जो भाषा थी तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला की वो भाषा थी पूरे देश की
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बख्तियार खिलजी ने नालंदा, बिक्रमशिला, उदंतपुरी
विश्वविद्यालयों को जबसे अग्नि में झोंककर
मगध साम्राज्य के सारे पुस्तकालयों को जला दिया
तब से हमने अपने विद्यालय महाविद्यालय
विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में ताला लगा दिया!
चाहे पुस्तकालय को जला दो या ताला लगा दो
एक ही बात ज्ञान की बाती जो जल जलकर बुझ गई
या बुझी बाती फिर से जलाई ही नहीं गई
कोई माई के लाल उठा न सके ज्ञान पे ढके पर्दे को!
तुम्हारी अपनी भाषा मिट गई संस्कृति छिन गई,
अब हर प्रांत घरेलू बोली को अपनी अस्मिता कहते
या फिर विदेशी भाषा को रटने में गई पीढ़ी नई!
ग्यारह सौ बानवे से बारह सौ तीन तक बख्तियार ने
जिन तमाम ग्रंथ पांडुलिपियाँ पुस्तकें जलाईं
उसी में तो सारे भारत की समेकित एक भाषा थी भाई!
तब से यानी बारहवीं सदी से बीसवीं सदी तक
हम मूक बधिर बिन भाषा के अनपढ़ ग्रामीण हो गए
कभी घरेलू कभी अरबी फारसी अँग्रेज़ी में तुतलाते रहे
कभी उर्दू, कभी अवधी ब्रज बोली को स्वभाषा बताते रहे!
कभी खड़ी बोली को बड़ी देश भाषा करने में लगे थे
भाषा विहीन देश भारत के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
निज भाषा उन्नति अहो सब उन्नति को मूल कहके
उन्नीसवीं सदी के ग़ुलाम भारत में बहुत ही रोए थे!
ब्रज भाषा के कवि मैथिलीशरण गुप्त बीसवीं सदी में
खड़ीबोली को हिन्दी राष्ट्रभाषा बनाने में लगे कह रहे थे
हम क्या थे क्या हो गए क्या होना बाक़ी है अभी
गुरु महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथ से छड़ी खा रहे थे,
वे तो जयशंकर प्रसाद थे ब्रज छोड़ हिन्दी को बना रहे थे!
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद उर्दू छोड़ हिन्दी को सँवार रहे थे,
राष्ट्रकवि दिनकर अंगिका छोड़कर हिन्दी में हुंकार रहे थे,
अनुवादक बच्चन अँग्रेज़ी भाषा से मुँह मोड़ फारसी कवि
खय्याम की रूबाइयों को हिन्दी में गा गाकर सुना रहे थे,
ऐसे ही सब निज बोली छोड़ हिन्दी बोली को बढ़ा रहे थे!
बहुत जोड़-तोड़ कर खड़ी बोली से राष्ट्रभाषा बनाई गई,
मगर ये हिन्दी तक्षशिला विश्वविद्यालय की भाषा नहीं,
मगर ये भाषा अशोक चक्र की सत्यमेव जयते बोल नहीं,
मगर ये नालंदा संस्थापक कुमारगुप्त की राजभाषा नहीं!
मगर ये भाषा बंगाल के पाल शासकों; गोपाल, धर्मपाल की
उदंतपुरी और विक्रमशिला विश्वविद्यालय नहीं बोलती थी!
सच में जो थी भाषा वाल्मीकि व्यास चाणक्य तक्षशिला की
वही भाषा थी संपूर्ण उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम भारतवर्ष की
मगध चेर चोल पाण्ड्य विजय नगरम की संस्कृत संस्कृति!
बख्तियार खिलजी के क़हर से अंधकार के गर्त में गिरी
संस्कृत और संस्कृति की जली राख के ख़ाक से उपजी
प्रांतीय अपभ्रंशित मागधी अर्धमागधी शूरसेनी खड़ीबोली!
मुहम्मद गोरी के बख्तियार की विद्या दहन तिथि
ग्यारह सौ बानवे से स्वभाषा शिक्षा में ग्रहण लगी
हम सिमटे घर, दफ़्तर में चली अरबी फारसी अँग्रेज़ी!
दिल्ली सल्तनत कालीन कबीर वाणी जो गढ़ रहे थे,
वो मेरठ हरियाणा दिल्ली की अक्खड़ खड़ी बोली थी!
चौदहवीं सदी में जो गा रहे थे ‘मैथिल कोकिल कवि'
‘बांगला साहित्य के जनक' ‘नव जयदेव’ विद्यापति
वो मैथिली अंगिका बांगला उड़िया की थी सद्य: बोली
“देसिल बोली सब जन मिट्ठा” विद्यापति पदावली!
मुग़लकालीन नानक-गोविंद, सूर-तुलसी जो लिख रहे थे
वो पंजाबी, ब्रज-अवधी, पंजाब उत्तर प्रदेश की बोली थी!
मगर दक्षिण से जो भी संत दार्शनिक शंकराचार्य,
आलवार रामानुजाचार्य आए वे संस्कृत जानकार थे!
अहम के हम से हम्मे, हमरो, आमि, अमार, हमार,
त्वम से तोंय, तुमी, तू, तोर, तोरो, तोमार, तहरा,
अंग बंग भोज मिथिला मगध की बोली यूँ निकली
इसलिए बिहारी ख़ुद के लिए मैं नहीं, बोलते हम ही!
आमि अहम के म से मैं मेरा, त्वम से तुम तुम्हारा,
खड़ीबोली हिन्दी ने उत्तर भारत में स्थान बना ली
खड़ीबोली क्षेत्र दिल्ली हरियाणा मेरठ में मैं की चलती!
ये तो लंबी निंद्रा के बाद, देश पर थोपी गई सी लगती,
ये दक्षिण भारत से मेल नहीं खाती, कैसे हो आशक्ति?
अगर संस्कृति को पढ़ना तो संस्कृत में देश की नियति,
संस्कृत भाषा में ही है संपूर्ण देश को बाँधने की शक्ति!
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