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प्रिय मित्रो,

यह सम्पादकीय २०१९ का अंतिम सम्पादकीय है। इस वर्ष में तकनीकी रूप से साहित्य कुञ्ज आधुनिक हो गया। इस सप्ताह के अंत तक साहित्य कुञ्ज का मोबाइल प्रारूप भी पूरा हो जाएगा। उसके बाद साहित्य कुञ्ज के वीडियो और ऑडियो सेक्शन को पूरा किया जाएगा और अंतिम (वर्तमान योजना के अनुसार) परिचर्चा का सेक्शन बनेगा। 

इस अंक में “साहित्य के रंग – शैलजा के संग” (वीडियो) में डॉ. शैलजा सक्सेना, मानोशी चटर्जी और आलोक श्रीवास्तव जी की कविता और मंच की कविता या यूँ कहें साहित्य सृजन पर बातचीत है। बातचीत बहुत ही रोचक है और मेरा आग्रह है कि आप इसे अवश्य देखें-सुनें। 

इस बातचीत के दौरान कुछ बातें कही गईं, चाहे वह आलोक जी ने कहीं या शैलजा जी ने या मानोशी जी ने कहीं परन्तु वह वर्तमान साहित्य सृजन की प्रक्रिया की चिंता थी। इस विषय पर मैं पहले से ही बहुत लिख चुका हूँ. . . क्योंकि मैं इसे निरंतर भोग रहा हूँ। इस समस्या के दो पक्ष हैं या दो चेहरे हैं। इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बात करता हूँ। 

बातचीत में नए लेखकों द्वारा अपनी रचनाओं के प्रकाशन की आतुरता और इसे तुष्ट करने के लिए प्रकाशन की सुविधा (बिना सम्पादन के) उभर कर आई। बात बढ़ते हुए साहित्यिक गुरु-शिष्य परम्परा तक पहुँची। आलोक जी का मत था कि उर्दू ग़ज़ल में इस परम्परा का निर्वाह अभी भी हो रहा है, हिन्दी कविता की बात और है। मेरा दृष्टिकोण मेरे सम्पादकीय अनुभव से प्रभावित है।

सोशल मीडिया पर लेखन और स्व-प्रकाशन की वेबसाइट्स पर युवा लेखकों के प्रकाशन को देखते हुए हर्ष और चिंता, दोनों ही होते हैं। यह हर्ष का विषय है कि वह हिन्दी देवनागरी में लिख रहे हैं और उत्साहपूर्वक लिख रहे हैं। कोई भी दुःखद घटना उनको विचलित करती है और वह अपनी संवेदनाओं को लिखित रूप में व्यक्त करते हैं। कम से कम हिन्दी के लेखकों की यह पीढ़ी, मेरी पीढ़ी की इस चिंता का निवारण अवश्य कर रही है कि क्या हिन्दी का अस्तित्व मिट जाएगा? 

इस समस्या का दूसरा चेहरा मेरी चिंता का कारण है और हिन्दी साहित्य के प्रेमियों की चिंता का कारण भी होना चाहिए। नव लेखकों की लेखन की इस आतुरता और ऊर्जा को सही दिशा देने की अत्यन्त आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि युवा लेखक अपनी कला को निखारना नहीं चाहते - कमी है तो उचित मार्गदर्शन की। पहले जब प्रकाशन की इतनी सुविधा नहीं थी तो लेखक अपनी कला को सुधारने के लिए विवश होता था। क्योंकि प्रकाशन के मार्ग पर संपादक संतरी बन कर खड़ा रहता था। संपादक त्रुटिपूर्ण व्याकरण, वर्तनी और अस्तरीय रचना को प्रकाशित ही नहीं करता था। उस समय लेखक के लिए अपनी लेखन को परिष्कृत करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प ही नहीं था। परन्तु अब विकल्पों की कोई कमी नहीं है। स्व-प्रकाशन और सोशल मीडिया के मार्ग पर कोई संतरी नहीं खड़ा है। जो भाव मन में उठा उसी समय वह प्रकाशित हो गया। जैसा भी लिखा गया- बस वैसा ही प्रकाशित हो जाता है। चाहे उसमें वर्तनी की त्रुटियाँ टाइपिंग की हों या अज्ञान की, भावों के बिखराव की समस्या हो या अधूरेपन की, परन्तु उसी प्रारूप में तुरंत पाठकों तक पहुँच जाता है। पहले भी कहा जा चुका है कि प्रत्येक रचना का कोई पाठक तो होता ही है। वाह-वाह सुनते ही यह लेखक एक भ्रम पाल लेते हैं - कि वह अच्छे लेखक हैं! लोकप्रियता के तमग़े उन्हें ’लाईक्स’ और ’फ़ॉलोअर्स’ ’इमोजी’ के दे देते हैं। 

जब कोई ऐसा अभ्यस्त और तथाकथित प्रसिद्ध लेखक किसी अच्छे और दक्ष सम्पादक के पास रचना भेजता है तो लेखक सम्पादक की प्रक्रिया को स्वीकार नहीं कर पाता। जब उसका दिवास्वप्न टूटता है, तब भी रुक कर लेखक स्वयं की रचना या लेखन प्रक्रिया का निरीक्षण नहीं करता क्योंकि उसके पास एक अन्य विकल्प है। वह विकल्प है- इन्हीं लेखकों में से बने हुए कुछ सम्पादक। यह सम्पादक भी उतने ही दिशाहीन और अबोध हैं जितना कि इनका लेखक वर्ग। वेब पर कॉपी-पेस्ट करने वाला सम्पादक बनना बहुत आसान है। जो व्यक्ति वेबसाइट बना सकता है या बनवा सकता है - सम्पादक बन सकता है। बहुत ऐसे हैं कि हींग लगे ने फटकरी. . . जिन्होंने ब्लॉग को ही वेबसाइट जैसा प्रारूप दे दिया है और वह धड़ल्ले से अन्य लेखकों को प्रकाशित कर रहे हैं। यह वर्ग आपसी वाह-वाही लूट रहे हैं, एक दूसरे को सम्मानित कर रहे हैं। हिन्दी के ऐसे घातक लेखकों और सम्पादकों को विद्यावाचस्पति या डॉ. की उपाधियाँ भी दी जा रही हैं।

पिछले पन्द्रह-सोलह वर्षों में जो मेरा अनुभव रहा है वह यह है कि अच्छे लेखकों की रचनाएँ हर पक्ष से अच्छी होती हैं। बात केवल भाव सम्प्रेषण की नहीं है, अभिव्यक्ति की नहीं है। इन रचनाकारों की रचनाओं का तकनीकी पक्ष भी उतना ही निखार लिए होता है जितना कि कला पक्ष। व्याकरण, वर्तनी, सम्वाद संरचना, विराम चिह्न इत्यादि का उचित उपयोग इन रचना को पठनीय बनाता है और सहज ग्राह्य बनाता है। सहज ग्राह्यता को आप कभी भी कम नहीं आँक सकते। भाव की गहनता जब तक पाठक के हृदय में ही न उतरे तो वह भावाभिव्यक्ति ही क्या हुई! यह कला अभ्यास से आती है। और यह अभ्यास करने की इच्छा सत्यनिष्ठ समीक्षा से उभरती है। यह समीक्षा पैसे देकर करवाई गई समीक्षा नहीं होती। सम्पादक का यह दायित्व; नहीं, मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि धर्म होना चाहिए कि जिन रचनाओं में वह सुधार की सम्भावना देखे, उनके लेखकों के साथ संवाद आरम्भ करे और मार्गदर्शन करे। परन्तु यह मार्गदर्शन शिष्ट और लेखक के प्रयास का आदर रखते हुए होना चाहिए। युवा लेखक जो अच्छी जगह प्रकाशित होना चाहता है, वह पहले से ही अस्वीकृति के भय से चिंतित होता है - आप उसका साहस बढ़ाएँ। सच मानिये कि मार्ग दर्शन करके आप अपना ही काम सुगम कर रहे हैं। कोई भी संपादक बिना अच्छे लेखकों के अच्छा सम्पादक नहीं बन सकता है। जब आप स्तरीय लेखकों की एक पीढ़ी तैयार कर लेंगे तो सोचिये कैसा लगेगा!

नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएँ! आशाओं के प्रकाश पुंज को थामे पहली जनवरी, २०२० फिर मिलेंगे।

सादर -
सुमन कुमार घई
 

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