पुत्री लोपामुद्रा से शादी नहीं की? 
                               (अरण्यकाण्ड 16/3, उत्तरकांड 101 (ख) 3) 
 
‘आभीर यवन किरात खस, स्वपचादि अति अघ (पाप) रूप जे’ और 
‘अधम जाति मैं बिद्या पाएँ, भयऊँ जथा अहि दूध पिआएँ’काक कहे, 
‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा’ में कौन सी 
लोक मंगल की भावना छिपी हुई, सिवा जातिवादी घृणा दुर्भावना की, 
‘लोक वेद सब भाँति नीचा, जासु छाँह छुइ लेइउं सींचा’ कहाँ से आई? 
                     (उत्तरकांड 105 (ख) 3, 99 (ख), अयोध्याकाण्ड 194/4) 
 
व्यास स्मृति के ‘वर्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः वणिक 
किरात कायस्थ मालाकर कुटुम्बिनः वेरटो मेद चाण्डाल: दास स्वपच 
कोलकाः एतेअंत्यजा समाख्याता चान्ये च गवाशना: एषां संभाष्णात् 
स्नानं दर्शनादर्कबीक्षणम्‘ का मनमानीपूर्ण शब्दसः अनुवाद भी यही! 
(बढ़ई, नाई, ग्वाला, कुम्हार, बनिया, किरात, कायस्थ, कोल चंडाल, भंगी
ये अंत्यज, इनसे बात करने से स्नान, देखने से सूर्य दर्शन से शुद्धि) 
 
अस्तु राम के नाम सोलहवीं सदी में घृणित ब्राह्मणवाद ले आए तुलसी, 
‘बंदउं प्रथम महीसुर चरणा, मोह जनित संशय सब हरना ये विप्र बंदगी, 
‘पूजिय विप्र शील गुणहीना, सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना, दुष्टा धेनु (गौ) 
दुही सुनु भाई, साधु रासभी (गधी) दुही न जाई’ विप्र शूद्र की उपमा कैसी? 
मानव के प्रति घृणा आई कहाँ से ये ‘पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो 
जितेन्द्रियः, निर्दुग्धा चापि गौः पूज्या न च दुग्धवती खरी’ चाणक्य नीति! 
                                                                              (बालकाण्ड1/2) 
 
‘पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा, मन क्रम वचन बिप्र पद पूजा’ और अभी
‘सापत ताड़त परुष कहंता, विप्र पूज्य अस गावहिं संता’, और आगे भी 
‘पूजिय बिप्र सील गुन हीना, सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना’ और भी ऐसी
‘कवच अभेद विप्र गुरु पूजा, यहि सम विजय उपाय न दूजा’ यहाँ तक 
कि रामभक्त हनुमान की जाति नहीं छोड़ी तुलसी ने उनसे कहलवा दी, 
‘प्रातः लेइ जो नाम हमारा तेहि दिन ताहि ना मिले अहारा’ कटु उक्ति! 
                                                 (उत्तरकांड44/4, अरण्यकाण्ड 33/1) 
 
तुलसी ने विप्र निंदक को शाप दिए मानस में मर कर कौआ बनने की, 
‘द्विज निंदक बहू नरक भोग करि, जग जनमइ बायस सरीर धरि’ फिर 
कलियुग में विप्र निंदक बहुत हुए मरे, मगर कौआ की संख्या कहाँ बढ़ी? 
अवध्य पक्षी कौआ और गिद्ध विलुप्त हो रहे बुद्ध जिन सा भारत से, 
तुलसी के अनुसार नारी जन्म से पातकी, तो नारी की मिटी कहाँ हस्ती? 
भ्रूणहत्या के बावजूद नारी पुरुष के बराबर कंधा से कंधा मिलाके चलती! 
                                                                    (उत्तरकांड 120 (ख) 12) 
 
तुलसीदास ने अवधी में दलित हिन्दू नर नारियों को इतनी प्रताड़ना दी 
कि माँ शारदा सिर धुनने लगी, बानगी देखिए ख़ुद तुलसी बाबा ने कही 
‘कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना, सिर धुनि गिरा (शारदा) लगत पछिताना’ 
तुलसी का मानस राम के नाम सृजित, किन्तु सभी स्मृति की पुनरावृत्ति! 
 
तुलसी उवाच ‘सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना, मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना’ 
कलियुग में शूद्र जनेऊ पहनकर, ब्राह्मणों को ज्ञानोपदेश कर दान लेते, 
‘सूद्र करहिं जप-तप नाना, बैठी बरासन (व्यास गद्दी) कहहिं पुराणा’ और
शूद्र नाना प्रकार के जप-तप करके व्यास गद्दी पर बैठके पुराण बाँचते! 
 
‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन् हम तुम्ह ते कछु घाटि, जानइ ब्रह्म सो विप्रवर 
आँखि देखावहिं डाटि’ ब्रह्म को जाने वो ब्राह्मण कह विप्र को डाँटे शूद्र, 
फिर द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ’ राम कथा को प्रतिबंधित कर दिए, 
अस्तु तुलसी कलिकाल में भी शूद्र की शिक्षा और बराबरी के विरोधी थे, 
जाति एकता तो दूर तुलसी ग़ैर ब्राह्मणों के उपनयन को देख चिढ़ते थे, 
जबकि मनु ‘ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः’ त्रिद्विज कहे! 
                                        (उत्तरकांड 98 (ख) 1, 99 (ख) 5, 99 (ख) 
 
तुलसी को चिंता थी वर्णवादी ब्राह्मण धर्म स्थापना की जिस प्रयत्न हेतु, 
तत्कालीन शैव शाक्त निर्गुण वादी अन्य पंथ की बहुत अधिक निंदा की, 
‘हर कहूँ हरि सेवक गुर कहेऊ, सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ, अधम जाति 
मैं बिद्या पाएँ, भयऊँ जथा अहि दूध पिआएँ’ ये जो शैव करें न हरिभक्ति, 
मानस में सर्व धर्म समभाव नहीं, वर्ण जातिगत भेदभाव की है मनःस्थिति, 
बानगी ‘प्रथमहिं बिप्र चरण अति प्रीति, निज निज कर्म निरत श्रुति रीति’ 
                                         (उत्तरकांड 105 (ख), अरण्यकाण्ड15/3) 
 
तुलसी आक्रांता मुग़ल शासक अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल के मित्र 
और महाराणा प्रताप व उनके सर्वस्वदानी भामाशाह के समकालीन थे, 
मगर उनकी रचना में देश की दशा दिशा और समकालीनता नहीं थी, 
बहूसंख्यक हिन्दू राजा और प्रजा का इस्लाम में धर्माँतरण हो रहा था, 
धर्म और कृषि भूमि रक्षा हेतु, भारी जजिया कर चुकाना पड़ रहा था! 
 
हिन्दू नारियाँ मुग़लों के हरम व मीना बाज़ार में धकेली जा रही थी, 
क्षत्रिय खत्तीय खेतिहर घास की रोटी खा रहे थे या लाचार मनसबदारी 
और जागीरदारी के लिए मुग़लों से रोटी-बेटी का सम्बन्ध बना रहे थे, 
पर तुलसी कृषक मज़दूर शूद्र दास नारी को तुलसी स्मृति पढ़ा रहे थे, 
शबर कोल भील को अधम, भामाशाह को वर्णाधम गाली सुना रहे थे! 
 
मनुस्मृति तो तुलसी के मानस से कहीं अच्छी है, जिसमें मनु कहते 
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ जहाँ नारी पूजित वहाँ देव रमते 
वस्तुतः तुलसीदास ने सब वेद पुराण स्मृति रामायण महाभारत आगम 
निगम व चाणक्य नीति से नारी दलित अंत्यज की मानहानि उठा ली, 
अवधी में अनुवाद कर उन जातियों के नर नारी मुख से कहलवा डाली, 
निषाद उक्ति ‘कपटी कायर कुमति कुजाति लोक वेद बाहर सब भांति’
निषाद कहते ‘यह हमार अति बड़ि सेवकाई, लेहि न बासन बसन चुराई’! 
 
जबकि वाल्मीकि के निषादराज ने राम से सेवकाई नहीं मैत्री निभाई
अस्तु: तुलसी ब्राह्मणवाद के अधुनातन अवतार थे, लेखनी चतुराई से 
राम के मर्यादित चरित्र में बदलाव कर ब्राह्मण की अति प्रशंसा गाई, 
‘सुनु गंधर्व कहऊँ मैं तोही, मोही न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही’ राम कहते, 
‘मन क्रम वचन कपट तजि जो कर भूसुर (विप्र) सेव, मोहि समेत बिरंचि 
सिव बस ताकें सब देव’ जो विप्र सेवा करें उनके सर्वदेव होते वशवर्ती! 
                                                                  (अरण्यकाण्ड 32/4, 33) 
 
तुलसी वाल्मीकि जैसे दलित अंत्यज व नारी के प्रति सद्भावी नहीं, 
तुलसी दलित से घृणाभाव व नारी हेतु शंकालु स्वभाव के हिमायती, 
तुलसी येन-केन-प्रकारेण थे जन्मजात ब्राह्मणों के हित साधक व्रती, 
ये वाणी ‘धनवंत कुलीन मलीन अपी, द्विज चिह्न जनेऊ उघार तपी, 
नहिं मान पुरान न बेदहि, जो हरि सेवक संत सही कलि सो’ कैसी? 
 
ये तुलसी वाणी इस कलि में धनी मलीन नीच जाति के होने पर भी 
कुलीन माने जाते, द्विज का चिह्न मात्र जनेऊ रह गया निर्वस्त्र तपी, 
जो वेद पुराण नहीं मानते वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहे जाते, 
क्या ये ऋषि दयानंद के वेद की ओर लौटो, फिर से समस्त सनातनी
उपनयन संस्कार धारण कर श्रेष्ठ आर्य बनो के विरुद्ध विधान नहीं? 
अज्ञ विज्ञ धनी निर्धन ग़ैर ब्राह्मण के लिए उग्र जातिवादी थे तुलसी! 
 
‘ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्याम अधिजायते’ ब्राह्मण जन्म लेते ही 
पृथ्वी में श्रेष्ठ होते चाहे ‘अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्’
मूर्ख या विद्वान हो, “ब्राह्मण संभवेनैव दैवानामपि दैवतम्’ इस भाँति, 
मनुस्मृति के विवादित घृणित श्लोकों को पुनर्जीवित कर गए तुलसी! 
 
तुलसी की भाषा हिन्दी के अनुकूल नहीं, व्याकरणीय त्रुटि से भरी पड़ी, 
गँवार उच्चारण के कारण बिगड़ रही महावीर प्रसाद द्विवेदी की हिन्दी, 
शूद्र को सूद्र, पशु को पसू, नारी को नारि, मुक्त करो हिन्दी के छात्रों को 
तुलसी की अवधी को हिन्दी साहित्य की कक्षा में पढ़ने की लाचारी से, 
तुलसी को पढ़के सब गड़बड़ करते लड़ते झगड़ते कुतर्क करते हिन्दी के
चैनल पर राजनेता, कथा वाचक, हिन्दी के छात्र व्याख्याता और कवि से! 
 
वैयाकरण द्विवेदी की छड़ी चलने दो, हमें गुप्तकृत साकेत, दिनकर कृति 
रश्मिरथी पढ़ने दो, अवधी के मानस को अवधपुरी के मन्दिर में रहने दो, 
माँ शारदे हिन्दी को शुद्धि दो, हिन्दू को सद्बुद्धि दो, बाबा की झोली में 
मानस को भर दो, विद्यापति को मैथिली में डालो, सुर को ब्रज की गली में, 
वेद बाइबिल क़ुरान की तरह तुलसी रामचरितमानस को अपौरुषेय कर दो! 
 
कोई धर्म मज़हब बुरा नहीं, बल्कि बुरी होती उसमें पनपाई गई कुरीति, 
कोई वर्ण जाति हीन नहीं, बल्कि हीन ख़ुद को ख़ुदा बताने की प्रवृत्ति, 
बुरी है धार्मिक मज़हबी अहं वहम दुर्भावना के महिमा मंडन की नीति, 
विज्ञान नहीं, धर्म मज़हब धर्मग्रंथ से फैलती हिंसा, आतंकी गतिविधि! 
 
सर्व धर्मग्रंथ आगम निगम बाइबिल क़ुरान में है समग्र ज्ञान संगृहीत, 
जिसे सद् असद्, वैयक्तिक साम्प्रदायिक, प्राणी के हित अहित में ग्रहित
करते रहे पौरुषेय अपौरुषेय कहकर धर्म मत मज़हब संस्थापक व्यक्ति, 
यानी विज्ञान में सुरक्षा, पर धार्मिक मज़हबी ग्रंथ हैं मारक हथियार भी! 
 
कोई लेखक पूर्वाग्रह मुक्त होता नहीं, आलोचना से परे नहीं कोई कृति, 
विद्यापति सुर तुलसी कालिदास व भवभूति थे आकादमिक साहित्यिक, 
उनकी रचनाएँ आस्था कह कर आलोचना से बाहर नहीं की जा सकती, 
कृति वही अपौरुषेय है जिसमें ईश्वरीय एकता मानवीय समानता होती! 
 
रामकथा के मूल कवि ने रावण से सीता की अस्मिता बचाए रखी थी, 
अपहरित सीता राक्षस नारियों; विभीषण पुत्री त्रिजटा के अभिरक्षा में थी, 
अशोक वाटिका के पुरुष विहीन वातावरण में, रावण के रनिवास में नहीं, 
एक वर्ष की रावण द्वारा दी गई अवधि जबतक सीता स्वयं वर न ले, 
फिर कैसे वाल्मीकि से पेरियार तक आते-आते सीता बलात्कृत हो गई? 
 
आदिकवि के रावण के हाथों से सीता बलात्कार होने से बच गई थी, 
पर आधुनिक रावणों ने नारी सीता माँ की अस्मिता तार-तार कर दी, 
कृष्ण के जीवन में नहीं कोई राधा थी, भागवत महाभारत तक में नहीं, 
कैसे जयदेव विद्यापति सुर ने बालकृष्ण से राधा की केलि करा दी? 
नारी का सम्मान, मानवीय समानता में कब आस्था होगी मानव की? 
 
राम विश्वजनीन आस्था पुरुष, पूजनीय सर्वमान्य भगवान वसुधा के, 
राम को जिसने मरा मरा कहा, वे आदिकवि हो गए राम राम कहके, 
राम को भजे वाल्मीकि भवभूति नानक कबीर तुलसी कामिल बुल्के, 
राम नहीं किसी जाति धर्म के, राम हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सबके, 
पर तुलसी ने राम को नानक कबीर से छिन लिए डोर जनेऊ बाँध के! 
 
राम को मत बाँधो जनेऊ में, राम के बड़े भक्त थे जनेऊ तोड़नेवाले, 
गुरु नानक कबीर, गुरु अर्जुनदेव, जिन्होंने हिन्दू मुस्लिम सब संतों की 
गुरु वाणी सहेज के, गुरुग्रंथ साहिब रच डाले, राम गुणगान बखान के, 
राम के सच्चे अनुयाई गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंद सिंह पिता दशमेश, 
जिन्होंने तिलक जनेऊ की रक्षा में अपने सर्वंवंश बलिदान कर दिए थे
जाति भेद मिटा डाले, नर नारी बराबर कर गए, एकसा नाम उपाधि दे! 

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