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प्रिय मित्रो

नव वर्ष का पहला महीना बीत भी गया। लगता है कि अभी कल की ही तो बात है जब हम नव वर्ष के आगमन का उत्सव मना रहे थे। वर्ष का बारहवाँ अंश तय भी कर चुके हैं हम – समय कितनी जल्दी बीत जाता है। वर्ष के पहले महीने, जनवरी में कितने त्योहार भारतवासी मना भी चुके - लोहड़ी, गणतन्त्रता दिवस और बसंत पंचमी। और यहाँ विदेश में - बस पुरानी स्मृतियाँ ही हम पुनः जी लेते हैं। ऐसा नहीं है कि त्योहार मनाने के इच्छा नहीं है या प्रयास नहीं होते। परन्तु त्योहार एक सामूहिक पर्व होता है - त्योहार की एक सुगंध होती है वायु में। पंजाब में पला बढ़ा हूँ और पंजाब की संस्कृति से परिचित हूँ - जब चार वर्ष का था तब हम अम्बाला से पैतृक घर खन्ना आ गए थे दादा जी के पास उनकी देखभाल के लिए। खन्ना उस समय केवल एक क़स्बा था। गली-मोहल्ले के पारस्परिक संबंध भी एक अलग स्तर पर थे। शहर जितना छोटा पास-पड़ोस के साथ संबंध भी उतने ही अधिक घनिष्ठ – यही अनुपात समझ आता है। 

उन दिनों यानी मैं १९५६ के आसपास की स्मृतियों को कुरेद रहा हूँ - खन्ना में लोहड़ी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी। लड़के-लड़कियों की टोलियों में उत्साह का संचार कई सप्ताह पहले शुरू हो जाता था। लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग टोलियों में लोहड़ी माँगने घर-घर जाते। हर द्वार पर लोहड़ी के गीत गाए जाते। लड़कों के गीतों में जोश अधिक रहता था जबकि लड़कियों के लोहड़ी के गीत मधुर कोमल मंगलकामनाओं से भरपूर होते। इसका सीधा प्रभाव मिलने वाली रेवड़ियों, गज़क, मूँगफली, गुड़ इत्यादि में देखने को मिलता। जो याद आ रहा है उसके अनुसार होता यह था कि शाम आते-आते लड़के, लड़कियों की टोली के साथ साँझी डालने के चक्कर में उनकी चिरौरी करते दिखते। पहले तो लड़कियाँ हम लोगों की चापलूसी को ठुकरा देतीं और अंत में लड़के अपने समूह के छोटे बच्चों को आगे कर देते। बच्चियों में मातृ-भाव जाग जाता। लड़कों की क़िस्मत भी चमक जाती। वैसे भी जब गली में लोहड़ी प्रज्जवलित होती तो कौन परवाह करता था कि किसको लोहड़ी में क्या मिला! 

फिर आती बसन्त… पीला रंग छा जाता चारों ओर। मम्मी हम चारों भाइयों के लिए हर वर्ष सफ़ेद रूमालों को पीला रँगतीं और हम बड़े उत्साह के साथ उन्हें गले के आसपास बाँधते। बसंत से एक दो सप्ताह पूर्व डोर और पतंगों की बाज़ार में बहार छाने लगती। हालाँकि तेज़ डोर बाज़ार से ख़रीदी जा सकती थी पर हम भाइयों की ज़िद होती कि हम अपना माँझा स्वयं तैयार करेंगे। डोर, चरखी, सरेस, कांच का चूरा ख़रीदते। छत के एक कोने में ईंटों का चूल्हा बनाते। एक डिब्बे में सरेस को पिघलाते हुए डंडी से हिलाते रहते। नथुने दुर्गंध से भर जाते। छत के दोनों आमने-सामने की मुँडेरों से बाँस बाँध कर डोर पर माँझा चिपकाने का काम आरम्भ होता। सबसे बड़े भाई अपने हाथों पर फटे पुराने कपड़े लपेटते, दूसरे भाई के हाथ में टीन का डिब्बा होता जिसमें सरेस में डूबी हुई डोर की रील होती। तीसरे भाई के हाथ में शीशे का चूरा होता जिसमें से समय समय पर बड़े भाई चूरा उठाते रहते। शेष बचा रहता मैं - बिना किसी महत्वपूर्ण भूमिका के। ज़िद करता कि चूरा पकड़ूँगा। डिब्बा गर्म होता, माँझा लगा नहीं सकता था क्योंकि डोर तक पहुँच ही नहीं पाता था। मेरा रोना सुनकर नीचे से समय-समय पर माँ भी आवाज़ लगाती रहतीं कि सुमन से भी कुछ करवा लो। डोर सूखने बाद उसे चरखी पर लपेटते हुए अपने काम की प्रशंसा करते रहते कि हमारी डोर मोहल्ले में सबसे अधिक तेज़ होगी। 

फिर आता बसंत का दिन। पीले रूमाल गले पर लपेटे सुबह ही छत पर चढ़ जाते। थोड़ी ठंड लगती - माँ आवाज़ें लगातीं कि स्वेटर पहन जाओ। पर हम लोगों के पास समय ही नहीं होता था। इतनी सुबह अभी हवा भी नहीं चलती - इसकी समझ नहीं थी हमें। फिर भी प्रयास करते रहते। दस बजे के आसपास हम लोगों की पतंग आकाश में लहराने लगती। और साथ ही झगड़ा शुरू हो जाता कि पतंग की डोर कौन पकड़ेगा और चरखी किसके हाथ में होगी। बाक़ी के बचे दो, केवल गर्दन उठाकर आसमान में पतंग देखते। अगर पतंग कन्नी काटती तो उसे उतार के कमानी पर कपड़े की कतरन बाँध कर बैलेंस ठीक करते। कतरनों से पतंग की लम्बी पूँछ बनाते। दोपहर को पीले चावल और दही खाते और तीन बजते-बजते थक कर नीचे उतर आते। हो गई बसंत!

१९६० में हम दादा जी की मृत्यु के बाद लुधियाना आ गए। हमें अनुमान ही नही था कि २६ मील के अंतर में त्योहार कितना बदल जाते हैं। लुधियाना में लोहड़ी माँगने का वह जोश नहीं था। लोहड़ी माँगने के लिए कोई टोलियाँ नहीं बनती थीं। लोहड़ी माँगना ही निम्न वर्ग की बात थी; और सबसे आश्चर्यजनक बात हमें यह लगी कि लुधियाना में पतंग लोहड़ी को उड़ाई जाती थी... बसंत को नहीं! तो फिर बसंत को क्या करें? बसंत बस आती और चली जाती।

अब कैनेडा में त्योहार आते हैं चले जाते हैं। प्रयास होते हैं कि हम लोगों जिस तरह से भारत में त्योहार मनाए हैं वह हमारे बच्चे भी मनाएँ। अंत में निर्णय तो अगली पीढ़ी के हाथ में है कि वह हमारी संस्कृति को कब तक सहेजे रखते हैं। संस्कृति और संस्कार भी तो समय के साथ बदलते रहते हैं - तो फिर यह मोह क्यों? जो एक युग में स्वीकार्य होता है अगले युग में अपराध हो जाता है। क्या हमारा उद्देश्य केवल उस क्षण में जीवित रहने का होना चाहिए जो वर्तमान है? केवल आनन्द की साधना और उस क्षण में प्राप्त करने का प्रयास। 

११ फरवरी को ३६ वर्षों के बाद एक महीने के लिए भारत लौट रहा हूँ। एक नया भारत देखने को मिलेगा। क्या आधुनिक भारत में मैं अपना पुराना भारत कहीं खोज पाऊँगा? इसकी अपेक्षा रखना क्या अपनी स्वार्थी कामनाओं की आपूर्ति की आशा रखना नहीं होगा? समय के साथ बदलता समाज और उस समाज में जीते हम सब लोग। उसी क्षण में आनन्द की साधना और उसी आनन्द में जीना ही उद्देश्य होना चाहिए। यही समझ आ रहा है - पुरानी मीठी स्मृतियाँ केवल स्मृतियाँ हैं वर्तमान नहीं। शायद ये भावनाएँ आज इसीलिए उद्वेलित हो रहीं हैं क्योंकि भारत लौट रहा हूँ।

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