प्रायः कहा जाता है कि लेखक मूलतः स्वतन्त्र प्राणी है। वैसे यह कहा तो हर विधा के कलाकार के विषय में जाता है परन्तु लेखक छाती ठोक कर इसका सदियों से दम भरते आए हैं। क्या यह निर्विवादित सत्य है? क्या यह स्वतन्त्रता वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है? अगर यह स्वतन्त्रता है तो इसके कोई मापदण्ड हैं, अगर हैं तो क्या हैं? इसकी सीमा क्या है? क्या स्वतन्त्रता की भी सीमा होती है?
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ एक व्यक्ति या व्यक्तियों के अपने विचारों, विश्वासों और विभिन्न मुद्दों के बारे में अपने विचारों को प्रशासन के प्रतिबंधों और नियन्त्रण के बिना, व्यक्त करने की स्वतन्त्रता है। क्योंकि यहाँ स्वतन्त्रता का अर्थ व्यापक है तो मैं इसे साहित्यिक संदर्भ में सीमित रखने का प्रयास करूँगा।
इस परिभाषा का मूल यूनानी सभ्यता के गणतन्त्र में ’पाराज़िआ’ (Parrhesia) को माना जा सकता है। इसका शाब्दिक अर्थ है स्वतन्त्र और स्पष्ट बोलना। इसी के आधार पर लगभग सभी प्रजातान्त्रिक देशों के संविधानों द्वारा यह स्वतन्त्रता अपने नागरिकों को दी गई है। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि लगभग सभी देशों के प्रशासनों ने समय-समय पर इस संवैधानिक अधिकार पर अंकुश लगाया और लेखकों ने इसका विरोध किया।
साहित्यिक अभिव्यक्ति समाज के विचारों, परिस्थितियों, दर्शनों, संस्कृतियों की अभिव्यक्ति होती है। और यह सभी घटक साहित्यिक अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं। परिस्थितियों के बदलने से विचार, संस्कृति और दर्शन तक बदल जाता है और फिर साहित्यिक अभिव्यक्ति कैसे स्वतन्त्र रह सकती है? यहीं तो पेंच फँसता है। मैंने सहजता से लिख दिया कि "साहित्यिक अभिव्यक्ति कैसे स्वतन्त्र रह सकती है"। साहित्यिक अभिव्यक्ति सामाजिक परिस्थितियों से स्वतन्त्र नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि मानवीय सम्वेदनाएँ परिस्थितियों से जन्म लेती हैं और लेखन इन्हीं सम्वेदनाओं की अभिव्यक्ति ही तो होता है। आप दलील दे सकते हैं कि सम्वेदनाओं की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमा लेखक तय करता है। सम्वेदनाओं पर प्रशासन का नियन्त्रण और प्रतिबंध नहीं हो सकता। आप सही कहते हैं, परन्तु सामाजिक दायित्व का प्रश्न भी सर उठाकर खड़ा हो जाता है। साहित्य की परिभाषा में समाज का हित महत्वपूर्ण है। समाज का हित क्या लेखक तय करता है, या सरकार करती है, या राजनैतिक दल करते हैं, या धार्मिक संस्थान या गुरु करते हैं। इस हित को तय करने वाले दावेदार तो बहुत हैं। फिर से उलझ गई बात – है न?
लेखन वैसे भी एकल प्रक्रिया है। साहित्य रचते हुए लेखक समाज के बारे में तो लिखता है पर समाज से पूछकर नहीं लिखता। जो परिस्थितियाँ लेखक को वैयक्तिक स्तर पर छूतीं हैं, उनसे जनित सम्वेदनाएँ उसके लेखन में किसी न किसी रूप में दिखती हैं। इस तरह से सामाजिक परिस्थितियाँ प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग ढंग से प्रभावित करती हैं। अगर कोई निरंकुश लेखक अपनी स्वतन्त्रता के अधिकार के अनुसार मनचाहा लिख दे तो हो सकता है कि उसका साहित्य समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो। यहाँ स्वतन्त्रता की सीमाएँ निर्धारित होने लगती हैं। हम घूम कर फिर वहीं लौट आते हैं।
समय-समय पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नारे उठते हैं, तो बात इतनी सरल और सीधी नहीं होती। नारे लगाने वाला अपनी अभिव्यक्ति को सर्वोपरि सिद्ध करते हुए समाज के अन्य कई व्यक्तियों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना चाहता है। जब संविधान यह स्वतन्त्रता देता है, वह इस मकड़जाल में नहीं फँसता – वह यह स्वतन्त्रता संपूर्ण समाज को देता है।
समय-समय पर इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग लेखक भी करते हैं। और कई बार भूतकाल में लिखी गई रचनाएँ वर्तमान में आपत्तिजनक हो जाती हैं। ऐसी रचनाओं पर सामाजिक और प्रशासनिक प्रतिबंध लग जाते हैं। अगर रचना अपने लेखन काल में स्वीकृत हुई और प्रशंसित रही तो क्या बदल गया साहित्यिक गुणवत्ता में? कुछ नहीं बदला अगर बदला है तो सामाजिक दायित्व की समझ। एक समय था विश्व भर में बालविवाह, बालवेश्यावृत्ति अस्वीकृत नहीं थी। अस्वीकृत इसलिए कह रहा हूँ, कि सार्वजनिक रूप से इसका खंडन तो होता था परन्तु समाज की अँधेरी गलियों में उपस्थिति भी बनी रहती थी।
इसकी साहित्यिक उदाहरण देता हूँ। 1955 में रूसी-अमेरिकन लेखक व्लादिमीर नावोकोव ने "लोलिता" उपन्यास लिखा। सबसे पहले इसे पैरिस में ओलंपिया प्रेस ने प्रकाशित किया। बाद में नावोकोव ने इसे रशियन में अनूदित किया। 1967 में न्यूयॉर्क में भी अन्य प्रकाशक द्वारा प्रकाशित हुआ।
लोलिता शीघ्र ही चर्चित उपन्यास बन गया। इसे "क्लासिक" का दर्जा भी दिया जाने लगा। 1962 में इस पर पहली बार फ़िल्म बनी और दूसरी बार 1997 में फ़िल्म बनी। इसके विभिन्न विधाओं में मंचन हुए जैसे कि दो ओपरा प्रदर्शित हुए, दो बैले (नृत्य) भी मंच पर दिखे।
टाईम्स की सर्वश्रेष्ठ 100 उपन्यासों की सूची में भी स्थान मिला। बहुत लोगों ने इसे पढ़ा। मैंने भी बहुत पहले भारत में पढ़ा था। इस पुस्तक में उस समय हालाँकि साहित्यिक दृष्टिकोण से मैं अपरिपक्व था, तब भी मुझे इसमें कुछ भी विशेष नहीं लगा था।
इस पुस्तक का कथानक एक बारह वर्ष की बालिका के यौनिक शोषण पर आधारित है। यहाँ पर उपन्यास की समीक्षा करने का उद्देश्य नहीं है परन्तु संक्षेप में कहा जा सकता है कि पूरी पुस्तक का कोई भी नैतिक संदेश नहीं है। परन्तु फिर भी उस समय के साहित्यिक समाज ने इसे न केवल स्वीकार किया बल्कि इसे एक उत्कृष्ट रचना भी माना। अब वर्तमान काल में आते हैं। इंटरनेट के आरम्भिक वर्षों में बहुत से लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अनुचित प्रयोग किया। बाल-यौनिक शोषण लिखित और विडियो के रूप में आसानी से उपलब्ध होने लगा। अंततः सरकारों ने 2009 में ऐसी अभिव्यक्तियों को अपराध घोषित कर दिया और धर-पकड़ भी आरम्भ कर दी। कई बार मन में विचार उठता है कि क्या आज के समय में "लोलिता" का प्रकाशन संभव था? यानी 1955 की और 2009 की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में अंतर है।
बहुत से लेखक केवल नैतिकता की सीमाओं को केवल इसलिए तोड़ते नज़र आते हैं कि वह "शॉक वैल्यू" से प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। इसे प्राप्त करने के लिए चाहे वह समाज के लिए अहितकारी साहित्य (?) का सृजन करें। यहाँ यह बात अब विमर्शों को भी छूने लगती है। उसकी चर्चा अभी इस सम्पादकीय का विषय नहीं है।
अन्त में मित्रो, यही समझ आता है कि साहित्यकार को अपने सामाजिक दायित्व को वैयक्तिक विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ संतुलित करना चाहिए। सामाजिक शब्द में राजनैतिक, धार्मिक और नैतिक दायित्व समा जाते हैं। आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ. शैलजा सक्सेना 2021/07/17 06:11 PM
अच्छे, विचारोत्तेजक संपादकीय के लिए बधाई सुमन जी। लेखकीय स्वतंत्रता के स्वरूप और सीमाओं पर बार-बार विचार करना आवश्यक है। यह विचार ही स्वतंत्रता के दायित्व और आवश्यकता को पुनर्परिभाषित करके लेखन को सही दिशा में चलाए रख सकता है।आपने 'लौलिता' के उदाहरण से समय के अंतर आने पर साहित्य की स्वीकृति की बहुत अच्छी बात समझाई। निःसन्देह, युग की स्थितियों के अनुसार, मानवीय मूल्यों को बार-बार केंद्र में लाना ही लेखक का धर्म है। कालजयी कॄतियाँ इन्हीं मूल्यों, संवेदनाओं और मानवीय करुणा के कारण हर युग में स्वतंत्र भी रहीं और 'सब मन मंत्र मुग्ध' भी करती रहीं। 100 प्रसिद्ध पुस्तकों की सूची बनाने वाले लोग प्रायः स्वतंत्र नहीं रहते, वे अपने पक्षपात, स्वार्थ और द्वेष के आधीन हो जाते हैं। एक बहुत अच्छे विषय पर संतुलित विचार आपने रखे हैं, बहुत-बहुत बधाई!
पाण्डेय सरिता 2021/07/16 02:05 PM
सारगर्भित लेख
मधु शर्मा 2021/07/16 12:30 AM
आपने कहा, 'लेखन वैसे भी एकल प्रक्रिया है। साहित्य रचते हुए लेखक समाज के बारे में तो लिखता है पर समाज से पूछकर नहीं लिखता।' आपके संपादकीय से पूरी तरह सहमत हूँ। आपने यह भी सही कहा, 'बहुत से लेखक केवल नैतिकता की सीमाओं को केवल इसलिए तोड़ते नज़र आते हैं कि वह "शॉक वैल्यू" से प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं...।' यही चाल आधुनिक हास्य-कलाकारों (विशेषत: पश्चिमी सभ्यता के) द्वारा प्राय: प्रयोग की जाती है। रंगमंच व टीवी को माध्यम बनाकर अपनी ऐसी ऐसी स्क्रिप्ट लिखते या लिखवाते हैं कि विवेकी दर्शक न तो हँस सकता है, न ही वहाँ से उठकर बाहर जाने योग्य रहता है। परन्तु एक विवेकी पाठक को ऐसा चयन करने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए।
डॉ.सुनीता जाजोदिया 2021/07/15 07:31 PM
बड़ा ही मनन योग्य है आपका संपादकीय। लेखन कर्म और धर्म निश्चित तौर पर सामाजिक दायित्व से जुड़े हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी सामाजिक दायित्व ही है
राजनन्दन सिंह 2021/07/15 12:17 PM
बहुत हीं विचारोत्तेजक एवं महत्वपूर्ण संपादकीय । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ अपना पूर्वाग्रह, गुब्बार या मन की नीजी बातें करने या लिखने की स्वतंत्रता नहीं है। अभिव्यक्ति का उद्देश्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूर्णतः हीं समष्टि के किसी न किसी अंग का हित होना चाहिए। वरना वह आत्म प्रचार, नीजी मत अथवा कभी-कभी अराजकता जैसी संकुचित श्रेणी में गिना जा सकता है। यही कारण है कि नीजी संस्था बनाकर अपने मत का प्रचार करने वाले धर्म गुरुओं तथा उपदेशकों के विचारों में बहुत हद तक व्यक्ति समाज का हित होते हुए भी उसे साहित्य नहीं माना जाता। क्योंकि उनके मत या उपदेश समस्त सामाजिक हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
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Avinash Beohar 2021/07/22 04:48 PM
sampadkiya achchhi lagi. Mein aapke vicharon se purnatah sahmat hun. Sahitya kunj ki sampadkiya prabhavit karti hai. Sampadak ji ka drashtikon sahi hai.