परिवर्तन
काव्य साहित्य | कविता शैलेन्द्र चौहान8 Jan 2019
कई बार
झुँझलाया हूँ मैं
सड़क के किनारे खड़ा हो
न रुकने पर बस
गिड़गिड़ाया हूँ कई बार
बस कंडक्टर से
ले चलने को गाँव तक
हर बार
कचोटता मेरा मन
कसमसाता
आहत दर्प
अब
गुज़रता मैं
तेज गति वाहनों से
देखता इन्तज़ार करते
ग्रामवासियों को
किनारे सड़क के
नहीं कचोटता मन
न आहत होता दर्प
सोचता --
नहीं मेरे हाथ में लगाम
न पैरों के नीचे ब्रेक
नहीं
अब कोई अपराध बोध भी नहीं
मेरे मन में
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