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अपनी जरें

(बुंदेली लघुकथा )
 

"तुमसे कित्ती बेर कही के शहर चलो मन तुम ने मान हो, इते का हडगा गड़े हैं," मुकेश कछु ज्यादै गुस्सा में थो।

भोत दिनों से वो बाई बब्बा है शहर ले जावे की जुगत में थो मन वे मान ने रै थे।

"भैया हडगा तो ने गड़े हैं मन हमरो उते जी ने लग है," बाई ने मुकेश हे समझात भय कही।

"मुक्कु बेटा तुम और बहु आफिस चले जेहो मोड़ा मोड़ी स्कूल, हम उते का कर हैं," बब्बा ने समझात भय कही।

"और इते का कर रय हो, इते भी तो अकेले डरे हो," मुकेश गुस्सा में फनफना रयो थो, "हमरो पूरो मन इते लगो रेत है।"

"बेटा हम औरों की चिंता मत करबू करे हम तो उम्दा रहत हैं," बाई ने प्रेम से मुकेश है समझाओ।

"तुम तो उम्दा रहत हो बाई मनो लोग तो हमें नांव धरत हैं के महतारी बाप की सेवा नेकर के शहर में गुलछर्रे उड़ा रओ है मुक्कु," मुक्कु जोर से बोलो।

"बेटा लोगों के मो पे लुगाहरिया धरी रेन दे हम दोनों तो इतै सुखी हैं तुम तो अच्छे से कमाओ खाओ लोगों हे कहाँ दो," बब्बा ने हँसत भय मुक्कु है समझाओ।

"पर बब्बा शहर में रहवे पे तुम्हें का तकलीफ हो रै है का तुम्हें बहु से का मोडी मोडों से तकलीफ है," मुकेश चाह रओ थो दोई बाके साथ चलें।

"नई बेटा हमें कोई से कोई तकलीफ नै हैं बस हमें हमरे गांव अपने जा घर में अच्छो लगत है। हमें ईतै ख़ुशी मिलत है, का तुम नै चाहो के तुम्हारे बाई बब्बा ख़ुशी रहें?"बाई ने मुकेश हे समझाओ।

"बेटा हमें हमरी जरों से अलग मत करो तुम जाओ ख़ुशी रहो," बब्बा ने बड़ी गंभीर होके अपनों फैसला सुना दओ।

मुकेश बिचारो चुप्पचाप शहर जावे की तैयारी में लग गओ। 

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