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मेरे सामने वाला

अवस्थी जी के मकान में जब से नया किराएदार आया है तब से न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मेरे घर के लोगों की उत्सुकता थम नहीं पा रही है। सात दिन बीत चुके हैं पर सभी के मन में एक अबूझ जिज्ञासा का भाव तिर रहा है पता नहीं कैसा होगा वह व्यक्ति जो अवस्थी जी के मकान में किराए से रहने आया है। लेकिन आख़िर सबके मन में आशंका क्यों है? क्या अपेक्षा कर रहे हैं सब, क्या करेगा वह किराएदार?

केतन को यह मकान खाली किए हुए कोई दो तीन महीने बीत चुके हैं तब से न जाने कैसा एक अजीब सा खालीपन महसूस होने लगा है। लगता है पतझर के बाद सीधी गर्मी की ऋतु आ गई हो, वसंत आया ही न हो। अवस्थी जी के पड़ोसी सिन्धु जी भी तो मकान खाली कर गए हैं, कोई छ: महीने पहले। उनकी छोटी बेटी शुभा कितनी सुंदर और चंचल थी। कितना भरा भरा लगता था उसके कारण सामने वाला मकान। अब तो उस मकान की रौनक़ ही सब ख़त्म हो गई। सिन्धु जी का ही कोई रिश्तेदार उसमें आकर रह रहा है, ईंट भट्टे का मालिक। शुभा की सूरत मेरी आँखों में घूम रही है। शायद मैंने ऐसी कोई दूसरी लड़की नहीं देखी जो इतनी सुंदर तो हो पर होशियार और सरल स्वभाव की भी हो। एक अच्छी लड़की, हाँ बहुत अच्छी लड़की थी शुभा। कोई दो वर्ष पहले इन्हीं दिनों केतन अवस्थी जी के मकान में रहने आया था। उसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे, बहुत ही प्यारे, भोले भाले। इस नए किराएदार के प्रति तब भी हम लोगों के मन में उत्सुकता थी पर धीरे-धीरे वह उत्सुकता अपने आप मिट गई। केतन बहुत शांत और रिज़र्व था और उसकी पत्नी मीरा भी घर के बाहर सहज ही दिखाई नहीं पड़ती थी। लगता था बहुत ही संतुष्ट परिवार है, अपने आप में ही आनंदित रहने वाला, पूर्णत: सुखी। अवस्थी जी अपने नए किराएदार से बहुत प्रसन्न थे। उनकी नज़र में वह एक आदर्श परिवार था। युवावस्था में इतने शांत, सौम्य और गंभीर कम ही लोग पाए जाते हैं।

सिन्धु जी अपनी नौकरी के अंतिम दिनों में शिमला ट्रांसफ़र होकर चले गए थे। केतन के वहाँ आने के कोई छ: महीने पहले उनका ट्रांसफ़र हो गया था। तब तक ऐसी उम्मीद नहीं थी कि अपने इस अच्छे ख़ासे बने बनाए मकान को छोड़-छाड़ कर शिमला में ही रहने की सोच लेंगे। आख़िर नौकरी करने वाला आदमी कितनी मेहनत और लम्बी योजना के बाद पैसा जोड़-जाड़ कर मकान बनवा पाता है। और अगर उन्हें मकान छोड़ना ही होता तो फिर अवस्थी जी से ऐसा ख़राब झगड़ा क्यों मोल लेते कि बातचीत ही बंद हो जाती। आख़िर अवस्थी जी के केतन जिस पोर्शन में रहता था उस पोर्शन में एक छोटा सा बरामदा ही तो आगे निकलवा लिया था। उस पर सिन्धु जी को भारी आपत्ति हो गई और तूतू-मैंमैं, गाली-गलौज तक नौबत पहुँच गई। अगर अवस्थी जी के तीन-तीन जवान मुस्टण्डे बेटे न होते तो सिन्धु जी उनका जीना हराम कर देते। सिन्धु जी मिलिटरी के आदमी थे, उन्हें अपने बाहुबल पर ख़ासा भरोसा था। यह घटना केतन के मकान में आने के डेढ़ दो साल पहले की है। सिन्धु जी जब शिमला गए तब शांति हुई। उनका बड़ा बेटा भी मिलिटरी में कमीशन पा गया था, बड़ी बेटी की शादी हो गई थी, बचे इस घर में उनकी पत्नी और छोटी बेटी शुभा जो तब बी एस सी में पढ़ रही थी। 

शाम को दुकान से लौटकर मैं कुछ हल्का नाश्ता कर रहा था कि पत्नी पास आकर खड़ी हो गई, बोली "सामने वालों के बच्चे तो बड़े हैं।" मैंने कोई उत्सुकता नहीं ज़ाहिर की आगे जानने की तो वह फिर बोली "बातचीत भी ख़ूब करते हैं, केतन की तरह चुप्पे नहीं हैं।" केतन से अधिकतर लोग इसलिए चिढ़ते थे कि वह बहुत कम बात करता था। उन्हें लगता कि वह घमण्डी है, पर जब एक बार उसे अच्छी तरह जान लो तो लगता कि उससे अधिक भोला दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है। मुझसे तो दुकान पर केतन की बात हो जाती थी इसलिए मैंने उसे समझ लिया था पर अपनी पत्नी को यह समझाने में पूरी तरह असफल रहा था। इसका एक और कारण था, केतन की पत्नी का स्वभाव भी केतन की ही तरह कम बोलने वाला था और वह सामान्य औरतों की तरह न गली में खड़ी होकर आपस में बतियाती न बेमतलब बाहर निकलती थी। केतन के बच्चे भी उन्हीं दोनों की तरह सीधे और चुप्पे थे। 

उन दिनों केतन शाम को अक्सर बरामदे में आकर बैठ जाता था। उन लोगों ने वहाँ बेंत की कुर्सियाँ डाल रखी थीं। कभी-कभी केतन की पत्नी भी वहाँ बैठती और बच्चे खेलते रहते। न कोई शोर गुल न झांय-झांय, न ज़्यादा बातचीत। एक तरफ़ उन लोगों के इस क़दर शांत व्यवहार पर झुँझलाहट होती तो वहीं स्नेह भी उमड़ता। अक्सर वे लोग न कहीं जाते, न कोई उनके यहाँ आता ही। कभी-कभी शाम को पास के बाज़ार और पार्क में टहलकर जल्दी ही वापस आ जाते। सिन्धु जी की पत्नी को अवस्थी जी से पहले ही चिढ़ थी ऊपर से उनके नए किराएदार कुछ इस ढब के थे कि उन्हें निरंतर उनपर ग़ुस्सा आता। वह कहतीं, "पता नही कैसे-कैसे लोग दुनिया में पाए जाते हैं, लगता है जैसे चिड़ियाघर से निकल कर आए हैं। न इंसानों की तरह बातचीत, न मेलमिलाप, न दुआ सलाम।" हालाँकि सिधु जी की पत्नी स्वयं अत्यंत आत्मकेन्द्रित और शक्की क़िस्म की महिला थीं। उन्हें खुद अपने दो एक रिश्तेदारों को छोड़कर बाक़ी मोहल्ले पड़ोस के लोगों से न तो संबंध रखना ही पसंद था न उनके यहाँ आना-जाना। उन्हें अपने पति की कमीशन लेबल तक तरक़्क़ी का भी घमण्ड था और लड़के के मिलिटरी में कमीशंड अफ़सर बन जाने का भी। दोनों लड़कियाँ भी अच्छी पढ़-लिख गई थीं, यह भी संतोष की बात थी। बड़ी लड़की का विवाह एक बड़े व्यापारी परिवार में हो गया था सो उन्हें अड़ोसी-पड़ोसी सब बौने नज़र आते। केतन उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाता था, वह जवान था, शरीर भरा पूरा और सुंदर, सिंचाई विभाग में ऊँचे पद पर कार्यरत परंतु उसे साधारण रहन-सहन और ग़ैर बनावटी जीवन ही पसंद था। शायद चिढ़ का एक कारण यह भी रहा हो पर मुख्य कारण थी शुभा जो तब एम एस सी फ़ायनल में पहुँच चुकी थी। इन दिनों शुभा की शोख़ी बढ़ती जा रही थी और उसकी माँ की चिन्ता भी। वह अक्सर कहतीं कि शुभा एम एस सी कर ले तो अच्छा घर वर देख कर इसके भी हाथ पीले कर दें। बड़ी वाली तो एम एस सी करके कॉलेज में लेक्चरर हो गई है और उसे घर भी अच्छा मिल गया है। शुभा की ज़िद थी कि वह एम एस सी करके किसी अच्छे क्म्पटीशन में बैठेगी और नौकरी लगने के बाद ही शादी के बारे में सोचेगी। 

सिन्धु जी महीने दो महीने में शिमला से घर आते और दो एक दिन रहकर वापस चले जाते। उन दिनों उनके घर में अच्छी ख़ासी चहल-पहल रहती। यार दोस्त जुटते, पार्टी होती, ड्रिंक्स और अच्छा खाना-पीना होता। शुभा भी इतराती घूमती। कभी अपने पिता से लाड़ में कहती, "क्या पापाजी आपने इतनी भीड़भाड़ और शोर कर रखा है कि मेरी पढ़ाई नहीं हो पाती।" पिता कहते "पुत्तर एक ही दिन की तो बात है, कल मैं चला जाऊँगा तब ख़ूब पढ़ना।" यह सुनकर शुभा चुप हो जाती। सिन्धु जी चूँकि प्रमोशन पाकर बड़े अफ़सर बन गए थे सो सिर्फ़ अपने बराबर के स्टेटस वाले लोगों से ही दोस्ती रखते बाक़ी से बस हाय-हेलो कर लेते और इस बात को अपना बड़प्पन समझते। उन्होंने पैसे कमाने और बच्चों को पढ़ाने में कोई कसर नहीं रखी थी। दो-तीन प्लॉट ख़रीद रखे थे, ये मकान जो साढ़े चार हज़ार वर्ग फुट के प्लॉट पर बनवाया था क़रीब दस वर्ष पहले, इसका उन्हें काफ़ी गर्व था। उसके बाद उन्होंने एक फ़िएट कार भी ख़रीद ली। इस तरह वह उच्च मध्यवर्ग के पायदान पर थे जहाँ से निम्न मध्यवर्ग से आवश्यक दूरी बनाए रखना अपने महत्व को प्रदर्शित करने के लिए ज़रूरी होता है। सो सिन्धु जी और उनका परिवार उस मुहल्ले में एक आइलैण्ड की तरह था इसलिए मुहल्ले वालों की भी बहुत अच्छी भावना उनके प्रति नहीं थी। शायद सिन्धु जी को न तो इसकी चिन्ता ही थी न ही अपेक्षा। 

अक्सर शुभा मुहल्ले पड़ोस में किसी के घर नहीं जाती थी, कॉलेज भला और अपना घर भला। ज़्यादा हुआ तो शाम को अपनी सहेलियों के यहाँ हो आई या कभी अपने मामा के यहाँ जो इसी शहर में रहते थे। पढ़ना और शाम को लॉन में माँ के साथ बैठना, आजकल यही उसके शौक़ थे। उस दिन शाम को जब वह किसी काम से हमारे घर आई तो पत्नी ने उसे बड़े प्रेम से बिठाया और गप्पें मारने लगी। बातों-बातों में अवस्थी जी के नए किराएदार के बारे में पत्नी पूछ बैठी, "कैसे हैं ये लोग?”

शुभा बोली "वो तो पागल है, न किसी से बात करता है न हँसता है, गुमसुम मुँह फुलाए बैठा रहता है गुब्बारे की तरह।" 

मेरी पत्नी को इन बातों में काफ़ी रस आया। आख़िर निन्दा रस से अधिक आनंददायी और क्या चीज़ हो सकती है। दोनों ने मिलकर केतन की निन्दा का भरपूर रसास्वादन किया। मुझे लगता था कि केतन के इस चुप चुप व्यवहार के प्रति मेरी पत्नी ही कुछ अधिक द्वेष या ईर्ष्या रखती थी परंतु तब मुझे लगा कि शुभा केतन के इस व्यवहार के प्रति कहीं अधिक अक्रामक है।

उस दिन शुभा का जन्मदिन था, वह बाईस वर्ष की हो गई थी। शाम को जन्मदिन मनाने के लिए उसने अपनी सहेलियों को बुलाया था। माँ बेटी ने मिलकर उनके खाने-पीने का अच्छा ख़ासा इन्तज़ाम किया था। शाम पाँच बजे से ही उसकी सहेलियाँ आनी शुरू हो गईं। शुभा ख़ूब मस्ती में थी, बहुत दिनों बाद नए-नए लकदक कपड़े पहन कर वह चहकती फिर रही थी। आठ दस सहेलियाँ जुटी थीं। कभी कमरे में, कभी बरामदे में और एकाध बार छत पर घेरा बनाकर वे बतियातीं, हँसतीं और मज़े लेतीं। शाम सात बजे के लगभग एकमात्र मेहमान उसके मामा आकर ले गए थे कोई बड़ा सा तोहफ़ा देकर गए थे वह शुभा को। दिल्ली से एक बढ़िया क़ीमती सूट भी लाए थे। केक खाया, थोड़ा बहुत नाश्ता किया और शुभा की माँ के साथ पन्द्रह बीस मिनिट बातें करके वह चले गए। आख़िर लड़कियों के साथ क्या बैठें? उनके जाने के बाद संगीत का दौर शुरू हुआ, दो एक लड़कियों ने जो गा सकती थीं, फ़िल्मी गाने गाए फिर टू इन वन पर उन दिनों आई किसी पॉपुलर गानों का टेप लगा दिया गया। 

केतन उस दिन साइट से थोड़ा लेट ही लौटा था। जीप अवस्थी जी के घर के सामने रुकी तो उसे पड़ोस के घर में चहल पहल और गाने सुनाई दिए। उसने ड्रायवर को जाने की इजाज़त दी और अपना ब्रीफ़केस लेकर जीना चढ़ रहा था तभी लगा कि गाने की आवाज़ कुछ और तेज़ हो गई है। वह जीना चढ़ कर घर के अंदर घुस गया। थोड़ी देर बाद हाथ मुँह धोकर, कपड़े बदलकर केतन और उसकी पत्नी बाहर बरामदे में कुर्सियों पर आकर बैठ गए। वे अक्सर शाम को बरामदे में बैठकर चाय पीते थे। केतन ने मीरा से पूछा, "आज पड़ोस में इतनी चहल पहल और गाने बजाने किसलिए हैं?" मीरा ने बताया, "शायद पड़ोस में जो लड़की है उसका जन्मदिन है।" उस वक़्त सभी लड़कियाँ बरामदे और लॉन में इकट्ठी होकर ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रही थीं। तभी नौकरानी कोल्ड ड्रिन्क लेकर आई और सभी को एक एक गिलास थमा दिया। शुभा उन सब लड़कियों में एकदम अलग और बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। केतन को इस बात का यकायक अहसास हुआ कि वह और उसकी पत्नी दोनों कितने अव्यवहारिक हैं कि पड़ोस में एक लड़की अपना जन्मदिन मना रही है और वे उसे "हप्पी बर्थ डे" भी नहीं कह पा रहे हैं। उन दोनों की चर्चा तब इस विषय पर केन्द्रित हो गई कि इन लोगों ने भी किसी संबंधी, परिजन या आस पड़ोस के लोगों को नहीं बुलाया था हालाँकि दोनों इस बात पर सहमत थे कि छोटे बच्चे तक अपना जन्मदिन अपने साथियों में ही मनाना चाहते हैं फिर यह तो जवान लड़की है और उस पर भी उसके पिता, भाई, बहन सभी बाहर हैं। मीरा ने बताया कि शायद उसके मामा आए थे और कुछ देर रुक कर चले गए। पड़ोसियों से तो इनका कोई रफ़्त-दफ़्त ही नहीं है फिर बात जवान लड़की की है सो क्यों किसी आदमी को बुलाया जाए। मीरा हालाँकि घर से बाहर कहीं जाती-आती नहीं थी, न ही अड़ोस-पड़ोस या मकान मालिक के घर की महिलाओं से ही ज़्यादा बातें करती थी। कभी-कभार ही वह लोगों से बोलती-बतियाती पर स्त्री सुलभ सामान्य व्यवहारिक ज्ञान और जानकारी सिर्फ़ अंदाज़ से ही काफ़ी सही हासिल कर लेती थी। केतन और उसके परिवार के बारे में कुछ लड़कियों की उत्सुकता पता चल रही थी शायद शुभा ने उन्हें बताया होगा कि केतन पागल है और थोड़ी उसकी पत्नी भी, या पत्नी घर-घुस्सू है वग़ैरह। इसलिए जब लड़कियाँ बार-बार पड़ोस के बरामदे की तरफ़ देखने और इशारा करके हँसने-हँसाने लगीं तो केतन और मीरा वहाँ से उठ गए। 

उस दिन इतवार था, अमूमन चाय नश्ता इतवार को दस बजे से पहले नहीं होता था। केतन सुबह छ: बजे ही उठ जाता पर मीरा और बच्चे सात-आठ बजे तक उठते थे। उस दिन भी केतन जल्दी जाग गया और दैनिक क्रिया कर्म से निवृत होकर बाहर बरामदे में आकर बैठ गया। कुछ देर बाद मीरा भी जाग गई और सुबह की चाय बनाकर उसने केतन को दे दी। चाय पीने के बाद केतन शेव करने के लिए उठा, फिर सोचा क्यों न आज शेव बाहर बैठकर ही कर ली जाए सो उसने पानी, शीशा और शेविंग किट मीरा से बाहर ही मँगा लिए। मीरा घर के काम में लग गई, बच्चों के उठने के बाद नाश्ता बनाना था। केतन जब शेव कर रहा था तो उसने देखा कि शुभा छत पर टहल रही है। थोड़ी देर बाद वह सीधी केतन की सीध में अपने टीवी का एन्टीना घुमा रही थी। उसने केतन की ओर देखा, केतन को लगा प्रत्युत्तर में अभिवादन स्वरूप थोड़ा मुस्करा देना चाहिए पर नहीं मुस्करा पाया सोचा कहीं इसका ग़लत अर्थ न निकाल लिया जाए और व्यर्थ में ग़लतफ़हमी पैदा हो जाए। शुभा की बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें निश्चित ही बहुत मोहक है, केतन मन ही मन उसकी तारीफ़ किए बिना न रह सका। शुभा नीचे चली गई, थोडी देर में एक फ़िल्मी गाने की दो लाइनें जोर से उभरीं "दिल है कि मानता नहीं, मुश्किल बड़ी है रस्में मुहब्बत जानता ही नहीं।" पुन: गाने को यहीं रोककर रिवाईंड करके वही लाइनें फिर बजीं। यही गाना रात को भी बज रहा था। केतन को लगा यह गाना शुभा को ज़्यादा प्रिय है पर सिर्फ़ दो लाइनें ही बजाने का अर्थ उसकी समझ में नहीं आया।

बरसात का मौसम आ गया था, शाम घिर आई थी, बादल छाए हुए थे, अचानक ठंडी-ठंडी हवा बहने लगी। केतन और मीरा बाहर बरामदे में निकल आए। सुहावनी हवा से प्रफुल्लित होकर वे अपनी छोटी बेटी द्वारा एक दिन ऐसी ही किसी सुबह कही गई बात को याद करके ख़ुश होने लगे कि "बहुत सुन्दर हवा चल रही है।" जब तुतलाते हुए सुन्दर को उसने सुन्दल कहा था तो कितना अच्छा लगा था और इस बात को वे इस सुन्दर मौक़े पर याद करके आनंदित हो रहे थे। उसी समय एक बेसुरा स्वर उभरा "जब चली ठंडी हवा, जब उठी काली घटा" इसके बाद खेल ख़त्म। मीरा को मज़ा आ गया बोली "गाना तो मौसम के अनुकूल है।" 

केतन हँसा और बोला, "लगता है यहाँ दो ही लाइनें गाने और सुनाने की रवायत है।" 

मीरा बोली, "इतने दिनों तक तो न कभी सुर फूटा न ताल, अचानक कैसे मौसम बदल गया।"

केतन ने अपनी रटी रटाई राय दोहराई, "उम्र का तकाज़ा है, वैसे अच्छी लड़की है।" 

मीरा ने थोड़ा हँसते हुए भृकुटी चढ़ाई, "वैसे कैसे अच्छी लड़की है?"
 
केतन थोड़ा सहमा फिर बोला, "तुम भी क्या बात करती हो।"

 "ठीक है तुम बैठो, मैं तो अब खाना बनाने की तैयारी करने चली, बच्चों को भूख लग रही है," कहकर मीरा घर के अंदर चली गई। 

केतन का मैं बेहद सम्मान करता था, शांत, सौम्य और धीर गंभीर व्यक्ति था वह। अनायास ही उसके प्रति सम्मान का भाव मन में जन्म ले लेता था। मैं जब भी उससे बात करता तो बहुत ही विनम्रता और नर्म लहज़े में बात करता जैसे कि वह मुझसे वर्षों छोटा हो। दो-चार वर्ष छोटा रहा भी होगा परन्तु मैंने जब भी उसे किसी और से भी बात करते देखा तो उसी अंदाज़ में। उसके बात करने में जो भोलापन और मुलायमियत थी वह उसके धीर गंभीर और चुप-चुप रहने वाले गर्वीले स्वभाव से मेल नहीं खाती। आज फिर मेरी पत्नी ने केत्न के लिए निन्दा राग छेड़ दिया। मुझे अचानक समझ में नहीं आया कि क्या हुआ पर जब पत्नी बोली कि शुभा आई थी तो मैं समझ गया कि पत्नी के दुराग्रह को शुभा से कुछ और बल मिला है। मैंने पूछा, "किस काम से आई थी वह?" 

"उस दिन ओवन ले गई थी, उसे ही लौटाने आई थी।" 

मैंने आगे पूछा, "क्या कह रही थी?"

"नहीं कुछ ख़ास नहीं, बस यूँ ही घर द्वार की बातें, अपनी मम्मी और अपने बर्थ डे के बारे में। हाँ वह बोल रही थी कि मम्मी ने ही कहा था कि तू अपनी सहेलियाँ भर बुला ले, बाक़ी लोगों को क्या बुलाना।"

"अच्छा और क्या कह रही थी?" मैंने उत्सुकता जताई।

"कह रही थी कि उनके अपने पड़ोसी अवस्थी जी से अच्छे संबंध हैं नहीं, और जो नए किराएदार आए हैं उनके तो भाव ही नहीं मिलते, बड़े घमण्डी हैं। और शुभा की मम्मी कह रही थीं कि बदतमीज़ भी हैं, ऊपर बरामदे में बैठ जाते हैं।"

मुझे बहुत ग़ुस्सा आया अपनी पत्नी पर, मैंने कहा, "इसमें बदतमीज़ी की क्या बात है? बरामदे में बैठते हैं तो अपने बरामदे में बैठते हैं किसी और के बरामदे में तो नहीं बैठते। और क्या बदतमीज़ी करते हैं वहाँ बैठकर? किसके साथ बदतमीज़ी की उन्होंने, शुभा की मम्मी के साथ या शुभा के साथ?"

पत्नी मेरे तेवर देखकर सहम गई और बोली, "मैंने कहाँ कहा, वह तो शुभा ही कह रही थी कि उसकी मम्मी कहती हैं।"

"उनकी तो किसी के बारे में कुछ भी कहने की आदत है। यह बात तो सारे मोहल्ले वाले जानते हैं।" 

"शुभा कह रही थी उसकी मम्मी को केतन का बाहर बैठना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।"

"वो तो बावली हैं, केतन शरीफ़ आदमी है, बीबी बच्चों वाला। क्या तुम्हें ऐसा लगता है या शुभा कुछ बता रही थी," मैंने पूछा।

वह बोली, "नहीं ऐसा तो नहीं लगता, शुभा तो उसके मज़े ले रही थी, नक़ल उतार रही थी कि कैसे चलता है, कैसे देखता है, कैसे बोलता है और कह रही थी कि शायद अपनी बीबी से बहुत डरता है।"

केतन उस दिन जब घर की बाउंडरी के अंदर दाख़िल हुआ तो उसे शुभा ड्राइंगरूम से निकल कर बरामदे में आती हुई दिखाई दी। दिन भर की थकान और किचकिच के बाद उसे यह एक अच्छा चेंज लगा। केतन सीधा सीढ़ियाँ चढ़कर अपने घर में घुस गया और शुभा अपने लॉन में गार्डन चेयर पर बैठ गई, केतन के छज्जे की ओर मुँह करके। आज उसकी मम्मी उसके पास नहीं थीं, वह बस चुपचाप बैठी थी। केतन उस दिन काफ़ी देर तक बाहर छज्जे में आकर नहीं बैठा और जब वह बाहर आया तो अंधेरा घिर आया था। शुभा उठकर घर के भीतर चली गई थी। तभी कैसेट प्लेयर पर ज़ोर से गाने की वही दो लाइनें बजीं "दिल है कि मानता ही नहीं, मुश्किल है बड़ी रस्मे मुहब्बत जानता ही नहीं" और फिर बंद हो गईं।

यद्यपि एक लम्बे समय के दौरान शुभा हमारे घर दो बार ही आई थी। एक बार ओवन माँगने और दूसरी बार वापस करने, पर न जाने क्यों मेरी पत्नी उसमें कुछ सूँघ पा रही थी। वह शुभा की तो तारीफ़ करती थी और उसे अच्छी लड़की होने की सनद भी दे रही थी पर केतन को अच्छा आदमी मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। मैंने पूछा, "कहीं यह तुम्हारी ईर्ष्या तो नहीं है केतन के प्रति क्योंकि वह और लोगों जैसा एवरेज आदमी नहीं है, उसमें कुछ ख़ास है।" 

पत्नी चिढ़ी और बोली, "क्या ख़ास है, कहीं का राजा नवाब है? देखने सुनने में भी कुछ ख़ास नहीं, हाँ नखरे ज़रूर "स्टार" वाले हैं।"

मैंने कहा, "तो यही तुम्हारी ईर्ष्या का कारण है?"

वह बोली, "नहीं वह अच्छा आदमी नहीं है।"

मैंने पूछा. "उसने तुम्हारे साथ क्या कोई बदतमीज़ी की है।"

वह तैश में बोली, "क्या बात करते हो, मेरे साथ बदतमीज़ी करेगा तो मैं उसका मुँह नहीं नोंच लूँगी।"

"तो फिर तुम उससे क्यों चिढ़ती हो? क्या तुम्हें शुभा ने कुछ कहा?"

अब पत्नी ढीली पड़ गई, बोली, "नहीं शुभा ने तो कुछ नहीं कहा, पर मुझे ऐसा लगता है कि वह शुभा के प्रति आकर्षित है।"

"ऐसा तुम कैसे कह सकती हो?" 

"वह जितनी देर बरामदे में बैठा रहता है और टहलता है, शुभा भी बग़ीचे में होती है।"

"बस करो, यह तुम्हारा कोरा भ्रम है, शुभा बग़ीचे में होती है तो केतन का क्या है? और फिर तुमने दुनिया भर का ठेका ले रखा है क्या? शुभा और उसकी मम्मी से ही तुम्हारा ऐसा क्या संबंध है। शुभा ऐसी भी कोई नासमझ नहीं है, एम एस सी फ़ायनल में है।" पत्नी चुप हो गई थी पर उसकी आँखों में संशय, किसी अप्रत्याशित घटना की आशंका भरी छाया नज़र आ रही थी।

उसी दिन शाम को दुकान पर मुझे केतन मिल गया। वह अपने छोटे बेटे को घुमा रहा था और अपने चश्मे के फ़्रेम में कील डलवाने दुकान पर आ गया था। मैंने पूछा, "केतन बाबू आजकल साइट पर कुछ ज़्यादा काम है क्या, काफ़ी देर से आते हैं।"

वह बोला, "नहीं काम तो कुछ ज़्यादा नहीं है, हाँ साइट थोड़ी दूर ज़रूर है।"

अचानक न जाने क्यों मेरे मुँह से निकला, "ये मकान आपको छोटा नहीं लगता? इसी मोहल्ले में मेरे दोस्त का एक अच्छा फ़्लैट है, आप चाहें तो देख लें।"

केतन थोड़ा असमंजस में पड़ गया, बोला, "अभी तो यहाँ आया हूँ, बार-बार शिफ़्ट करने में दिक़्क़त होती है।"

मैं चुप हो गया पर मुझे लगा जैसे मैं अपनी पत्नी के प्रभाव में आता जा रहा हूँ। मैंने उसके चश्मे में कील लगा दी और वह पैसे देकर चला गया।

केतन की दिनचर्या में अब अनचाहे ही मेरी भी एक रहस्यमयी रुचि पैदा हो गई थी। यद्यपि इसका पूरा श्रेय मेरी पत्नी को जाता था। अब सुबह-शाम मेरी निगाहें अपने आप केतन के बरामदे पर टिक जातीं। अब मुझे ऐसा लगता कि केतन ज़्यादा देर तक बरामदे में बैठता है, पहले कुछ कम बैठा करता था। अब उठ-उठ कर टहलता भी है। मैं फिर सोचता कि यह मेरा भ्रम भी हो सकता है। मैं तो सुबह जल्दी दुकान के लिए निकल जाता हूँ और शाम को भी देर से ही आता हूँ, तब मैं कैसे यह कह सकता हूँ। मेरे मन में धीरे-धीरे एक अंतर्द्वंद्व छिड़ा रहने लगा। कभी लगता, हाँ कुछ गड़बड़ तो है, कभी लगता सब बकवास है। कुछ तय कर पाना मुश्किल ही था। पत्नी ने अब थोड़ा संयम धारण कर लिया था और इस मामले में ज़्यादा रुचि लेना बंद कर दिया था। हाँ अब वह केतन के प्रति उतनी आक्रामक तो नहीं रही थी पर शुभा के लिए उसके मन में जो सहजता थी वह धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। वह कहती, "शुभा लॉन में तभी पानी देती है जब केतन बरामदे में खड़ा होता है, या शुभा भी तब तक बाहर बैठी रहती है जब तक केतन बाहर रहता है।" 

इन दिनों एक और गतिविधि ऐसी थी कि मैं और मेरी पत्नी ग़ौर किए बिना नहीं रह पाते थे। सुबह कॉलेज जाने के समय शुभा और शुभा की मोपेड कुछ ज़्यादा ही शोर करने लगे थे। अपनी माँ से ज़ोर-ज़ोर से कुछ बतियाना, फिर मोपेड को देर तक स्टार्ट रखना, दो एक बार हार्न भी चेक करना, नियमित क्रिया हो गई थी। और मज़ेदार बात यह होती कि इसी वक़्त केतन अपनी शेविंग का सामान लेकर बाहर बरामदे में आ बैठता। शुभा मोपेड निकालती, बाहर वाला गेट बंद करती और एक बार बरामदे की तरफ निगाह फेंकती, केतन भी उस वक़्त बाउण्डरी गेट की ही तरफ़ देख रहा होता। हम पति-पत्नी ने इस बात पर दो तीन बार कुछ रस लेकर, कुछ अनमनी सी बहस की और अंतत: यह पाया कि इसमें कुछ भी विशेष बात नही है, इसे सहज ही लेना चाहिए क्योंकि ऐसी तमाम स्थितियों में केतन की पत्नी भी वहाँ अक्सर मौजूद होती थी। 

मैं और मेरी पत्नी दोनों ने अनकहे ही, मन ही मन यह निर्णय लिया कि केतन और शुभा को लेकर अब अधिक उत्सुकता न पाली जाए। इस मामले की यथासंभव उपेक्षा की जाए क्योंकि और भी काम हैं दुनिया में मुहब्बत की जासूसी के सिवा। इस अनकहे निर्णय पर हम लोगों ने अमल करना शुरू कर दिया और बेवजह की परोक्ष दखलंदाज़ी से हमने अपने हाथ खींच लिए। अब हमें न केतन में कोई बुराई दिखाई देती, न शुभा में। बल्कि वे दोनों अपनी अपनी दुनिया में कहीं अधिक मस्त दिखते। केतन सुबह-सुबह घूमने जाता, लौटकर अपने पामेरियन कुत्ते को टहलाता, शेव करता, बाल्कनी में टहलता, फिर नहाता धोता, नाश्ता करके ऑफ़िस चला जाता। शुभा सबेरे सात-साढ़े सात बजे तैयार होकर निकलती, चहकती, मोपेड स्टार्ट कर कुछ देर तक घर्र-घर्र करती, हार्न बजाती, गेट बंद करती, एक निगाह केतन की बाल्कनी में फेंकती, कॉलेज चली जाती। वह दोपहर में दो ढाई बजे कॉलेज से वापस लौटती, आराम करती, पढ़ती-लिखती और शाम को छह साढ़े छह बजे लॉन में आकर बैठ जाती, टहलती, पेड़-पौधों में पानी देती, अपनी माँ से बातें करती। केतन की जीप अक्सर सात साढ़े सात के बीच आकर रुकती। वह ब्रीफ़केस उठाता, ड्रायवर से जाने को कहता, एक नज़र अपनी बाल्कनी पर फेंकता, फिर धीरे से पड़ोस के लॉन में, और धड़धड़ाता हुआ जीना चढ़ जाता। कुछ देर बाद पति-पत्नी बरामदे में बैठकर चाय पीते दिखाई देते। 

इस बीच शुभा एक दिन किसी काम से फिर हमारे घर आई। पत्नी ने देर तक उससे बातें कीं, वह ख़ुश थी। उसके जाने के बाद वह बोली, "कितनी सोहणी कुड़ी है।" मुझे भी अच्छा लगा, दरअसल अब तक हम दोनों केतन और शुभा के बारे में उन्हें एक दूसरे से जोड़कर कोई बात करने में झिझकते लगे थे। हमें लगता था कि शायद हम ही कहीं ग़लत थे। उस दिन अचानक मैंने पत्नी से पूछ लिया "क्या केतन के बारे में कुछ नहीं कह रही थी शुभा, फिर धीरे से मैंने बात को सँभाला, अब उसकी मम्मी क्या कहती हैं।" 

पत्नी बहुत सहज थी जैसे उसे अंदाज़ा था कि यह सवाल पूछा ही जाएगा। वह बड़े फिलॉसफाना अंदाज़ में बोली, "पता नहीं हमारे समाज में क्या गड़बड़ है कि एक जवान लड़की और किसी जवान आदमी को आसपास भी देख लें तो शक करने लेगेंगे। शुभा कॉलेज जाती है, लौटकर पढ़ाई करती है, सुबह शाम फ़्रेश होने के लिए लॉन में टहलती है, मन बहलाती है। वह कह रही थी कि "केतन तो चुप्पा और घमंडी है पर उसकी पत्नी बहुत अच्छी है।" केतन बीबी-बच्चों वाला है, अब एकदम छड़ा तो है नहीं कि लफंगयाई पर उतर आए, फिर अच्छी नौकरी करता है। थोड़ी बहुत दिल्लगी करता होगा आख़िर शुभा ख़ूबसूरत तो है ही।" 

पत्नी की बात सुनकर मुझे अच्छा भी लगा और आश्चर्य भी हुआ कि यह वही औरत है जो कुछ दिनों पहले तक केतन को छटा हुआ बदमाश मान रही थी। ख़ैर हमने यह स्वीकार कर लिया कि कहीं कुछ ऐसा वैसा नहीं है, वह महज़ हमारा संशयी स्वभाव था जिसके कारण हमें ऐसा भ्रम हुआ था।

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