दानवगुरु भार्गव शुक्राचार्य कन्या; यदुकुलमाता देवयानी
काव्य साहित्य | कविता विनय कुमार ’विनायक’1 Aug 2024 (अंक: 258, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
(1)
हे देवयानी!
तुम्हें किस संज्ञा से विभूषित करूँ
कौन सा संबोधन दूँ?
एक पूर्वजा माता!
एक पूर्वज पिता की प्रेयसी-पत्नी!
या नारी एक स्वेच्छाचारिणी!
तुम प्रेयसी और पत्नी थी
चन्द्रवंशी आर्य ययाति की
अस्तु तुम पूर्वजा माता हो
पर सिवा एक नारी,
तुम किस भूमिका में सफल रही?
ययाति की पत्नी होकर भी
क्या बन सकी एक पत्नी?
यदु की माता होकर भी
क्या बन सकी एक माता?
अगर हाँ, तो कहो देवयानी!
ययाति को क्यों तलाशनी पड़ी
एक शर्मिष्ठा?
तुम्हारे लाड़ले युवराज यदु को
क्यों अधिकार वंचित होना पड़ा?
यदु की निर्दोष संतति
क्योंकर आज भी कहलाती
प्रवंचित जातियों की पीढ़ी?
यदु से लेकर सहस्त्रार्जुन तक
सहस्त्रार्जुन से लेकर कृष्ण तक
पुराण से लेकर वर्तमान तक
यदु-सहस्त्रार्जुन के पिछड़े वंशधर
किस स्वत्व के लिए संघर्षरत हैं?
(2)
हे देवयानी!
चक्रवर्ती ययाति की अर्द्धांगिनी!
शापित युवराज यदु की जननी!
क्या तुम यादव-मंडल की हो वंश प्रवर्तिनी?
या हो सिर्फ़ एक स्वछंद मानिनी
एक अभिजात पितृ कुल की दंभी ब्राह्मणी!
फिर क्यों यदु के वंशधर
हैहयवंश शिरोमणि वीर सहस्त्रार्जुन को
तुम्हारी पितृ जाति के अहं अवतारी
परशुराम के प्रण-प्रपंच ने मारा?
माना कि वह ब्राह्मण अहं अवरोधी था
किन्तु समस्त हैहय यदुवंशी क्षत्रिय
कहाँ ब्राह्मण विरोधी था?
फिर क्यों उनकी इक्कीस निर्दोष पीढ़ियों को
परशुराम ने लगातार संहारा?
क्या भूल थी उनकी?
सिर्फ़ अपनी जातीय पहचान को बचाना ही ना!
जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार था
जिसे तुम्हारी पीढ़ी के अतिवाद ने
उनके पूर्वज/तुम्हारे आत्मज यदु से छीना था
फिर क्यों उनकी जातीय पहचान को
मृतप्राय करने पर तुले थे
तुम्हारे मायके वाले?
उनके अस्तित्व से कौन सा ख़तरा था
तुम्हारी पितृ जाति को?
जिसकी आन में तुमने
अपने चक्रवर्ती पति को
स्वयं से तुच्छ वर्ण जाति का माना!
जिसकी बान में तुमने
सुहाग को मात्र खिलौना माना!
जिसकी शान में तुमने
अपने पति को पिता से हीन माना!
उसी जाति ने क्यों तुम्हारे आत्मजों के
वीर वंशधरों को बार-बार बेहथियार कर
मजबूर किया कृषि गोपालन व्यापार
दुग्ध, शाक-सब्ज़ी बेचने के लिए
अर्क, गंध, गाँजा, सुरा निर्माण के लिए
फिर क्यों उन्हें यादव, गोप, अहीर, शौण्डिक,
गाँधी, सुंघनी, गंजवार, सोढ़ी, सुढ़ी, सुड़ी, सुरी, कलचुरी, कलसुरी,
कलाल, कलवार, अहलूवालिया खत्री कहकर तालियाँ पीटी?
ताम्रकार, कस्रवानी, केसरवानी, कानू, मोदक, हलुवाई,
चंद्रसेनी कायस्थ सिन्दुरिया
सबके सब उपेक्षित धान चावल की बोरियाँ
क्यों कहलाने लगीं?
ज़रा बताओ तो माते देवयानी!
विष्णु के समस्त कलाओं के अवतार
पवित्र गीता की वाणी, कर्मयोगेश्वर
यादवेन्द्र कृष्ण तक को क्यों सौ गालियाँ दी गईं?
क्यों उनके अग्रपूजन से
ब्राह्मण समर्थित राज समाज पर गाज गिरने लगी थी?
हे मातेश्वरी देवयानी!
इतने पर भी तुम्हारी पितृ जाति
मान जाती तो ठीक था
किन्तु, ‘गोपःनापितः वणिक किरात कोल कायस्था
इति अंत्यजा समाख्याता. . .’ कहकर
तेरे ज्येष्ठ कुक्षि प्रसून की संततियों को
लहूलुहान की जाती रही
और तुम सदा-सर्वदा से
अपनी जाति पर इठलाती रही!
पर कौन सी तुम्हारी जाति थी
तुम ब्राह्मण की कन्या!
तुम क्षत्रिय की भार्या!
तुम पिछड़े यादव-मंडल की माता!
तुम दासी दानवी की सौत!
तुम दासीपुत्र पुरु की विमाता!
तुम्हारे ज्येष्ठात्मज यदु की संतति
यादव, जादव, जाधव, यदुजा, जडेजा, जाट
शौरि, शूरि, सूरि, सौंधी, सोढ़ी, सुडी, सुदी, सूद
श्रेष्ठी, महाश्रेष्ठी, सेट्ठी, सेठ, महासेठ, सुंडी, खत्री
कल से आजतक द्विज जातियों में दब
और तुम्हारी दासी सौतपुत्र पुरु के पौरव;
चन्द्रकुल-कुरुवंश के गौरव!
तब से अब भी
तुमने अपनी आँखों देखी थी
आज देख रही तुम्हारी संतति!
वाह देवयानी!
तुम ब्राह्मणी; एक अगड़े की कन्या!
किन्तु कैसे बनी
अनेक पिछड़ों की जननी?
(3)
हे देवयानी!
तुम्हारी स्वेच्छाचारिता की चरम परिणति
और महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा ने
आर्यावर्त को बाँटा
महान ययाति संततियों/पंचजन को
जातिवादी सर्प ने चाटा
तुम नारी स्वतंत्रता ही नहीं
नारी स्वछंदता की अधिष्ठात्री देवी!
आज की अति आधुनिका भी
तुम्हारे सम्मुख है मात्र एक बेवी!
तुम नारी स्वातंत्र्य की प्रेरक शक्ति
आज की नारियाँ दिखा तुमसे अनुरक्ति
पराजित कर रही पुरुषों की जाति
अति भौतिकता के इस दौर में
आज के अधिकांश पति
तुम्हारी मुट्ठी में क़ैद होकर
बन रहा यति या ययाति
धर्मांध प्रजाति या वर्णाश्रमी जाति!
एक बीच की स्थिति
न तब थी न आज ही!
तुमने क्रोधी पिता शुक्राचार्य को
सर्वस्व जानकर
उनके ब्रह्मअहं को स्वअस्तित्व मानकर
तुमने हे पतिम्बरा!
अपने पति को नीच कुलजन्मा कहलाकर
उग्र भार्गव ब्राह्मण पिता शुक्राचार्य से
शापित करवायी थी।
(4)
हे देवयानी!
एक सत्ताधिकार संपन्न राजन
बना ब्रह्मअहं का कोप भाजन
और तब से घृणित जातिवादी विभाजन की
खींच दी गई एक रेखा
जिसे तुम, तुम्हारे पिता और पति ने
अपने-अपने रंग में देखा
किन्तु आज तुम्हारी साझी संतति
प्रत्यक्षतः झेल रही उसकी विभीषिका
हाँ मातेश्वरी!
तुम्हारी साझी संतति को साझी संस्कृति ही
तुमसे विरासत में मिली!
तुम माता नहीं अभिजात ब्राह्मणी थी
ययाति पितृत्व नहीं अधिकार भोगी क्षत्रिय था
दानव राजकन्या शर्मिष्ठा विमाता नहीं
एक स्नेहसिक्ता दासी थी
तुम्हारे पिता निष्काम तपी नहीं
कंचन सौध अभिलाषी थे
और इस विषय स्थिति में उद्भूत
अपनी निर्दोष संततियों को
तुम सबने अपनी-अपनी कुंठा से
शापित कर डाला।
(5)
हे देवयानी!
तुम्हारे युवराज पुत्र यदु की संतति को मिली
क्षत्र विहीन वैश्य वणिक की अधोगति
सहस्त्रार्जुन और परशुराम के
इक्कीस युद्ध की बनी पृष्ठभूमि
यह ज्येष्ठ सत्ताधिकार हनन की नव रीति!
अगड़े-पिछड़ों के बीच संघर्ष
क्या नहीं उसी की परिणति?
पुत्र द्रहयु को शापित कर
कहा उसे द्रविड़ जाति का जन्मदाता
जिसकी तुम्हारी आर्य जाति से
आज भी है अलग पता!
तुरु को देकर तुर्किस्तान
वर्जित किया सुख चैन आराम
इनका वंशज तुर्क बर्बर
भूल न सका आर्य भूमि उर्वर
इन्होंने ही इस्लाम क़ुबूल कर
मचाया यहाँ महाक़हर!
अनु के वंशज आनव मानव नहीं
बनाया तुम सबने भोज-म्लेच्छ-दानव!
संज्ञा तो प्राचीन है
किन्तु आज भी अभिनव
पुरु ही पौरवराज बना
अगड़ों का राज समाज बना
जो भी प्रवासी मिला
इस ब्रह्म समर्थित गुट में
वही राजपूत आज बना
उगते सूर्योपासक जन
इसमें आ अभिजात बना!
(6)
हे ब्राह्मणी!
ऐसे ही प्रपंच बीच
तुम्हारी संतति पंचजन
करती रही अपनों का हनन!
हे जननी!
ऐसे ही प्रपंच बीच
तुम्हारी जाति ब्राह्मण
करती रही सब में अनबन!
हे महारानी!
ऐसे ही प्रपंच बीच
तुम्हारा नारी मन
करता रहा पुरुष पर शासन!
दिमाग़ में यति/दिल में कच
मुट्ठी में ययाति को रख
तुम बनती रही महासती!
ऐसे में कोई कैसे रह सकता
एक संयमित महज़ पति!
पुरुषों का भग्न हृदय
शंकाकुल मन/आहत चित्त
होता अतिशय वासना विगलित!
ऐसे में कोई कैसे सोचे
अन्य किसी का हित-अनहित!
तुमसे ही तुम्हारे खिन्न पति
ययाति की विकृत हो गई मति
और आग में घृत बन मिली
तुम्हारे पिता की अहं वृत्ति!
बस तुम्हारे दिलजले पति ने
दिया विरासत में
अपने पुत्रों को अधोगति!
आज भी जैसी की तैसी
जी रही तुम्हारी संतति।
(7)
हे देवयानी!
तुम उस हस्ती की कन्या
जिनकी शुक्राचार्य थी संज्ञा
त्रिलोक प्रसिद्ध छवि जिनकी
जो संजीवनी विद्या के ज्ञाता
दानवों के गुरु भार्गव ब्राह्मण थे!
अरब खाड़ी के महाकवि
काव्या जिनका था उपनाम
मक्का में काव्या धाम
जिनका था निवास स्थान
आज कहलाती कावा
जो उनकी पुरातात्विक स्मृति
अरब की कुरैशी/कुरुजाति से पूजित
एक चौकोर पाषाण
जिसका कुरैशी मुहम्मद ने
वर्जित किया सगुण पूजा अनुष्ठान!
आज का अरब देश
भार्गव और्व ऋषि के नाम से बना
पूर्व में कश्यप भार्या दनु की संतति;
दानवों का था प्रदेश!
दनु थी दक्ष प्रजापति की कन्या
अदिति की अनुजा!
अदिति पुत्र आदित्यों जैसे
दनुपुत्र मातृ संज्ञा से कहलाते थे दानव वे!
दानव; मानव से इतर नहीं
काश्यप आदित्यों के समान ही
वे आदित्यों के दायाद बांधव थे!
पहले अलग पहचान के लिए
बाद में श्रेष्ठता और शान के लिए
कश्यप-अदिति पुत्र आदित्यों ने
अपने दायाद बांधवों
कश्यप-दितिपुत्र दैत्य, कश्यप-दनु पुत्र दानवों
यानी दैत्य-दानवों में घृणा भाव का पुट दिया
जिससे भाई भाई से रूठ गया
और बनाया एक अलग धर्म इस्लाम!
मक्का-मदीना, अरब-अमीरात-इराक-ईरान लेकर
टूट गई विमाता दिति-दनु की दैत्य-दानव संतान!
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