प्रिय मित्रो,
एक बार एक साहित्यिक मित्र से बातचीत गंभीर होती चली गई। चर्चा साहित्यिक लेखन के विषय पर ही हो रही थी। बार-बार एक ही तथ्य बातचीत में उभर रहा था कि रचना जब तक स्वयं पन्ने पर उतरने के लिए विकल न हो जाए, लिखने का प्रयास करना भी बेमानी है. . .। संभवतः यह बात हुई थी. . . या मेरी स्मृति मेरे साथ खिलवाड़ कर रही है। मैं वास्तविक चर्चा को याद कर रहा हूँ या मेरी प्रवृत्ति जिस तर्क को याद रखना चाहती है वह ही उद्दृत कर रहा हूँ। प्रवृत्ति शब्द सही है या मानसिकता. . .? क्या दोनों में कोई अंतर है? फिर अवचेतन का क्या प्रभाव होता है लेखन पर? उलझ रहा हूँ फिर से. . . बेकार में स्वयं अपने से ही बहस करते हुए. . . क्या अवचेतन ही मानसिकता है तो फिर प्रवृत्ति ही अवचेतन है, नहीं. . .? इस शब्दों के मकड़जाल का लेखन पर क्या प्रभाव – क्या अंतर पड़ता है, जब दिल कहता है लिखो - लिखते हैं, दिल नहीं कहता तो नहीं लिखते। सीधे शब्दों में “आम खाओ पेड़ों को मत गिनो”!
इस भारी भरकम बातचीत के बाद भी विचार मस्तिष्क में उठा-पटक करते ही रहते हैं। प्रायः साक्षात्कारों में पूछा जाता है कि आपकी लेखन प्रक्रिया क्या है? भला कोई लेखक इसका सही उत्तर दे सकता है? लेखन केवल कोई तकनीकी विद्या तो नहीं है - हाँ तकनीक में शिल्प का पक्ष होता है परन्तु रचना का अंकुरित होना क्या है? हम अपने आपको शब्दों का शिल्पी तो कहते हैं परन्तु रचना के विषय को चुनने की प्रक्रिया को क्या आप परिभाषित कर सकते हैं। यहाँ मैं निबन्ध, आलेख इत्यादि की बात नहीं कर रहा। कविता, कहानी, लघुकथा की बात कर रहा हूँ। कुछ लेखक होते हैं जिनमें यह कौशल होता है कि होली आई तो होली की कविता लिख दी, दीवाली आई तो दीवाली की। कुछ ऐसे ही पेशेवर लेखक होते हैं कि जो हर वर्ष हर त्योहार पर लेख या निबन्ध लिख देते हैं और समाचारपत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं। सच में साहित्य का भाग तो वह भी है। अब कौन कहे क्या बेहतर है? मन से अंकुरित रचना या अवसर के अनुसार गढ़ी हुई रचना!
कल अचानक मस्तिष्क में स्मृतियों की शृंखला सिनेमा की तरह चलने लगी। आज सुबह जब उठा तो अचानक एक प्रश्न मन में कौंधने लगा कि विश्व में कितना साहित्य स्मृतियों पर आधारित है? जितना सोचता रहा उतनी ही धारणा बनती चली गई कि अधिकतर साहित्य पर स्मृतियों का प्रभाव है। अगर “साईंस फ़िक्शन” को छोड़ दें तो जो भी हम लोग लिखते हैं वह स्मृति पर ही तो आधारित होता है। अनुभव से ही स्मृति अंकित होती है। थोड़ा और सोचा तो लगने लगा कि दुखदायी स्मृतियाँ सुखद स्मृतियों की अपेक्षा समय के साथ अधिक धूमिल हो चुकी हैं। जब दादाजी की मृत्यु हुई उस समय शायद मैं छह वर्ष का था। मुझे लोगों का शोकग्रस्त होना उतना याद नहीं जितना कि शव यात्रा में अर्थी के आगे घंटा बजाने के लिए अपने भाई से किया हुआ झगड़ा। मुझे याद आ रहा है जब दादी माँ की मृत्यु हुई तो मैं दसवीं में था। उन दिनों दादी अम्बाला मेरे मँझले ताया जी के यहाँ थीं। अन्तिम संस्कार के बाद जब सब घर लोग लौटे और बाहर वाले चले गए तो घर के बड़े दालान में पापा और उनके चारों भाई लेटे हुए थे। बच्चे भी उसी कमरे में ज़मीन पर बिछे गद्दों पर ही लेटे थे। दादी की बातें करते हुए पापा के साथ सभी भाई किसी बात पर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। दादी की आदतों से लेकर उनके बनाए हुए शब्दों को याद करते हुए सभी भाई हँस रहे थे। हम बच्चे समझ नहीं पा रहे थे कि माँ के अन्तिम संस्कार के बाद शोकग्रस्त होने की बजाय हँसी क्यों? अब समझ आता है कि मानव सुखद स्मृतियों से ही अपने शोक पर विजय पाता है। यह प्रक्रिया मानवधर्मी है। इसीलिए सुखद स्मृतियाँ उतनी धूमिल नहीं होतीं जितनी कि दुखद।
स्मृतियों का जन्म अनुभवों से होता है। जब हम कहते हैं कि साहित्य भोगा हुआ यथार्थ होता है तो दूसरे शब्दों में कह सकते हैं साहित्य का आधार स्मृति ही है। मैं कोई मनोवैज्ञानिक तो हूँ नहीं, केवल अपनी स्मृतियों के आधार पर इतना कह सकता हूँ कि कम से कम मैं तो अपने अनुभवों का संश्लेषण करके ही उन्हें स्मृति-कोष में डालता रहा हूँ, इसीलिए सुखद स्मृतियों का पलड़ा भारी है और मेरी स्मृतियाँ, जी हुई वास्तविकता से अधिक सुन्दर हैं। शायद यह संश्लेषण व्यक्तिगत मानसिकता पर भी निर्भर करता है। कोई केवल कृष्ण पक्ष देखता है और दूसरा शुक्ल पक्ष।
अब यह सम्पादकीय वृत्ताकार हो गया है। बात जहाँ से शुरू की थी वहीं पहुँच गया हूँ - मेरी स्मृति मेरे साथ खिलवाड़ करती है, मेरी प्रवृत्ति जिस तथ्य को याद रखने की है, वही याद रहता है। प्रश्न प्रवृत्ति और मानसिकता पर फिर जा अटका बेताल की तरह। प्रवृत्ति जन्मजात है तो क्या मानसिकता अनुभवों से प्रभावित होती है? क्या मानसिकता जीवन भर बदलती रहती है तो अवचेतन केवल स्मृति-कोष है। परन्तु स्मृति तो चलचित्र की तरह आँखों के आगे आ जाती है और अवचेतन. . .? बेताल फिर पेड़ पर जा लटका।
- आपका
सुमन कुमार घई
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