अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैसेज और हिन्दी का महल 

स्वतंत्रता की ७५ वाँ वर्ष गाँठ पर बधाई,
जब रोमन में लिखीं व्हटस अप पर आईं 
तब मन में बहुत बेहद चुभन हुई, 
७५ वर्षों में हम अपनी देवनागरी लिपि में, 
बधाई भी लिखना न सीख पाये!
 
अँग्रेज़ चले गये पर, रोमन लिपि में,
अँग्रेज़ीयत छोड़ गये,
दिल ने कहा हम अभी भी ग़ुलाम हैं, उनके!
 
कुछ को मैंने लिखा कि मोबाइल नेटवर्क पर हिन्दी में, 
लिखना हुआ, सरल है, एक प्रयास तो करो,
स्वतंत्रता की इस वर्षगाँठ पर इतना तो करो, 
सब संदेश हिन्दी में लिखा करो, 
हिन्दी भाषी हो इतना तो हिन्दी का मान करो? 
 
अधिकतर ने चुप्पी साध ली, 
कुछ ने हाँ में हाँ मिलाई, 
कुछ ने लिखा उन्हें पता ही नहीं, कैसे लिखें,
पर— 
संदेशे रोमन हिन्दी में ही आते रहे। 
 
एक दो ने हिन्दी में एक दो पंक्तियाँ लिखीं,
हिन्दी में लिखने का प्रयास तो किया,
पर लगा कि वह अब! 
हिन्दी न तो पढ़ते हैं न लिखते हैं, न ही बोलते हैं, 
देवनागरी, हिन्दी प्रदेश के लोग हिन्दी भूल चले हैं।
मेरी आत्मा इसको देख ज़ार-ज़ार, तार-तार हो गई 
ऐसे धरातल पर हिन्दी का पुख़्ता महल बनाने का स्वप्न 
यथार्थ की देहरी पर सिर धुनने लगा।
क्या कभी हम अंग्रेज़ीयत के मोह पाश से स्वतंत्र हो पायेंगे? 
४,९,२०२१ 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

कविता

सामाजिक आलेख

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं