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अटल आकाश

आओ प्रिय, कुछ पल बैठें, इस शीतल वट की छाया, 
चिंता छोड़ें इस जग की, मन से बिसारा दें माया, 
 
निरखें इस नील गगन को, जो निश्चल नित स्थिर है, 
इस संध्या की बेला में, खग अंक लिए प्रमुदित है, 
 
आएगी रजनी बेला, लेकर तारों की झोली, 
बन जाएगा यह अंबर, रत्नों से पूरित थाली, 
 
प्रातः का उगता सूरज, इसको स्वर्णिम कर देगा, 
पर शांत भाव इस नभ का क्षण को भी न विचलित होगा, 
 
फिर वही सूर्य गर्मी में, बन जाता पावक-गोला, 
पाकर उसको छाती पर, क्या कभी व्योम है डोला? 
 
चाँदी के वृहद वृत्त सा, जब-जब निशिकर निकलेगा, 
आकाश उसे भी हँसकर, अपने उर में ले लेगा, 
 
मेघों का गर्जन-तर्जन, भीषण झंझा के झोंके, 
इसकी दृढ़ता के आगे, वे सारे निष्फल होंगे, 
 
फिर याद करो वह बेला, जब इंद्रधनुष बनता है, 
कुछ पल को ही हो चाहे, पर नभ खिल- खिल हंसता है, 
 
कैसे-कैसे परिवर्तन, प्रतिदिन–प्रतिपल सहता है, 
पर चित अपना यह चंचल, फिर भी न कभी करता है, 
 
आओ हम-तुम भी कुछ तो, इस सुंदर नभ से सीखें, 
मिलता है जो, सब सह लें, इस गहरे गगन सरीखे॥

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टिप्पणियाँ

जयदेव 2021/12/10 01:09 AM

अति सुंदर। आओ इस नभ से सीखे, मिलता है जो सह ले, स्वीकारें।

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