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ज़िद के आगे भगवान भी हारे 

मूल कहानी: दोज़ स्टब्बर्न सोल्ज़, द बिएलेज़े; चयन एवं पुनर्कथन: इटलो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन; पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

बरसात के दिन थे, बादल गरज रहे थे, बिजली कड़क रही थी, घनघोर वर्षा हो रही थी। एक किसान सिर पर छाता लगाए, धोती हाथों से उठाए तेज़ क़दमों से भागा चला जा रहा था, उसे अगले गाँव पहुँचना था। तूफ़ान हो या आँधी उसको परवाह न थी क्योंकि जाना ज़रूरी था।

राह में एक बूढ़ा मिला उसने पूछा, "ए भले मानुस, ऐसे बदहवास, कहाँ दौड़े जा रहे हो?"

बिना सिर उठाए, बिना चाल धीमी किए किसान ने कहा, "अगले गाँव।"

बूढ़े ने कहा, "भगवान चाहेंगे तो, ऐसे कहना चाहिए।"

किसान रुका बूढ़े की ओर घूरकर देखा, बोला, "भगवान चाहे या न चाहे, मुझे परवाह नहीं, मेरा उस गाँव पहुँचना है बहुत ज़रूरी।"

भगवान की माया! वह बूढ़ाऔर कोई नहीं साक्षात् भगवान ही थे!

"तब तो तुम साल भर भी वहाँ नहीं पहुँच पाओगे, जाओ इस कीचड़ में कूद जाओ और साल भर वहीं रहो।"

अचानक किसान मेंढक बनकर कीचड़ में कूद गया।

एक साल बीत गया, और श्राप टूट गया।

मेंढक फिर किसान बन गया और अपने रास्ते अगले गाँव की ओर चल पड़ा।

थोड़ी दूर जाने के बाद फिर उसे वही बूढ़ा मिला, फिर उसने अपना प्रश्न दोहराया, "भले मानुस  कहाँ जा रहे हो?"

"अगले गाँव।"

"भगवान चाहेंगे तो, ऐसा भी कह सकते हो!"

"भगवान  चाहते हैं तो ठीक, नहीं चाहते हैं तो भी ठीक क्योंकि मैं जानता हूँ आगे क्या होगा, मैं ख़ुद ही कीचड़ में कूद जाऊँगा।"

और इसके बाद कोई कुछ नहीं बोला।

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