प्रिय मित्रो,
जनवरी प्रथम अंक के संपादकीय में मैंने हिन्दी साहित्य के पाठकों की कम होती संख्या पर चिंता प्रकट करते हुए, हिन्दीभाषी समाज की पश्चिमी देशों के अंग्रेज़ी साहित्य के पाठकों के साथ तुलना करते हुए, कुछ कारणों की बात की थी। उसी चर्चा को इस संपादकीय में आगे बढ़ाने जा रहा हूँ।
पिछले अंक में मैंने साहित्य के व्यवसाय पक्ष की ओर केवल इशारा मात्र किया था। इस अंक में मैं इसी बात को अधिक विस्तार में लिखना चाह रहा हूँ।
चाहे लेखक कितना भी कह लें कि लेखन केवल "स्वान्तः सुखाय" प्रक्रिया है, परन्तु मैं इसे नहीं मानता। लेखक सदा पाठक या श्रोता की अपेक्षा रखता है। सृजन प्रक्रिया अगर मानसिक सुखद व्यसन है तो दूसरी ओर इस कला के प्रकाशन का आर्थिक बोझ दुखदायी हो सकता है। जहाँ पर धन का उल्लेख आता है वहाँ व्यवसायिक आयाम स्वतः जुड़ जाता है। कलापक्ष का आर्थिकपक्ष भी महत्वपूर्ण है। अगर साहित्य को जीवित रखना है तो लेखक को साहित्य सृजन से आर्थिक लाभ की अनिवार्यता की ओर भी ध्यान देना होगा। समस्या यह है कि हिन्दी साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने की प्रक्रिया पर शिकंजा प्रकाशन व्यवसाय ने कसा हुआ है। कुछ चुने हुए लेखकों को छोड़ कर, लेखक प्रकाशक की दयादृष्टि पर निर्भर करता है कि उसका साहित्य किसी तरह पाठक वर्ग तक पहुँच पाएगा या नहीं। अब तो प्रकाशक लेखक से पैसे लिए बिना पुस्तक प्रकाशन के लिए तैयार ही नहीं होता। यह शुल्क प्रत्यक्ष भी है परोक्ष भी। परोक्ष रूप में लेखक को एक निर्धारित संख्या में पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं। बाक़ी की पुस्तकों की बिक्री में से उसे कभी हिस्सा मिलता ही नहीं।
ऐसा क्यों है? पश्चिमी देशों में अंग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों के लिए ऐसा नहीं होता। हाँ, अगर किसी पुस्तक के प्रकाशन के लिए कोई भी प्रकाशक तैयार नहीं है, तो लेखक उसे कहीं से भी प्रिंट करवा के बेचने का प्रयास कर सकता है। यानी बात घूम-फिर कर व्यवसायिक पक्ष की आ ही जाती है। भारत के साहित्यिक परिदृश्य में यह संभव है कि नहीं, मैं नहीं जानता परन्तु मैं तो अपनी बात और यहाँ के अनुभव की चर्चा तो करूँगा ही।
पश्चिमी देशों में साहित्य प्रकाशन का कलापक्ष और व्यवसायिकपक्ष एक दूसरे से स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। यानी लेखक के बिना साहित्य का कारोबार नहीं चल सकता और साहित्य के कारोबार के बिना साहित्य पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों तक नहीं पहुँच पाता। दर्शक की बात तक बाद में पहुँचेंगे पहले मुद्रण व्यवसाय की बात कर लें।
एक उपन्यास की उदाहरण से शुरू होते हैं। सभी ने जे.के. रोलिंग की उपन्यास शृंखला "हैरी पॉटर" का नाम तो सुना ही होगा। जे.के. रोलिंग जिनका वास्तविक नाम जोऐन रोलिंग था, की यह पहली पुस्तक थी। यानी वह कोई स्थापित लेखिका नहीं थीं। विषम परिस्थितियों में जीवन काट रहीं जोऐन एडिनबरो में अपनी बेटी के साथ सरकारी अनुदान से तलाक़शुदा और बेकारी का जीवन जीते हुए लिख भी रही थीं। ख़ैर इसी दौरान उनकी पहली पुस्तक तैयार हुई। सबसे पहले रोलिंग ने एक "लिटरेरी एजेंट" ढूँढा। "लिटरेरी एजेंट" यानी साहित्यिक प्रतिनिधि, यह है साहित्यिक व्यवसाय की पहली कड़ी।
लिटरेरी एजेंट/साहित्यिक प्रतिनिधि अगर उपन्यास या पुस्तक को योग्य समझता है तो वह इसके प्रतिनिधित्व के लिए मानता है और एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए जाते हैं। इस अनुबंध के अनुसार पुस्तक बिक्री का एक अंश तय होता है जो प्रतिनिधि को मिलता है। दूसरा विकल्प है कि एजेंट एक पूर्वनिर्धारित शुल्क लेकर पुस्तक के प्रतिनिधित्व के लिए तैयार होते हैं।
लेखन व्यवसाय की शृंखला की अगली कड़ी लेखक का वकील है। क्योंकि अनुबंध के क़ानूनी पक्ष और लेखक के अधिकारों की सुरक्षा के लिए वकील की सहायता आवश्यक है। वक़ील यह भी तय करता है कि अनुबंध न्यायोचित है कि नहीं। अधिकतर वकील अपनी फीस लेते हैं और पुस्तक की बिक्री में उनका कोई हिस्सा नहीं होता।
एजेंट उस पुस्तक को कई प्रकाशकों के पास भेजता है, यानी कि लेखक का कोई सीधा संपर्क प्रकाशक के साथ नहीं होता। क्योंकि लिटरेरी एजेंट का यह व्यवसाय है तो वह जानता है कि कौन सा प्रकाशक किस विधा की कैसी पुस्तकों को प्रकाशित करता है और उन्हें बेचने की निपुणता रखता है।
प्रकाशन इस व्यवसाय की तीसरी कड़ी है। अब एक और अनुबंध पर हस्ताक्षर होते हैं जो लेखक और प्रकाशक के बीच है इसमें एजेंट और वकील का परामर्श महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों लेखक के हित का ध्यान रखते हैं। एजेंट और प्रकाशक की आय पुस्तक की बिक्री पर निर्भर करती है इसलिए पुस्तक की कीमत बाज़ार की सहनशक्ति को देखते हुए निर्धारित की जाती है। संस्करण में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या के अनुसार प्रकाशक एजेंट को पैसे दे देता है, जिसमें से एजेंट अपना हिस्सा रख कर लेखक को उसका हिस्सा दे देता है। जे.के. रोलिंग को पहली पुस्तक के प्रथम संस्करण की ५००० पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जो कि केवल इंग्लैंड में ही वितरित हुई थी, लगभग ४००० डॉलर मिले थे।
प्रकाशक के साथ हुए अनुबंध के अनुसार पुस्तक प्रचार के लिए लेखक को साक्षात्कारों, पुस्तकों की दुकानों में बैठ कर खरीदी हुई पुस्तकों पर हस्ताक्षर करने या स्टोरों, लाईब्रेरियों या थियेटरों में पुस्तक के अंशों के वाचन के लिए मानना पड़ता है।
यह प्रचार-प्रसार पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय का चौथा चरण है। अब हम पाँचवें चरण पर पहुँचते हैं, जहाँ तक कोई-कोई पुस्तक ही पहुँच पाती है यानी की कहानी के फ़िल्मीकरण या उसे नाटक के रूप में मंचित करने की। मैंने कहा था न कि हम दर्शक की बात बाद में करेंगे। हालाँकि यह पाँचवाँ चरण है पर एजेंट पहले चरण पर ही अनुबंध में इसे भी स्पष्ट कर चुका होता है और लेखक का वकील आर्थिक पक्ष का मोल-तोल कर चुका होता है। अब फ़िल्म निर्माता, और नाटक को प्रस्तुत करने वाले भी अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हैं। कई बार लेखक फ़िल्म के और नाटक की स्क्रिप्ट/पटकथा अधिकार रखते हैं ताकि कहानी इतनी न बदल दी जाए कि वह मौलिक कृति के साथ न्याय ही न करती हो। निर्माता लेखक से कहानी खरीद भी सकते या फिर उसे टिकटों की बिक्री में हिस्सा भी दे सकते हैं।
यह है साहित्य का व्यवसाय। कुछ लेखक कह सकते हैं कि हम अपने साहित्य को बेचेंगे नहीं। यह कोई नैतिकता या अनैतिकता का प्रश्न नहीं व्यवसायिक व्यवहारिकता का है। हिन्दी का लेखक, झोलाधारी, चप्पलें चटकाता क्यों प्रकाशकों का दरवाज़ा खटखटाये? क्या इस व्यवस्था का अनुकरण वांछित नहीं है? क्योंकि हर पक्ष में आर्थिक अनुबंध और कॉपीराइट संवैधानिक दृष्टि से सही हैं तो बाद में कोई झगड़े की संभावना नहीं रहती।
भारत में अक्सर होता है कि फ़िल्म बनाने वाले किसी की कोई कहानी या उपन्यास उठा कर उसे थोड़ा बदल कर फ़िल्म बना कर पैसा बटोर लेते हैं और लेखक बेचारा पैसा खर्च करके अपनी ही कहानी को पर्दे पर देखता है। जबकि अंग्रेज़ी साहित्य में केवल कहानी ही की चोरी नहीं बल्कि कथानक की आंशिक चोरी भी वर्जित है। व्यवसायिक सच्चाई तो यह भी है कि लेखक के लिए एजेंट, वकील और प्रकाशक तीनों लड़ते है, क्योंकि जीत में उनका भी आर्थिक हित निहित होता है।
लेखक सर्वशक्तिमान हो जाता है। जे.के. रोलिंग इस व्यवस्था के होते कहाँ तक पहुँचीं, आगे आप भी जानते हैं और मैं भी।
- सस्नेह
सुमन कुमार घई
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