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पुरानी कहावतें, नया नज़रिया

1.
एक दिन भैया रुआँसे होकर हमसे यूँ  बोले,
तुम्हारी भाभी आये दिन बहुत तंग करती है,
आव देखे न ताव, 'छाती मेरी पे मूँग दलती है’। 
यह सुन अपने भाई पर हमें  बहुत तरस आया,
सो ब्लैंडर ख़रीद भाभी को मूँग दलना सिखाया।
 
2.
'​घर की मुर्गी दाल बराबर!' 
लेकिन...
पड़ोसन की बनाई 
पानी सी दाल बिन मसाला,
पतिदेव यूँ पी गए, 
जैसे अमृत का हो वो प्याला।
 
3. 
'न लँगोट रहे, न ही लँगोटिया यार' की क़द्र अब,
डायपर जैसा प्रयोग कर लोग कर देते उन्हें  डम्प।
 
4. 
'ख़ूबसूरती गहनों की मोहताज़ नहीं'
परन्तु आधुनिक महिला का अपने गहने बेच,
प्लास्टिक-सर्जरी करवाना –
क्या उल्टी बात नहीं?
 
5. 
'चुल्लू भर पानी में डूबना' 
उनके लिए आम हो गया,
बेशर्म कहती रहे दुनिया, 
उनका तो काम हो गया। 
 
6. 
'घर आई  लक्ष्मी को कौन लात मारता है?'
भई, हमारी पड़ोसन लक्ष्मी को 
जूडो-कराटे आता है,
उसका बेचारा पति, 
उल्टा उसी के घूँसे-लात खाता है।
 
7. 
'सुबह का भूला शाम को घर आ जाए 
तो भूला नहीं कहलाता है'
लेकिन शाम का कह सुबह घर आए 
तो उसका रखवाला विधाता है। 

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