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कविता तुम कहाँ हो

मानवीय अनुभूतियों की तृप्ति
खोजती मेरी कविता
आज भी भटकती है
करती रहती है संघर्ष
पशुता के ख़िलाफ़
मानसिक जीवन के सस्तेपन को
उकेरते शब्द भी अब सस्ते हो गए हैं।
अख़बारों की धूल में
प्राण स्रोत सूख गया है।
सोशल मीडिया के बाज़ार में
कविता थिरकती है अर्धनग्न होकर।
मुनाफ़े के सिद्धांत पर आश्रित
आज साहित्य ख़ुद को बेचता फिर रहा है।
हर जगह बाज़ार लगा है
साहित्य का
सम्मान का
प्रशस्ति पत्रों का
मंचों का
सौ रुपये में आप
कुछ भी छपवा लो।
संस्कृति की मूल आधार भाषा
आज त्याग रही है पुराने वस्त्र
अब कविता में न भूख है न ग़रीबी है
न सामाजिक सरोकार है
आज की कविता 
संवेदनाशून्य रोबोट है
जिसमें मशीनी स्वर
भिनभिनाते हैं।
अस्पष्ट से भाव मिमियाते हैं।
सत्य के संदर्भ लिए
झूठ मंच से चिल्लाता है।
कुछ कवितायेँ नग्नता और बलात्कार
पर ज़िन्दा बनी हुईं हैं।
सब साहित्य रचनाधर्म नहीं होता
और सब लेखन साहित्य नहीं होता।
कहते हैं कि कविता अस्मिता की
पहचान कराती है।
आज कवितायें हैं
आज किताबें हैं
आज नाम है सम्मान हैं
किन्तु कविता कहीं खो गई है
जैसे पानी की बूँद
खो जाये रेगिस्तान में।
सिर्फ़ उसके अवशेष पर
कुछ शब्दों के कपड़े हैं।

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