प्रिय मित्रो
प्रायः साहित्य कुञ्ज को राजनैतिक घटनाक्रम से दूर रखने का प्रयास करता हूँ और इसमें सफल भी रहा हूँ। परन्तु क्या हम लोग (मेरा आशय लेखकों से है) अ-राजनैतिक लोग हैं? क्या हम चाह कर भी देशीय या वैश्विक राजनीति से दूर रह पाते हैं? दैनंदिन राजनीति का प्रभाव, मेरे विचार में, आम नागरिक की अपेक्षा लेखक पर अधिक पड़ता है। इसका कारण लेखक की संवेदशील प्रवृत्ति है। लेखक समाज की हर संवेदना को चाहे-अनचाहे आत्मसात कर लेता है। यही संवेदना उसकी रचनाओं में प्रतिरोपित होती है।
अब प्रश्न उठता है कि इसमें बुरा क्या है? लेखक समाज का प्रतिबिम्ब है। सामाजिक घटनाक्रम की विवेचना करने का अधिकार उसका भी उतना ही है जितना किसी अन्य सामाजिक प्राणी का। उसे भी कुछ प्रिय और कुछ अप्रिय लग सकता है। प्रशासनिक नीतियों से वह भी पूरे समाज के साथ प्रभावित होता है। यह प्रभाव वैचारिक और व्यवहारिक दोनों ही हो सकता है। फिर वह इन प्रभावों से उत्पन्न हुई अनुभूतियों को अभिव्यक्त क्यों नहीं कर सकता। उस पर कोई अंकुश क्यों हो? यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि हर काल और दुनिया के प्रत्येक देश में लेखकों पर अंकुश भी लगया है और शासन ने उन्हें अपने स्वार्थसिद्धि के लिए प्रयोग भी किया है –विशेषकर समाजवादी/कोम्युनिस्ट देशों में।
समाजवादी विचारधारा भी कुछ विचित्र है। शोषित वर्ग के हितों और अधिकारों के नारे लगाते हुए समाजवादी उन्नायक पूरे समाज का अहित और अधिकार-हनन कर देते हैं। शायद इसीलिए विश्वभर में पिछली सदी के पूर्वाअर्द्ध में उदय होने के बाद सदी के उत्तरार्द्ध में इसका सूर्यास्त भी हो गया। अब जो कोम्युनिस्ट देश बचे हैं वह कोम्युनिस्ट कम और पूँजीवादी अधिक हैं। अर्थात जिस वर्ग के लिए इस विचारधारा ने क्रांति की, उसी वर्ग ने आधी-पौनी सदी के बाद इस विचारधारा को अस्वीकृत कर दिया। क्योंकि इस समाजवादी विचारधारा के प्रशासन जनता की उन अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहे जो उनकी क्रांति का ईंधन थीं। दुनिया के जिन देशों में कोम्युनिस्ट सत्ता में आए उन सभी में पार्टी के नेता अघोषित तानाशाह भी बन गए। पार्टी अपना नेता नहीं बल्कि तानाशाह का चयन करती रही। जब जन-नायक जनता को उत्तरदायी नहीं रहता, वह जनता का अहित करता है, अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए भ्रष्टाचार को जन्म देता है, समाचार के माध्यमों को नियंत्रित करता है और लेखकों की लेखनी पर अंकुश लग देता है। यह सभी कुछ किसी भी कोम्युनिस्ट देश के इतिहास में आप देख सकते हैं, पढ़ सकते हैं।
जैसा कहा जाता है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। लेखक वर्ग और उनका रचनाकर्म भी इस सिद्धांत से अछूता नहीं है। पिछली सदी के दौरान जब कोम्युनिस्ट देशों में स्वतन्त्र विचारधारा के लेखकों को जेलों में ठूँसा जा रहा था तो लोकतान्त्रिक देशों में लेखक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता का आनन्द उठा रहे थे। अति किसी भी वस्तु, विचारधारा और स्वतन्त्रता की बुरी होती है। इसी स्वतन्त्रता का आनन्द उठाते हुए लेखक समाज के प्रति अपने दायित्व को भूल गया। ऐन्द्रिक आनन्द की अनुभूति ही उसके लेखन का पर्याय बनने लगा। उसकी लेखनी विचारहीन, विवेचनहीन और त्वरित हो गई। दुनिया भर के शासकों ने, राजनैतिक दलों ने लेखकों की इस कमज़ोरी का लाभ उठाना आरम्भ कर दिया। दुनियाभर में उन लेखकों को पुरस्कृत किया जाने लगा जो सत्ता की विचारधारा के साथ सहमत होते थे। उनका लेखन अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की प्रशंसा में लिप्त रहने लगा। लेखकों एक आभिजात्य वर्ग पैदा हो गया, यह वर्ग दरबारी लेखक वर्ग बन गया। सरकार जब कहती उठो, उठ खड़े होते और जब कहती बैठो यह लेखक बैठ जाते। अब तनिक सोचिए दोनों ध्रुवों की राजनैतिक विचारधाराओं ने लेखक का लाभ उठाया। जिन लेखकों ने विरोध किया उन्हें प्रताड़ित किया।
ऐसी सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में लेखक का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। यह हमारा सौभाग्य है कि हम उस युग में जी रहे हैं जिसमें लेखक को नियंत्रण करने वाली डोर सत्ता या राजनैतिक दलों के हाथ से सरकती जा रही है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के माध्यम से हम विमर्श के लिए अपने समूह स्वयं बना सकते हैं। हाँ, प्रशासनिक पुरस्कार और सम्मान का प्रलोभन अभी भी बना हुआ है। परन्तु जागरूक लेखक इससे स्वयं को बचा सकता है। लेखक का दायित्व है कि वह समाचारों को एक संतुलित दृष्टिकोण से देखे, विचार करे और फिर उन्हें स्वीकार करे। इंटरनेट के युग में अगर अफ़वाह फैलाना आसान है तो उसे निरस्त करना भी उतना ही आसान है। सारी जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध होती है और केवल आपको प्रयास करना पड़ता है।
इस समय भारत जिस दौर से गुज़र रहा है वह सभी की भावनाओं को आन्दोलित कर रहा है। राजनैतिक दल, समाचार के बिके हुए मीडिया हाउस भ्रम की परिस्थिति पैदा कर रहे हैं। यह पहले भी हम देख चुके हैं। अब इसी किसान आन्दोलन को ही देख लें। आरम्भ में बहुत कुछ किसानों की पीड़ा के बारे में लिखा गया। साहित्य कुञ्ज में प्रकाशन के लिए भेजा गया जिसे मैंने प्रकाशित नहीं किया। जिस शांतिपूर्ण प्रदर्शन में पहले ही दिन से खालिस्तानी और कोम्युनिस्ट पार्टी के झंडे दिखने लगें वह आन्दोलन न तो शांतिपूर्ण रह सकता था और न ही वह किसान का आन्दोलन था। क्योंकि ग़रीब किसान जिसकी परिस्थिति को सरकार सुधारने का प्रयास कर रही है, उसके पास न तो समय है और न ही साधन है कि वह इस तरह धरने पर बैठ सके। फिर लेखक क्यों बह गए आन्दोलन के नारों में? अब राजनीति का कुरूप चेहरा उभरने लगा है, मुझे पूरा विश्वास है कि जिन लेखकों की त्वरित लेखनी ने तथाकथित किसानों को वाणी दी थी, अपने निर्णय पुनर्विचार कर रहे होंगे। अब शायद यह भी समझ आने लगा होगा कि मैंने उन रचनाओं को क्यों प्रकाशित नहीं किया।
— सुमन कुमार घई
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