प्रिय मित्रो,
भारत में वसंत पंचमी के बाद अगले उत्सव होली की प्रतीक्षा हो रही होगी। उससे भी बड़ा प्रजातन्त्र का उत्सव मनाने के लिए चुनाव की गहमा-गहमी भी आलस्य त्यागने के लिए करवट बदलने लगी होगी। जिस तरह बारात के आगे-आगे ढोल-ताशे वाले चलते हैं वैसे भी चुनावों से पहले आन्दोलन-जीवियों, प्रदर्शनों और जुलूसों की ऋतु भी आ जाती है और वह भी चुनावों से पहले जुटने लगते हैं। पोस्टर छापने वाले नोट छापने लगते हैं, पोस्टर चिपकाने वाले भी चाँदी कूटने लगते हैं। चुनावी सभाओं की भी अपनी ही अलग अर्थ व्यवस्था होती है। कोई दरियाँ किराये पर दे-ले रहा है तो दूसरा कुर्सियों को किराये पर दे रहा है तीसरा उन्हें लगा रहा है। कोई मंच से वायदे करने के लिए माईक टैस्ट कर रहा है तो कोई लाऊड स्पीकर का मुँह घुमा कर विपक्ष को चुप करवाने का प्रयास कर रहा है।
काश कैनेडा में भी चुनाव उतने ही रंगीन होते जितने कि भारत में होते हैं!
एक बात का अफ़सोस मुझे सदा से ही रहा है कि मैं भारत में मतदान के योग्य होने से पहले ही कैनेडा आ गया। भारत में एक बार भी मतदान नहीं किया।
कैनेडा में तो पता ही नहीं चलता कि कब चुनाव आए और कब गए। न तो चुनाव जीतने पर जुलूस निकलते हैं और न ढोल-नगाड़े बजते हैं। भारत में तो हारने वाले के मुहल्ले में विशेष रूप से स्वर अधिक तीव्र हो जाते थे। यहाँ पर पार्टी के नेता के लिए अवश्य किसी बड़े हाल में भीड़ जुट जाती है वरना तो किसी छोटे से हाल में गिनती के लोग इकट्ठे हो गए तो हो गए न हुए तो न हुए। वैसे भी कनेडियन राजनीति के प्रति एक उदासीन समाज है।
ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में अगर जगमीत सिंह, जस्टिन को अपनी उँगलियों पर नचवा ले तो कोई बड़ी बात नहीं।
इस बार के साहित्य कुञ्ज के अंक में डॉ. उषा रानी बंसल का पत्रकारिता के इतिहास से संबंधित एक आलेख प्रकाशित हो रहा है। इसका शीर्षक है “औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति।” मुझे यह लेख ज्ञानवर्द्धक और रोचक लगा। राजनीति और पत्रकारिता का चोल-दामन का साथ है। दोनों एक दूसरे के लिए पराजीवी हैं। आधुनिक युग में समाचार प्रसारण के माध्यम इतने बढ़ गए हैं कि उन पर कोई भी अंकुश लगाना असम्भव सा हो गया है। संभवतः यही कारण है कि जैसे जैसे हम चुनावों के समीप पहुँच रहे हैं, कविताओं और आलेखों में राजनीति के स्वर तीक्ष्ण होने लगे हैं। खेद है कि ऐसी रचनाओं को मैं प्रकाशित करने में असमर्थ हूँ। कृपया राजनैतिक पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रकारिता की परिभाषा को पढ़ें, समझें और अपने रचना को उपयुक्त पत्रिका में प्रकाशन के लिए भेजें।
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शैली 2024/03/15 10:11 PM
भारत की राजनीति और चुनाओं की खूब झाँकी दिखायी। हमलोग तो साक्षात देख ही रहे हैं लेकिन विदेश की खिड़की से कैसा दिखता है माहौल आपको पढ़ कर समझ में आया। वैसे साहित्य और राजनीति का साथ भी चोली दामन का है। कवि या लेखक राजनीतिक परिवेश से कटा कैसे रह सकता है। सीधे तौर पर नहीं लेकिन साहित्य में राजनीति अनर्निहित तो रहती ही है। ये बात सही है कि पत्रिकाओं का फोकस किस विषय पर है ये मायने रखता है। पठनीय सम्पादकीय के लिए धन्यवाद।