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प्रिय मित्रो,

हिन्दी की संगोष्ठियों के आयोजक प्रायः हिन्दी की दिशा और दशा की ही बात करते रहते हैं। दशा के बारे में चिन्ताएँ व्यक्त की जाती हैं और दिशा पलटने के लिए पुराने घिसे-पिटे सुझाव दिये जाते हैं, भारतीय जीवन पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के प्रति विरोध दर्ज करवाया जाता है और अन्त में सरकार को दोषी ठहरा दिया जाता है कि वह हिन्दी के लिए कुछ नहीं करती। वैसे सरकार का भाषा का संबंध वोट-बैंक जैसा ही है। जब वोट की आवश्यकता हो तो ठण्डे बस्ते से बाहर निकाल लो और बाद में सहेज कर रख दो।

हिन्दी की दशा और दिशा निर्धारित करने का बीड़ा इतना बड़ा है कि यह सरकारी नौकरशाहों को नहीं सौंपा जा सकता। मैं उनकी कर्तव्य-निष्ठा पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाना चाहता, मैं केवल यह कह रहा हूँ कि उनके उद्देश्य और दायित्व दूसरे हैं। भाषा सामाजिक दायित्व है और लेखक समाज का प्रेक्षक और समीक्षक है और इससे भी बढ़ कर दार्शनिक भी है जो भूतकाल, वर्तमान और भविष्य की ओर देख सकता है। यह उसका अधिकार भी है।

एक अन्य तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है; इस समय भारत की जनसंख्या में युवाओं की गिनती।

इस समय भारत की जनसंख्या का 50% भाग 25 वर्ष से कम और 65% भाग 35 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों का है। अगर हम हिन्दी को लोकप्रिय बनाना चाहते हैं तो मेरा प्रश्न है कि हम पैंसठ प्रतिशत जनसंख्या के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हम उनके लिए कुछ लिख रहे हैं? क्या हम विमर्शों की दलदल में इतना फँस चुके हैं कि उनसे हम उबर नहीं पा रहे? भारत आईटी टेक्नॉलोजी की विश्व भर में अपनी धाक जमा चुका है और युवा लोग इसे सहर्ष गले लगा चुके हैं। दूसरी ओर बहुत से वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक जब भी अवसर मिलता है नयी तकनीक की अस्वीकृति के स्वर उठाते रहते हैं। किताबों के पन्नों को पलटने के या पुराने काग़ज़ों की ख़ुश्बू के रोमांस को त्यागने के लिये तैयार नहीं हैं। माना कि यह रोमांस सदा जीवित रहेगा क्योंकि यह साहित्य के विकास का इतिहास है परन्तु वर्तमान की वास्तविकता की ओर पीठ करके हम केवल भूतकाल में ही खो भी तो नहीं सकते। अंतरजाल की दुनिया रोमांचकारी है और युवा रोमांच की आकर्षित होते हैं। उन्हें रोमांस भविष्य में खोजना है भूतकाल में नहीं।

पाठक की बुद्धिमत्ता पर संदेह मत करें बल्कि उसका आदर करें। कहने का अर्थ है कि इस की अपेक्षा मत करें कि आप भारी-भरकम भाषा या विषयों को लेकर जो भी लिख देंगे वह पाठकवर्ग को स्वीकार हो जाएगा। पाठक भी अच्छा और बुरा साहित्य समझता है। जैसा कि मेरी मित्र डॉ. शैलजा सक्सेना प्रायः कहती हैं कि लेखक को आत्म-मुग्धता को त्यागना होगा। अपने लेखन को पाठक के दृष्टिकोण से भी पढ़ें और उसकी समालोचना करें। युवाओं के लिए ऐसा लिखें जो उनकी दुनिया की बात करता हो। आज के युग में मुंशी प्रेमचन्द को मत दोहरायें। वह अपने काल के युग पुरुष थे। परन्तु इस समय के युवा के लिए वह एक ऐतिहासिक लेखक हैं, जिनके उपन्यासों की विवेचना केवल पाठ्यक्रम का हिस्सा है। आज की महानगरीय संस्कृति की व्यवहारिक समस्याओं की समानान्तरता उनके पात्रों में खोजने का प्रयास मत करें। अपनी पगडंडियाँ स्वयं बनायें, आपके मील के पत्थर आपके अपने हों। इस युग में अपना स्थान बनाने के लिए युवाओं के संघर्ष को समझें तो वह संघर्ष मुंशी प्रेमचन्द के पात्रों के संघर्ष से किसी भी तरह कम नहीं है। युग बदल चुका है और इस युग में संघर्ष के बाद उपलब्धियाँ भी मिलती हैं। उनकी बात करना भी उतना ही आवश्यक है जितना की संघर्ष की। युवा जीवन की और आकर्षित होते हैं। मृत्यु की ओर तो समाज का वह भाग देखता है जो अपना जीवन जी चुका है। लेखकों और संपादकों से निवेदन है कि ऐसे साहित्य की ओर ध्यान दें जो युवा है, वृद्ध नहीं। इस विषद विषय पर भविष्य में भी चर्चा चलती रहेगी।

– सादर
सुमन कुमार घई

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