अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समाचार पत्रों में हिंदी भाषा

आज के चुनावी वातावरण में भाषा की बात करना बेकार लग सकता है। लेकिन जब बात समाचारपत्र से जुड़ी हो तो शीषर्क देख कर शायद ही कोई इसे पढ़ना चाहेगा। पर बात इतनी ज़रूरी है कि अब नहीं लिखा तो बहुत देर हो जायेगी।

बचपन में जब भी हम पिताजी, भाई, बहिन, अध्यापक से भाषा सीखने का तरीका पूछते थे तो एक ही उत्तर मिलता था कि समाचारपत्र प्रतिदिन पढ़ा करो। समाचारपत्र का प्रयोग एक प्रमाणिक हिंदी-अग्रेज़ी शब्दकोश के रूप में किया जाता था। लेकिन आज हम अपने बच्चों, नाती, पोती-पोतों से ऐसा नहीं कह सकते हैं। क्यों? यह विचारणीय है?

समाचारपत्र अपने पद से स्खलित हो गये हैं। ख़ासतौर से सबसे अधिक पढ़े जाने वाले हिंदी समाचारपत्र दैनिक जागरण की हिंदी भाषा का स्तर तो ज़ी टी.वी. की हिंगलिश का भी नाती बन गया है। अपनी बात और स्पष्ट करती हूँ। 15 अप्रैल 2014 को मैं किसी कारणवश मेरठ गई थी, जहाँ ठहरी थी उनके यहाँ भी दैनिक जागरण आता था। अतः चाय के साथ मैंने आदतन दैनिक जागरण पढ़ना शुरू कर दिया। समाचारपत्र में मेरठ शहर के चार पृष्ठ भी थे। चौथे पन्ने के अंतिम चार कालम पढ़ते ही सिर भन्ना गया। हिंदी समाचारपत्र में हिंदी का क्रियाकर्म देख दिल दुख गया। अंग्रेज़ी के शब्दों को हिंदी के वाक्य में प्रयुत्त किया गया था। जैसे- मैंने आस्क किया कि पिक्चर इन्जाय की, क्या फाइट थी।

देखिये 27.4.14 के यात्रा अंक का शीर्षक (नेचर के बीच एडवेंचर ---) क्या हिंदी अखबार में ऐसे शीर्षक होने चाहियें।

आगे देखिये और भी सुभानअल्ला वाक्य है- (इस गर्मी कैम्पिंग भी किया जाये और नये डेस्टिनेशंस का......) इंफ्रा पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिंदी के समाचार पत्र में इस तरह हिंदी जनाज़ा निकाला जा रहा है।

तारीख 9 मई 14 पृष्ठ 18 देखिये (फन के साथ नालेज); (बढ़ती है रीडिंग हैबिट) (ढेर सारा फन) सोचने की बात है कि क्या यह हिंदी का सरलीकरण है? अंग्रेज़ी या किसी भाषा का सरलीकरण यही है, इससे किस का भला होगा? हिंदी का या अंग्रेज़ी का, या दोनों ही अपना रूपरंग खो देंगीं।

ऐसी हिंदी पढ़ कर मेरा सिर घूम जाता है। हिंदी जागरण धन अर्जित करने की लालसा में शायद यह भूलता जा रहा है कि वह जिस हिंदी की रोटी खा रहा है उसकी थाली में छेद कर रहा है। यह अखबार बार-बार ताल ठोंक कर लिखता है कि वह हिंदी का सबसे लोकप्रिय व सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार है, तब उसकी ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक बनती है कि वह सही हिंदी का प्रयोग करे, वाक्यविन्यास व व्याकरण भी, हिंदी के कलेवर को विकृत न करे। मुझे लगता है कि बिकने की अंधी दौड़ में न केवल वह अपने पथ से भटक गये हैं वरन हिंदी भाषा के वृक्ष की जड़ें भी खोद रहे हैं। पर ऐसा करते समय उन्हें यह ध्यान नहीं है कि कल अगर हिंदी भाषा का वृक्ष ही सूख गया तो उनका अखबार ख़ुद-ब-ख़ुद काल कलवित हो जायेगा।

अच्छा व्यापारी वही है जो मादा को पाले, मारने का काम न करे। बुद्धिमानी इसी में है कि समय रहते चेत जायें। हिंदी को मेरा शत् शत् नमन।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

कविता

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं