तुम बेटा नहीं, बेटी ही हो
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’15 Jun 2024 (अंक: 255, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
बड़ा कठिन है एक पिता के लिए
पुत्र और कन्या में अंतर जान पाना
एक किसान की तरह पिता भी
निष्काम भाव से विसर्जित करता है बीज
रजस्वला धरती में बिना विचारे
कि कौन सा बीज नर है/कौन सा नारायणी!
दूर सोरीघर से आती
किहूँ-किहूँ की पुकार ही काफ़ी है
एक पिता के पितृसुख पाने के लिए
पिता; पुत्र या कि कन्या का,
बहुत बाद में जानता है पिता
सुनकर/जानकर/अनुमान करके ही!
बड़ा कठिन है एक पिता के लिए
पुत्र और कन्या के जैविक अंतर को मान पाना!
जिसे समय-समय पर जननी और प्रकृति ही जताती है
एक पिता जब तक सुनता रहता है
पापा-पापा की तुतली आवाज़, मग्न रहता है
टॉफी-मिष्टान की जुगत में
सहलाकर बच्चों के नन्ही-नन्ही चोंच/छोटे-छोटे पेट!
कोई पिता ऐसे में कैसे विश्वास कर सकता
कि अलग-अलग जीव है पुत्र और कन्या
एक जनक जो होता किसान सा भोला भाला
लहलहाते फ़सल पर निहाल होने वाला
जननी के बताने और प्रकृति के चेताने पर भी
मानना नहीं चाहता कि अलग-अलग होना है
पुत्र या कि कन्या का पिता होना!
तब जानकी स्वयं लीपकर पूजाघर/
उठाकर शिवधनुष/पूजकर गौरी-भवानी/
छोड़कर तुतलाना/गुड़िया को साड़ी पहनाना
अहसास दिला देती है पिता को स्वयं ही
कि मैं बेटा नहीं, बेटी ही हूँ!
सृष्टि के आरंभ से ही घर के झाड़ने-बुहारने
सांझबाती देने अतिथि को लोटा भर जल देने
बड़ों के थके पाँव को दबाने से ही जान लेता है
हर पिता कि तुम पुत्र नहीं कन्या हो!
बेटी के इस भोलेपन से ही हर पिता बिन पढ़े
समझ लेता मनुस्मृति का वह विवादास्पद श्लोक
कि नारी बाल्यावस्था भर पिता के वश
यौवन भर पति के वश/पति के बाद पुत्र के वश
पर स्वतंत्र कभी छोड़ी नहीं जा सकती जीवन भर!
युगों का अनुभव है अनपढ़ किसान को भी
कि बेटा गेहूँ का पौधा है
और बेटी धान का बीहन
जिसे स्वजाए क्षेत्र से उखाड़कर,
पराए खेत में रोपना ही पड़ता है!
सदा से अपने ख़ूनेजिगर को अपनी कोख से नोचकर
पराई हथेली में उगाने के पहले हर बेटी का बाप
अपनी क्षमता भर परखता रहा है
उस पराए हाथ की शुचिता-मज़बूती, भरोसा-विश्वास को
कभी राम से तुड़वाकर सीता के उठाए उस शिवधनुष को
कभी सव्यसाची से लक्ष्य भेदाकर
मीनाक्षी याज्ञसेनी सी चमकती-घूमती मीन की आँखें!
अपनी बिटिया के लिए राम को पाने
या अर्जुन को जमाता बनाने के लिए
समझौता करता रहा हर जनक स्त्रैण समधी दशरथ
कुटिल समधिन कैकयी या वाकवीरा कुन्ती के
प्रण-हठ-ठसक से देकर दहेज़ में घोड़ा-हाथी/होण्डा-मारुति
और सुनता रहा अपनी जानकी के ज़मींदोज़ होने की कथा
या अपनी याज्ञसेनी के बर्फ़ में गल जाने की व्यथा!
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